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________________ बीज है । 'ॐ नमः सिद्धम्' में इसी सिद्ध पद की उपासना, अर्चना एवं वन्दना की गई है। ॐ क्या है ? ॐ अ उ म आदि तीन वर्णों से बना है। यह अ वर्ण माला का प्रधान या बीजाक्षर है । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है 'सर्व मुखस्थानमवर्णमित्येके' अर्थात् मुख से उच्चरित सभी वर्गों में केवल एक अ ही प्रधान है। समस्त शब्द समूह और समस्त ध्वनि समूह स्थान प्रयत्न भेद से उसो अकार का ही रूपान्तर है । वही अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता है। बिना उसकी सहायता के न तो कोई वर्ण कहते बनता है एवं न उसे समझा है. जा सकता है । यह अक्षर अपने प्रबल अस्तित्व के कारण अन्य वर्णों का अभाव भी सूचित करता है और अपनी पूर्णता भी; अतः यह बिन्दु रूप है । सभी अक्षरों में यह स्तम्भ या दण्ड (1) रूप में विराजमान है अर्थात् प् से प और ब् में ब । यह उसका कला रूप है । इसी कला रूप से यह हलन्त वर्गों को उच्चारण में स्थायित्व प्रदान करता है जो उसका नाद रूप है। इस एक ही अक्षर अ में बिन्दु, नाद एवं कलामय तीनों रूपों का समावेश हो जाता है। संसार एवं ब्रह्माण्ड के मूल में भी ब्रह्म की बिन्दु, नाद एवं कला रूप त्रिविध शक्ति निहित है । यही अ प्रधान है, प्रमुख है एवं प्रथम है जो अनादि है, अनन्त है एवं अमृत रूप है। ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत भेद से यह स्वयं तीन प्रकार का है जो सत्व रज एवं तमो गुणों का प्रतीक है, इसका अर्थ सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखण्ड , निषेध, अभाव आदि होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-अक्षराणामकरोस्मि अर्थात् मैं अक्षरों में अकार हूं। उ पांचवां स्वर है जो पंच भूतात्मक संसार का प्रतीक है। इसे पंच परमेष्टियों का भी प्रतीक माना जा सकता है। संगीत में पंचम स्वर प्रमोद एवं हर्ष का रूपक माना जाता है । यह निम्न धातु से बना है । अत् (सतत गमन)+डु से बना है जो व्यक्ति को निरन्तर चरैवेति (ऐतरेय ब्राह्मण) चलते रहो, क्रिया शील रहो की प्रेरणा देता है । उ पुष्टि दाता भी है और मुक्ति दाता भी। उ का संप्रसारण म वर्णमाला का २५वां अक्षर है एवं हृदय कमल की कणिका में स्थित है। इसके चारों ओर स्थित २४ दलों में क से भ पर्यन्त २४ वर्ण है जो जैनों के २४ तीर्थकर, हिन्दुओं के २४ अवतार एवं बौद्धों के २४ बुद्धों के प्रतीक माने जा सकते हैं । पाणिनीय शिक्षा के अनुसार --"कादयो मान्ता : स्पर्शा' अर्थात् क से लगाकर म तक के वर्ण स्पर्श माने जाते हैं। दार्शनिक भाषा में स्पर्श का अर्थ है इंद्रिय संवेद्य वस्तु । इस प्रकार अउम् का अर्थ हुआ इंद्रिय संवेद्य ज्ञान से अतीन्द्रिय जगत् की ओर जो सतत गमन करवाये वह ॐ अर्थात् दृश्य अदृश्य ब्रह्माण्ड का आदि और अन्त इसी में व्याप्त है। अ- अमात्र है एवं म त्रिमात्र है। उ- अर्द्ध मात्र है अर्थात् त्रिमात्र (संसार) में से अमात्र (ब्रह्म) में जीने के लिए उ सेतु रूप है । अ से आरंभ उ से गमन एवं म से मापन क्योंकि म मा (मापना) धातु का प्रतीक है । माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है--यह अध्यक्षर रूप परमात्मा त्रिमात्रिक ॐकार है । अकार, उकार और मकार इसके तीन पाद हैं और पाद ही मात्राएं हैं। प्रथम मात्रा 'अकार' सर्व ध्यापक और आदि होने के कारण जागृत अवस्था का द्योतक है । द्वितीय मात्रा 'उकार' श्रेष्ठ खंड २१, अंक २ २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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