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________________ पुस्तक-समीक्षा और साहित्य-सत्कार १. जैन आगमः वनस्पतिकोश- वाचना प्रमुख गुरुदेव श्री तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य श्री महाप्रज्ञ, संपादक मुनि श्रीचंद 'कमल' । प्रकाशक- जैन विश्व भारती, लाडनूं । प्रथम संस्करण-१९९५ । मूल्य-२०० रुपये। आगम शब्दकोश, देशीशब्दकोश, एकार्थककोश और निरुक्तकोश के पश्चात् यह पांचवां वनस्पतिकोश जैन विश्व भारती से प्रकाशित हुआ है। यह वाचना प्रमुख गुरुदेव श्री तुलसी के आशीर्वाद एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ की अनुग्रह मूलक उत्प्रेरणा से संभव हुआ है। इस कोश के प्रकाशन से आयुर्वेद एवं यूनानी-तिब्ब आदि देशी चिकित्सा पद्धतियों के लिये एक अतीव महत्त्वपूर्ण परन्तु सर्वथा अज्ञात वनस्पतिकोश का द्वार खुला है । आचार्य महाप्रज्ञ न इसे इन्द्रियगम्य वनस्पति जगत् के कतिपय पेड़-पौधों का संकलन कहा है और इसे आगम पाठ के संदिग्ध स्थलों को असदिग्ध बनाने में सहयोगी भी माना है। उनका कहना है कि यदि वर्तमान में उपलब्ध वनस्पतिकोशों, बिहार प्रान्तीय शब्द कोशों का प्रयोग किया जाए तो अनेक पाठ शुद्ध हो सकते हैं और उनके अर्थ का भी सम्यक् बोध हो सकता है।' इस संबंध में उन्होंने प्रज्ञापना आदर्शों में आये 'अट्टरुसग'-- शब्द का उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें संयुक्त टकार के स्थान पर संयुक्त दकार लिखा मिलता है । टब्बा में इस शब्द का अर्थ 'अरडूसो' दिया है और शालिग्राम निघंटु में अडूसा के लिए 'आटरूषक' और वनस्पतिकोश में 'अट्टरुसग' शब्द मिलते हैं। उनके द्वारा दिया गया दूसरा उदाहरण भी प्रज्ञापना की ही एक गाथा में आया 'पीईयपाण' शब्द का है जिसे जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति में 'वीयगुम्मा' अथवा 'बीणगुम्मा' और जीवाजीवाभिगम वृत्ति (मलयगिरि) में 'बीअक गुल्माः' या 'बाण गुल्माः ' कहा गया है। भावप्रकाश (५१४३.४४) में सरेयक, कुरण्टक और बाण -ये तीनों गुल्म एक जाति के बताए गए हैं और प्रज्ञापना की उक्त गाथा में भी ये तीनों शब्द उपलब्ध हैं, अतः 'णीइम पाण' के बदले 'बीअकबाण' पाठ ही साधु होना चाहिए। दरअसल प्रज्ञापनासूत्र का शब्दानुक्रम बनाते समय उसमें आये वनस्पतिपरक शब्द देखकर मुनिश्री को यह लोकोपकारी कार्य हाथ में लेने का संकल्प हुआ और प्रोत्साहन पाकर उन्होंने यह कठिन पर सुखद कार्य कर डाला। पांच वर्षों के सतत अध्यवसाय से उन्होंने अकेले 'प्रज्ञापनासूत्र में ही ४२१ वनस्पति परक संज्ञानाम खोज निकाले। फिर दूसरे आगम ग्रन्थों का अवगाहन करके कुछ और शब्द खोजे गए और उनमें से ४५० शब्दों की पहचान भी कर ली। उन शब्दों के पर्यायवाची, संस्कृत खण्ड २१, बंक ३ ३४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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