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________________ कुंजी है । इसके बिना जप, तप, नियम, साधना और त्याग सब निगंध पुष्प के समान है। जिस तरह विशाल प्रासाद की शोभा उसके शिखर पर स्थित कलश से होती है, उसी तरह जीवनरूपी भवन की शोभा भी सल्लेखना रूपी कलश से ही हो सकती है। ___ जैन आचार्यों ने मृत्यु के दो भेद बतलाये हैं, प्रथम नित्य-मरण और दूसरा तद्भवमरण । आयु श्वासोच्छवासादिक दश प्राणों का जो समय-समय पर वियोग होता है उसे नित्य-मरण तथा गृहीत पर्याय अथवा जन्म के नाश होने को तद्भव-मरण या मरणान्त कहा जाता है। इसी मरणान्त समय में सल्लेखना का चिन्तवन या सम्यक् प्रकार से कषायों को कृश करना सल्लेखना कहलाता है। इसके बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैंबाह्य सल्लेखना में काय और बाह्य कषायों को कृश किया जाता है तथा आभ्यन्तर सल्लेखना में आंतरिक क्रोधादि कषायों को कृश किया जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने सल्लेखना के दो भेद बतलाए हैं ....सगारी सल्लेखना और सामान्य सल्लेखना । सगारी सल्लेखना को इत्वरिक या कुछ काल के लिए ही ग्रहण किया जाता है । किसी अचानक उपस्थित संकट में जब जीवन की कोई आशा नहीं वची हो तब सगारी सल्लेखना व्रत धारण किया जाता है। पुनः संकट की समाप्ति पर यह व्रत स्वतः ही समाप्त हो जाता है अतएव इसे इत्वरिक या यावत्कालिक सगारी सल्लेखना कहा जाता है। दूसरी सामान्य सल्लेखना को यावत्जीवन तक के लिए ग्रहण किया जाता है। जीवन की अन्तिम अवस्था में जब शरीर और इन्द्रिय धर्म कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं तब मृत्युपर्यन्त के लिए जिस व्रत का संकल्प लिया जाता है उसे सामान्य सल्लेखना कहा जाता है । असाध्य रोग हो जाने पर जब पुनः स्वस्थ होने की आशा नहीं रहती तब भी मृत्युपर्यन्त सामान्य सल्लेखना को ग्रहण किया जाता है ।' सल्लेखना व्रत धारण करने की विधि जैन आगमों में सल्लेखना को संथारा कहा गया है। संथारा अर्थात् संस्तारक का अर्थ होता है बिछौना । चूंकि सल्लेखना में व्यक्ति संस्तारक ग्रहण करता है, अर्थात् अन्नादि चतुर्विध आहारादि का त्याग कर सर्वप्रथम मल-मूत्रादि अशुचि विसजन के स्थान का अवलोकन कर नरम तृणों की शय्या तैयार की जाती है, तत्पश्चात् सिद्ध , अरहंत और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत प्रतिज्ञाओं में दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है । इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमायाचना की जाती है तब साधक अठारह पापस्थानों या मोक्षमार्ग के विघ्नों का त्याग करने का मन वचन और काय से संकल्प लेता है । ये अठारह पाप स्थान हैं ___ "पाणाइवा यमलिअं चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं कोहं माणं मायं लोहं पिज्जं तहा दोषं कलहं अब्भक्खाणं पेसुन्न रइ-अरइ-समाउत्तं परपरिवायं मात्रा-मोसं मिच्छत्तसल्लं च वोसिरसु इमाइं मुक्खमग्गसं सग्गविग्धभूआई दुग्गइ-निबधणाई अप्ठारस पावठाणाई ॥ रत्नकरंडश्रावकाचार के अनुसार निम्न परिस्थितियों में ही सल्लेखना धारण २६२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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