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________________ विभूषा, स्त्री संसर्ग और प्रणीतरस भोजन आत्मगवेषी मुनि के लिए तालपुट विष के समान है। ये काम विकारों को बढ़ाने वाले हैं और आत्म बोध को नष्ट करने वाले हैं। श-शशी कोटा मरडीया मूल - वली तू सुसलनी परे कोट कान थी ढंकाइ ने वैसी रहीस मा। धर्म ने विषे उद्यमी थाजे । गलियार थइ ने वेसीस मा। तो परलोक नी गती थास्ये । इमन न करसी एक दीन काल रुपीयो पारधी दुरगती मे ले जासी। जिम सुंसल्या ने आहडी गाटी मरोडी नाखै तिम तुज ने पिण काल रुप आहडी मरोडी नाखस्ये ॥४५॥ __ हिंदी---खरगोश की तरह कान को ढंक कर मत बैठना । धर्म के विषय में उद्यम करना। गली में घूमने वाले गदहे की तरह निकम्मा मत बैठना । परलोक की गति होगी। इस प्रकार न करेगा तो एक दिन कालरूपी शिकारी दुर्गति में ले जाएगा । जिस प्रकार खरगोश को शिकारी गला मरोड़ कर मार देता है वैसे ही तुमको भी काल रूप शिकारी मरोड़ कर छोड़ देगा। प्रतिपाद्य-एवं भव संसारे, संसारइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमाय बहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ (उत्तराध्ययन १०।१५) जो जीव अधिक प्रमाद करता है वह अपने शुभ और अशुभ कर्मों से द्वारा भवरूपी संसार में भ्रमण करता है। इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। - प्रमाद से दुर्गति होती है । काल किसी क्षण आ सकता है । वह समय की प्रतीक्षा नहीं करता इसलिए प्रमाद मत कर । ष-षषाषणा फाडीया ___मूल-खरो साचो बोल खोटो वोलीस मा। एक मुख वचन बोलता सर्व गुण सर्व व्रत जाता रहस्ये । जिम कोइ ना वस्त्र नां कोथला ना खूणो फाटो तिहा थी वस्तु हलुइ हलुइ नीकलतां सर्व खाली थाय तथा वली एकांत खुणे वेस पाप करीस तो पिण अखीर उदय काले प्रगट थास्ये ।।४६।।। हिंदी -सत्य बोल, असत्य मत बोल । एक असत्य वचन बोलने से सर्व गुण और सर्व व्रत चले जाएंगे (खण्डित हो जाएंगे) जैसे वस्त्र की कोथली का एक कोना फट जाने से उसमें से वस्तु धीरे-धीरे बाहर निकलती-निकलती कोथली खाली हो जाती है। वैसे एकांत में बैठ पाप करेगा तो अंत में पाप उदयकाल में प्रकट हो जाएंगे। प्रतिपाद्य - साधु के पांच महाव्रत होते हैं। एक महाव्रत के भंग होने पर आंशिक रूप में पांचों महाव्रत भंग हो जाते हैं । जैसे एक साधु असत्य बोलता है । असत्य बोलने से सत्य महाव्रत भंग हो जाता है। अहिंसा की परिभाषा है--सर्व भूतेषु संयमः अहिंसा । सर्व प्राणियों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। असत्य बोलने में असंयम होता ३१२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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