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संपादकीय
ॐकार की महिमा और संवृत 'अ' ध्वनि
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्रधीरा मनसा वाचमक्रत । अत्रा सखायः सख्यानि जानते भ्रद्रैषी लक्ष्मीनिहिताधि वाचि ।।२।। हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यब्राह्मणा संयजन्ते सखायः ।
अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोह ब्रह्माणो वि चरन्त्युत्वे ॥८॥ ऋग्वेद संहिता, मण्डल-दश के सूक्त ७१ में पढ़े गये ये दोनों मन्त्र वागर्थ के सम्बन्ध में हैं । पहले मंत्र में आंगिरस ऋषि बृहस्पति कहते हैं कि जैसे बुद्धिमान् लोग सत्तू को छालनी से छान कर काम में लाते हैं वैसे ही वे वाक् को मन में छानकर, सम्यक् विचार से उसे निर्दोष बनाकर बोलते हैं। पहले तोलते हैं, फिर बोलते हैं। ऐसी वाणी बोलने वाले परस्पर मित्र होते हैं और वह वाणी भद्र होती है। दूसरे मंत्र में भी यही कहा गया है कि परस्पर मित्रभाव रखने वाले ब्राह्मणों ने गुण-दोष निरूपण से संगतिकरण करके मंत्रों को कहा है। इसलिए उनका अर्थ-चिन्तन भी तादृश ही मनीषी विद्वानों (ओह ब्राह्मण) को प्रकरण आदि से संगति बैठाकर और सामंजस्यपूर्वक करना चाहिए।
पुराकालीन भारतीय वाङ्मय में 'वाक्' अथवा शब्द-ब्रह्म की व्याख्या के लिए शिक्षा, निरुक्त और शब्दानुशासन-तीन प्रकार के ग्रन्थ थे जो क्रमशः आधुनिक ध्वनिशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र और व्याकरणशास्त्र के वाचक कहे जा सकते हैं। शिक्षा, प्रातिशाख्यों के रूप में; निघंटु-निरुक्त, धातु पाठों के रूप में और शब्दानुशासन, व्याकरण के रूप में विकसित हुए किन्तु कालान्तर में ये ग्रन्थ भारतीय वाङ्मय से विलोप हो गए। फलतः वरतंतु शिष्य कौत्स ने कह दिया कि यदि वेद-मंत्रों के अर्थ
खण्ड २१, अंक ३
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