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________________ वर्णमाला में जैनदर्शन मुनि श्रीचंद्र 'कमल' प्राचीनकाल में गुरु परंपरा चलती थी । गुरु अपने स्थान पर बालकों को पढ़ाते थे। उस समय महाजनी विद्या पढ़ायी जाती थी। प्रमुख रूप से पढ़ना व लिखना सिखाया जाता था। एक से सौ तक गिनती व पहाड़े मौखिक याद कराए जाते थे। वस्तुओं के क्रय और विक्रय में ये पहाड़े उपयोगी होते थे। कई बालक तेज होते थे वे उपाडी (गुर या फार्मूला) के माध्यम से प्रश्नों को बहुत जल्दी हल कर देते थे। जैसे कोई वस्तु पांच रुपयों की एक सेर आती है तो १ छंटाक का क्या लगेगा ? इसका गुर था - जितने रुपयों का १ सेर तो एक छंटाक के उतने ही आने लगेंगे। इस प्रकार अनेक फार्मूले निश्चित थे। विवाह के लिए संबंध निश्चित करने से पूर्व लड़के की परीक्षा ली जाती थी। उसे महाजनी के हिसाब पूछे जाते थे, अक्षर लिखाये जाते थे और पत्र पढ़ाया जाता था। इन बातों में जो पास हो जाता उसे लड़की देने में संकोच नहीं होता था। वे जानते थे कि जो इतना जानता है वह कमाकर अपने घर को चला लेगा। योग्यता का माप दंड उस समय इतना सा ही था। इसलिए मोडिया लिपि में पत्र पढ़ना और लिखना तथा अक्षरों को जमाना (सुडौल करना) आवश्यक था। लड़के जमीन पर रेत बिछाकर और लकड़ी की तख्ती पर कलम से अक्षरों को सुंदर लिखने का अभ्यास किया करते थे। मैंने भी ५५ वर्ष पूर्व इस पद्धति का प्रयोग किया था। तेरापंथ धर्मसंघ में साधु भी अक्षरों को जमाते थे। एक गते पर सुंदर अक्षर एक साधु द्वारा लिखा जाता था। उस पर वारनिश कर देते थे जिससे अक्षर मिटते नहीं थे । उस पर कागज रख कर साधु अक्षर जमाते थे। तीन चार दशकों से यह परंपरा छूट सी रही है फिर भी उसकी प्रतिलिपियां आज भी तेरापंथ साहित्य भंडार में सुरक्षित है । मुनि श्री मधुकरजी स्वामी ने एक प्रति मुझे दी है । - आजकल विद्यार्थियों को वर्णमाला चित्र दिखाकर याद कराते हैं। क का कबूतर, ख का खरगोश, ग का गदहा, घ का घट चित्र होता है। गुरु परंपरा में वर्णमाला सीखाने के लिए वस्तुओं के नाम थे। जैसे क के लिए कको कोटको, ख के लिए खखो खाजुलो, ग के लिए गगा गौरी गाय, घ के लिए घघा घाट पिलाण्यो जाय ये निश्चित थे । समय-समय की अपनी पहचान होती है। प्रस्तुत कृति वर्णमाला को याद कराने की प्राचीन पद्धति पर आधारित है। खण्ड २१, बंक ३ २९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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