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________________ अपने मनोभावों के रूप में प्रस्तुत करने में भी उन्हें महारथ हासिल है। उनके विचार परम सात्विक हैं जो पदे पदे इन प्रवचनों में भी दृष्टिगत होते हैं। उदाहरण-स्वरूप कुछ नमूने देखिए १. संसार में बिना गुण के कोई मनुष्य नहीं है। बस गुणों को देखने की आवश्यकता है। २. जिनेन्द्र भगवान् की उपासना करने वाले जैन हैं, पर ध्यान रखना धर्म सम्प्रदायातीत है । मैं जैन हं, मैं हिन्दू हूं, मैं सिक्ख हूं, मैं इसाई हूं या मैं मुस्लिम हूं, इस प्रकार की मान्यता हमारे समाज रूपी महासागर के विशाल अस्तित्व को समाप्त करने वाली है। ३. प्रत्येक धर्म अनन्त शक्ति लिए बैठा है वस्तु में, उसको समझना चाहिए.....कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम मंजूर करो....... 'भी' का अर्थ अनेकान्त और 'ही' का अर्थ एकान्त । 'भी' का अर्थ कथंचित उसका स्वागत और 'ही' का अर्थ है उसके अस्तित्व पर ही पानी फेर देना। भाव और भाषा की दृष्टि से कुछ सूक्तियां देखिए१. खुश्क मत करो, खुश करो। २. तुम भीतर जाओ/और/तुम्बी सम/तुम भी/तर जाओ। ३. भभकने वाला दीपक प्रकाश नहीं देता किन्तु तेल को पांच मिनट में ही हजम कर लेता है। ४. कहने को मात्र १४८ कर्म हैं लेकिन उनके भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। ५. साधु बनो, न स्वादु बनो, साध्य सिद्ध हो जाय । ६. यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर । हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ।। उनके मत में 'अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो।' और यही बात गुरु नानक कहते हैं---'एक ने कही दूजे ने मानी ! गुरु नानक कहे दोनों ज्ञानी !!' . सर्वांश में प्रस्तुत प्रकाशन से उन लोगों में भी आचार्यश्री के प्रवचन सुनने की लालसा जगेगी जो उनके साहित्य सुरस से परिचित हैं किन्तु प्रवचनों में साधारणीकरण का प्रत्यक्ष लाभ नहीं ले पाते। सुसंपादन एवं प्रकाशन के लिए सभी सम्बन्धित बधाई के पात्र हैं। -परमेश्वर सोलंकी खण्ड २१, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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