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________________ माया के कार्य के द्वारा ही उसका अनुमान किया जाता है। वह भगवान् की शक्ति है, जिसके द्वारा वे सृष्टि कर्म में प्रवृत होते हैं। वह अनिर्वचनीय, भावरूप तथा ज्ञानविरोधी है। वह जीव को संसृति चक्र में फंसा देती है । भगवद्भक्ति के द्वारा भक्त इस दुस्तरा माया को शीघ्र ही पार कर जाता है। आदि पुरुष जिसके द्वारा भूत समुदाय को उत्पन्न करते हैं, भोग, अपवर्ग एवं मनुष्यादि के शरीर का निर्माण करते हैं, वह माया है। यही माया सृष्टि, स्थिति और प्रलय की कारणभूता है।" (iii) जगत्-विभिन्न आख्यानों के अवलोकन से स्पष्ट है कि यह परिदृश्यमान' जगत् केवल मनोविजृम्भण मात्र है। जल बुद्बुद्वत है। असत् होते हुए भी यह संसार सत्य प्रतीत होता है। यह सम्पूर्ण जगत् उसी परम प्रभु से उत्पन्न होता है, बढ़ता है तथा विनाश को प्राप्त होता है । भागवतीय आख्यानों में विभिन्न प्रकार की सृष्टि का वर्णन मिलता है।" सर्व प्रथम विष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सात्विकी वृत्ति से देवों को, तामसी वृत्ति से यक्ष राक्षसों को, कान्तिमयमूर्ति से गन्धर्व एवं अप्सराओं को, तन्द्रा से भूतपिशाच को, तेजोमय स्वरूप से साध्यगण एवं पितृगण को, तिरोधान शक्ति से विद्याधरों को तथा अपने बालों से सादि की सृष्टि की। अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर जगत् स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है। (iv) विराट् ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त में प्रतिपादित विराट् पुरुष का वर्णन भागवत में भी प्राप्त होता है। कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व में जो पहले था होगा या विद्यमान है, वह सब विराट् स्वरूप ही है। जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्त्व और प्रकृति आदि सात आवरणों से परिव्याप्त ब्रह्माण्ड शरीर में विद्यमान परमेश्वर ही विराट् पुरुष है। विराट् से ही सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है । विराट की उत्पत्ति स्वराट् से होती है। वह स्वराट् सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, सर्वव्यापक, लोकातीत एवं सत्यस्वरूप होता है। श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य सत्यस्वरूप परमब्रह्म परमेश्वर ही है, क्योंकि भागवत का प्रारंभ और अंत उसी के ध्यान से होता है धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि ॥११ तच्छुद्ध विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥२ विभिन्न प्रकार के परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों का उपजीव्य श्री मद्भागवत ही है। अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद आदि का मूल उत्स भागवत ही है । सांख्य दर्शन का विस्तृत विवेचन तृतीय स्कन्ध के छब्बीसवें एवं अठाइसवें अध्याय में उपलब्ध होता है। (v) योगसिद्धान्त नैक स्थलों पर विविध प्रकार के योग सिद्धान्तों का ३३४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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