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________________ ततः प्रणष्टचारित्रा अकर्मोपहताः प्रजाः ॥ हरिष्यन्ति शका घोरा बहुलास्ता इति श्रुतिः ॥ चतुर्भागं तु शस्त्रेण नाशयिष्यन्ति प्राणिनाम् । शकाः शेषं हरिष्यन्ति चतुर्भागं स्वकं पुरम् ॥ ध्रुव के सम्पादित पाठ की ५० से ५७ तक की इन पंक्तियों का सारांश यह है कि वसुमित्र के बाद औद्रक राजा हुआ जिसका शकों से घोर युद्ध हुआ और युद्ध में उस राजा के वीरगति पाने के बाद शकों ने चौथाई प्रजा को मार डाला और चौथाई को वे पकड़कर अपने नगर ले गये । औद्रक शुग-वंश का पांचवां राजा है। उसके अभिषेक से शुंगवंश के अन्त तक का काल ५७ वर्ष है। शकों से यदि उसकी लड़ाई हुई थी तो मगध पर १० वर्षों के लिए शकाधिकार भी शुंगकाल में रखना होगा, फिर उसे काण्वयुग में क्यों रखें ? हां यदि यह कहा जाय कि अम्लाट और उसके परवर्ती शक बाद में काण्वयुग में आये तो फिर मगध पर शकों के दो हमलों की कल्पना करनी पड़ेगी जबकि वास्तव में कहीं भी किसी शुंग या काण्व राजा का नाम इस प्रसंग में नहीं है और कम से कम ऊपर उद्धृत अंश में तो मगध या पाटलिपुत्र का नाम भी नहीं है। पाठविकृति हमारी इस आपत्ति के उत्तर में शायद यह कहा जायगा कि औद्रक चूंकि शुंगवंश का राजा है और उक्त राजवंश मगध का था अतः शुंगयुग में मगध पर शकआक्रमण स्वतः सिद्ध है। इसके उत्तर में कुछ कहने के पूर्व हम वसुमित्र और औद्रक के पूर्व की पंक्तियां उद्धत करना चाहते हैं : तदा मद्राख्यके देशे पुष्यमित्रे प्रशासति ॥ तस्मिन्नुत्पत्स्यते कन्या सुमहारूपशालिनी॥ तस्या अर्थे नपो घोरेऽब्राह्मण्यैः सह विग्रहे । तदा विधिवशाद् देहं विमोक्ष्यति न संशयः ।। तस्मिन् युद्धे महाघोरे व्यतिक्रान्ते सुदारुणे॥ अग्निमित्रस्ततो राजा भविष्यति महाप्रभः ।। त्रिंशद् वर्षाणि वै तस्य स्फीतं राज्यं भविष्यति ।। -पंक्ति ४३१४९. यहां 'मद्राख्यके' पाठ कल्पित है, मूल में 'भद्राख्यके' था। 'मद्र' या 'भद्र' वह देश मगध तो हो नहीं सकता। उससे भी बढ़कर धांधली की बात यह है कि 'अग्निमित्रे' की जगह 'पुष्यमित्रे' कर दिया गया है और पंक्ति ४५ में 'घोरे ब्राह्मणः सह विग्रहे' की जगह 'घोरेऽब्राह्मण्यः' तथा पंक्ति ४८ में 'अग्निवेश्य' को 'अग्निमित्र' बना दिया गया है । इसी प्रकार पूर्वोद्धृत पंक्ति ५० में बलात् वसुमित्र और औद्रक के नाम लाये गये हैं। मूल पाठ था ..."अग्निवेश्यस्तथा राजा राज्यं प्राप्तं महेन्द्रवत् ।" हस्तलेखों से असमर्थित ये सभी परिवर्तन त्याज्य हैं और इनके आधार पर निकाले गये निष्कर्षों का कोई मूल्य नहीं है। फिर भी यह कहानी इस पाठविकृति से जोरशोर २७६ तुमसी प्रजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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