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________________ सात कर्मों की स्थिति कुछ कम एक कोडाकोड सागर परिमित होती है तब वह जिस परिणाम से दुर्भेद्य राग द्वेषात्मक ग्रंथि के पास पहुंचता है उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । यह करण भव्य एवं अभव्य दोनों के अनेक बार होता है । आत्मा जिस पूर्व अप्राप्त परिणाम से उस रागद्वेषात्मक ग्रंथि को तोड़ने की चेष्टा करती है उसे अपूर्वकरण कहते हैं । अ, आ - आइडा दो भाइडा बड़ा भाई रे कानो मूल ते राग धेख बे भाइ ने पछाडी ने वेगला करजे । बीजा पण सत प्रकारे प्रकृत रुप चोरटा ने नास कर मिथ्यात घाटी भांगी ग्रंथी भेद करी आइ जाजे । तिहा समकत्रूप महामंत्री पंच रूप करी इहा रहया छे तेहना तूं दर्शन पामीस । पछे त् तेहनी सेवा मे रेता तुज ने योग्यता जाणी ॥१०॥ हिन्दी- -- राग और द्वेष दो भाई हैं । इन दोनों को धराशायी कर अलग कर देना । दूसरी बात सात प्रकार की प्रकृति रूप चोर को नाश कर मिथ्यात्व की घाटी नष्ट कर ग्रंथिभेद करना। वहां सम्यक्त्व महामंत्री पांच रूप में है । तू उसका दर्शन प्राप्त करेगा । उसके बाद उसकी सेवा में रहने से वह तुम्हारी योग्यता को जान लेगा । प्रतिपाद्य - राग और द्वेष के उत्ताप को कषाय कहते हैं । कषाय के चार प्रकार हैं -- क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक के चार-चार भेद हैं-- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन । अनन्तानुबंधी चतुष्क (अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधीमान, अनन्तानुबंधी माया अनन्तानुबंधी लोभ ) तथा मोहनीयत्रिक ( सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय) इन सात प्रकृतियों के विलय से मिथ्यात्व - विलीन होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक सास्वादन और वेदक ऊपर की सात प्रकृतियों के उपशांत होने से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को औपशमिक, इनके क्षय से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को क्षायिक और इनके क्षयोपशम होने से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व से गिरने वाला जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तब अन्तरालकाल में जो सम्यक्त्व होता है उसे सास्वादन क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है समय में) उसकी प्रकृति ( सम्यक्त्व रहता है, अतः उसे वेदक सम्यक्त्व । सम्यक्त्व कहते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से उस समय ( क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के अंतिम मोहनीय) का प्रदेशोदय के रूप अनुभव होता कहते हैं । इ ई - इक इडी एकली बीजी इडी इकारो छं तुज मूल-धर्म चक्रवरती नी बे पुत्री छे एक लघु देसवृत बीजा सर्वव्रती ए ने परणावस्ये पिण समकत मीत्री नी सेवा एक चित से सनमुख रही करस्यो तो मे प्रश्न थाये ॥ ११ ॥ हिन्दी - धर्म चक्रवर्ती के दो पुत्रियां हैं एक छोटी देशव्रती और दूसरी सर्वव्रती । हे जीव । यदि सम्यक्त्व मंत्री की सेवा एक चित्त से सन्मुख होकर करेगा तो वह तुलसी प्रशा ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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