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सोऽनन्तः, योऽनन्तस्तत्तारं, यत्तारं तच्छुक्लं, यच्छुक्लं तत्सूक्ष्म, यत्सूक्ष्म तद्वैद्युत्तं, यद्वैद्युत्तं तत्परं ब्रह्म, यत्परं ब्रह्म स एकः, यः एकः स रूद्रः, यो रूद्रः स ईशानः, यः ईशानः स भगवान् महेश्वरः । अर्थात् क्योंकि इसके उच्चारण में प्राण खिंचते हैं; इसलिये यह ओंकार है। ओंकार होने से प्रणव है, प्रणव होने से सर्वव्यापी है, सर्वव्यापी होने से अनन्त है, अनन्त होने से तारक है, तारक होने से शुक्ल है, शुक्ल होने से सूक्ष्म है, सूक्ष्म होने से वैद्युत है, वैद्युत् होने से परं ब्रह्म है और परं ब्रह्म होने से यह एक है, रूद्र है, ईशान है और महेश्वर है।
__ऋग्वेद में भी वाक् की रचना अक्षर से ही बताई गई है। वहां (१.१६४.२४) अक्षर की महिमा इस प्रकार गाई गई है
गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् ।।
वाकेन वाकं द्विपदा, चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ।। जैन दर्शन में भी आचार्यश्री शिवार्य 'वर्ण जनन' को दर्शन विनय कहते हैं---
भत्ती पूया वण्ण जणणं च णासणमवण्णवादस्स। . आसादणपरिहारो दसणविणओ समासेण ॥४६।।
(-भगवती आराधना)
-परमेश्वर सोलंकी
तुलसी प्रज्ञा
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