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________________ कंस द्वारा प्रेरित पूतना कमनीय रूप धारणा करके कृष्ण को सविष स्तनपान कराने के कार्य में प्रवृत्त होती है। किन्तु योगेश्वर कृष्ण दुग्धपान के साथ उसके प्राणों को भी अपने अन्दर समाहित कर लेते हैं। इसी प्रसंग में गोपों को उनके ईश्वरत्व रूप का आभास हो जाता है। विद्वानों ने इस पूतना वध प्रसंग की दार्शनिक व्याख्याएं भी प्रस्तुत की हैं । आचार्य वल्लभाचार्य ने पूतना को अविद्या का प्रतीक माना है । विद्वानों के अनुसार पूतना शब्द का विच्छेद करने पर नृशब्द से न यह शब्द सिद्ध होगा और पूत शब्द पवित्र का वाचक है। इस प्रकार पूतना शब्द से यह अभिप्राय अभिव्यंजित होता है कि महायोगेश्वर कृष्ण ने अपनी प्राणवायु से अविद्या का नाश करके समस्त. क्षेत्र को पवित्र कर दिया। श्रीकृष्ण की कतिपय लीलाएं मात्र गोपजनों के मन प्रसादन के लिए हैं तथा इसके अतिरिक्त अन्य लीलाएं इनके ईश्वरत्वरूप की प्रतिष्ठापिका हैं। मृतिकाभक्षण काल में मां यशोदा के कहने पर मुख्य खोलने पर उसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन कराना इनके ईश्वरत्व रूप की ओर इंगित करता है। - श्रीमद्भागवत में विविध उपाख्यानों के द्वारा भक्ति की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। भक्त होने के लिए किसी जाति एवं वर्ण का व्यक्ति सर्वत: अह है। दैत्य कुलोत्पन्न अनेक राजाओं में हमें भक्ति के चूड़ान्त वर्णन उपलब्ध होते हैं। यदि यह कहा जाए कि श्रीमद्भागवत की भक्ति के प्रधान पुरुष ये दैत्य वर्ग के लोग रहे हैं तो अत्युक्ति न होगी। इस सम्बन्ध में दैत्यराज बलि एवं चित्रकेतु की कथा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भागवतकार की भक्ति के पात्र वर्ग विशेष के लोग ही नहीं है। यह चन्द्रमा की शीतल किरणों की भांति सबके हृदय में आह्लाद उत्पन्न करने वाले ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक, देव से लेकर दैत्य तक सभी वर्ग के लोग इस भक्ति के भाजन बन सकते हैं । इस स्थिति में यह कहना समीचीन होगा कि वैदिक कालीन याज्ञिक क्रियाओं के द्वारा समाज में जो वर्ग भेद भित्ति खड़ी कर दी गई थी, उसे श्रीमद्भागवत में भक्ति के प्रहार से ढा दिया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति एवं दर्शन की मूल भावना समन्वयवाद है । समन्वयवाद आधुनिक विचारकों की देन नहीं है। यह हमारी संस्कृति का मूत्र मंत्र है। -शोध छात्रा संस्कृत विभाग कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल ३२८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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