SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठीक-ठीक जानने हैं तो यह प्रयास व्यर्थ है क्योंकि वेद-मंत्र अर्थहीन हैं - ( यदि मन्त्रार्थ प्रत्ययायानर्थकं भवतीति कौत्सः । अनर्थका हि मन्त्राः । तदेतेनोपेक्षितव्यम् । ) निरुक्त - परिशिष्ट (२) के अनुसार यह परिस्थिति युग सहस्र वर्षों तक रही (... विद्या महान्तमात्मानं, महानात्मा प्रतिभां, प्रतिभा प्रकृति, सा स्वपिति युगसहस्रम् 1) फिर निरुक्त और शब्दानुशासन को पुनः प्रश्रय मिला । यास्क मुनि ने स्वयं अपने निरुक्त (परिशिष्ट १.१२ ) में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि ऋचाओं का अर्थ सुनकर या तर्क से नहीं करना चाहिए । न उन्हें अलग-अलग स्वतंत्र रूप में निर्वचन करना चाहिए। उनकी व्याख्या में सबसे अधिक प्रधानता प्रकरण को देनी चाहिए (अपि श्रुतितोऽपितर्कतः । न तु पृथक्त्वेन मंत्रा निर्वक्तव्याः । प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्याः । ) – यह प्रतिपादन भी उपरि उद्धृत वेद मंत्रों की ही प्रतिध्वनि है । यास्क मुनि के अलाबा औदुम्बरायण, गार्ग्य, वार्ताक्ष, शाकटायन, वार्ष्यायणि प्रभृति अनेकों ध्वनिशास्त्र (स्फोटवाद) के प्रवक्ता हुए। नैरुक्त और व्याकरणवेत्ता भी दर्जनों उल्लिखित मिलते हैं किन्तु सरलता, सुबोधता और सुस्पष्टता के कारण यास्क का निरुक्त, पाणिनि का व्याकरण और पतंजलि का महाभाष्य विशेष प्रसिद्ध हुए और शेष पुनः अदर्शन हो गए । फिर भी अभिनव शोध में ऐन्द्र, कातन्त्र और जैनेन्द्र व्याकरण, आपिशलि, काशकृत्स्न धातुपाठ और चन्द्र, आपिशल, कात्यायन, उब्वट, प्रभृति के शिक्षा सूत्र तथा व्यास, वामन और हर्षवर्द्धन के लिंगानुशासन आदि अनेकों ग्रन्थ रत्न अब प्रसिद्ध हो रहे हैं और भर्तृहरि के 'वाक्य प्रदीप' की तरह वाक् तत्त्व अथवा शब्द ब्रह्म के रहस्यों का उद्घाटन भी होने लगा है । 'तुलसी प्रज्ञा' के प्रस्तुत अंक में 'ॐ नमः सिद्धम्', 'वर्णमाला में जैनदर्शन' और 'संगीत संबंधी जैनागम का एक पद' -- शीर्षक तीन लेख प्रकाशित हो रहे हैं । ये लेख उपर्युक्त वाक् तत्त्व, शब्द ब्रह्म अथवा महान्तम् आत्मा का ही चिन्तन-मनन है । 'ओम्' - अ + उ +म् में क्रमशः ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर और ऊष्माण रूपी २४ ध्वनियां समाहित हैं अथवा संवृत- 'अ' के विवृत ध्वनि--'अ' में परिणत होने पर ही जगत् की प्रक्रिया शुरू होती है (विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ) । इसे और स्पष्ट करें । संवृत - 'अ' श्रुति सबकी जन्मदातृ है, अक्षर है, और समस्त ध्वनियों और प्रतिश्रुतियों का माध्यम है । प्रातिशाख्यकारों में इसके उच्चारण पर मतभेद है— ऋक् प्रा० इसे कण्ठ्य (कण्ठ्योऽकारः ) कहता है तो कात्यायन प्रा० अ, ह और विसर्ग को कण्ठ्य कहता है (अह विसर्गनीयाः कण्ठे ) । तैत्तिरीय प्रा० ने कहा है कि 'अ' के उच्चारण में ओष्ठ और हनु न तो अति उपसंहृत होकर खिंचते हैं, न अति फैलते हैं (अवर्णे नात्युपसंहृतमोष्ठ हनु नातिव्यस्तम् ) वरन् 'अ' का उच्चारण आभ्यन्तर प्रयत्न से न होकर बाह्य प्रयत्न से होता है (अनादेशे प्रण्यस्ता जिह्वा अकारवद् ओष्ठौ ) । महाभाष्यकार पतंजलि ने भी 'बाह्यमास्यात्स्थानमवर्णस्य' Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy