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________________ कि 'अ' वर्ण का उच्चारण स्थान बाह्य कण्ठविल है - ऐसा कहा है जबकि आपिशल स्पष्ट ही सम्पूर्ण मुख प्रदेश को इसका उच्चारण स्थल मानता है (सर्व मुखस्थानमवर्णस्य ) । यह अकार सभी विकृत स्वर एवं सभी घोषवान् व्यंजनों की नाद ध्वनि है (आहुघोष घोषवतामकारम् ) । 'अ' का शुद्ध नाद कण्ठविल की प्रातिश्रुत्कता है । यह वह कंपन है जिसके बिना मुख से कोई उच्चारण हो ही नहीं पाता। मुख विवर से बाहर संपूर्ण जगत् में ऐसा कंपन निरंतर होता रहता है । दूसरे शब्दों में जैसे प्रकृति हर पल जागृत रहती है वैसे ही घट में भी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया होती रहती है अथवा अकार विवृत होता रहता है अनुप्रदानात्संसर्गात् स्थानात्करण विभ्रमात् । जायते वर्ण वैशेष्यं परिमाणाच्च पंचमाद् ॥ इसका रूपक यह है कि हमारी जिह्वा (सरस्वती) जो वीणा बजाती है, उसकी तुम्बी दोनों फेफड़े हैं । वीणा के तार और खूंटी प्राणवायु की नली और काकालक ( कागलिया ) है । कण्ठविल में अलिजिह्वा के साथ क्रमशः उपलि जिह्वा, हनुमूल, तालु, नासिका विल, मूर्द्धन, वयें और दंतोष्ठों से सात तार (सप्त स्वर) बंधे हैं और उपलि जिह्वा का सतत कंपन ही संवृत अकार को विवृत अकार के रूप में ( वर्णाक्षरों की ध्वनियों में) बदलता है । मूलतः मौलिक अक्षर १७ हैं-चार अक्षर स्वर-अ, ऋ, इ, उ; चार मौलिक ऊष्माण -ह, श, ष, स, चार अन्तस्थ य, र, ल, व और पांच वर्गादि की ध्वनियां —क, च, ट, त प । इनमें चार अक्षर स्वरों से चार वैकृत स्वर- ए, ऐ, ओ, औ बनते हैं जो अक्षर स्वरों के साथ ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत भेद से २४ होते हैं । लृकार में दीर्घ नहीं होता, इसलिए जो उसे स्वरों में शामिल करते हैं, उनकी दृष्टि में ये २६ हो जाते हैं । जैसा कि वासिष्ठी शिक्षा में लिखा मिलता है - लुवर्ण दीर्घं परिहाय्य स्वराः षड्विंशति प्रोक्ताः । व्यंजन की मात्रा ह्रस्व की आधी और संयुक्त व्यंजनों की मात्रा ह्रस्व की एक चौथाई होती जिसे क्रमश: अणु और परमाणु कहा गया है - व्यंजनमर्द्धमात्रा तदर्द्धाणु परमाणुरर्द्धाणु मात्रा । ऋक् प्रातिशाख्यकार ने लिखा है कि स्वर चाहे अकेले आवे अथवा व्यंजन के साथ, वह अक्षर है - स व्यञ्जनः सानुस्वारः शुद्धो वापि स्वरो अक्षरम् किन्तु एक श्वासीय होने से अकेला अकार अशब्द = = फोनीम है ( स्वं रूपं शब्दस्याशब्द संज्ञा ) जो स्फुट ध्वनि के तीनों रूपों ध्वनि, ध्वनिरूप और संकेतित पदार्थ - में द्वितीय ध्वनिरूप में प्रत्यय और आदेशादि के विकार से रूपान्तरित होता है । इस प्रकार अकार अथवा ओंकार ही सब कुछ है (ओमिति एतदक्षरमिदं सर्वम्) । शिवाथर्व शीर्ष उपनिषद् में इसका निर्वचन इस प्रकार है- य उत्तरतः स ओंकारः, य ओंकार स प्रणव, य प्रणवः स सर्वव्यापी, यः सर्वव्यापी खंड २१, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only ७ www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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