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वस्तुत: आतंक का दर्शन है, वह अपने आंतरिक और बाह्य मर्म को जान लेता है। अर्थात् दूसरों के दुःख-सुख में अपना दुःख-सुख देखने लगता है। सुख-दुःख स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । दूसरे के दुःख-सुख का संवेदन स्वसंवेदन के आधार पर ही किया जा सकता है । इसलिए वह परोक्ष ज्ञान है । निमित्त के मिलने पर जो अपने में घटित होता है वही दूसरों में घटित होता है और जो दूसरों में घटित होता है वही अपने में घटित होता है यही एक मात्र पैमाना है। भगवान् महावीर इसी तुला से आचरण का अन्वेषण करने के लिए निर्देशन देते हैं। महावीर ने इस प्रकार हमको पशुओं के साथ (बल्कि कहें, सभी जीवों के साथ) शांति से रहने के लिए एक मापदंड (टैलिसमैन) बताया है कि समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को अपनी ही तरह का सुख-दुःख समझो और उनका संहार न करो ।
शान्ति-शोध के एक आधुनिक विचारक, जोहम गाल्तुंग, ने शान्ति को हिंसा का अभाब या अनुपस्थिति कहा है । वेशक यह शान्ति की कोई शास्त्रीय परिभाषा नहीं है । ऐसा सोचना शायद् शान्ति के पहले से ही अस्पष्ट प्रत्यय को और भी अस्पष्ट कर देना होगा । लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि शान्ति और हिंसा एक दूसरे से कुछ इस तरह से जुड़ी हुई परस्पर संबंधित अवधारणाएं हैं कि शान्ति को हिंसा का अभाव माना जा सकता है ।" किंतु यहां यह ध्यातव्य है कि गाल्तुंक जब शान्ति को हिंसा का अभाव कहते हैं तो उनकी दृष्टि व्यापक रूप से जीव हिंसा पर न होकर, सामाजिक-राजनैतिक हिंसा पर अधिक रही है । वे सामाजिक-राजनैतिक शान्ति के लिए समाज में हिंसा के विरुद्ध हैं। लेकिन, जाहिर है, भगवान महावीर का दृष्टिकोण इससे कहीं अधिक व्यापक है । वे न केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच शान्ति चाहते हैं वल्कि मनुष्य और पशुजगत् तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच भी शांति कामी हैं । अतः पशुओं के प्रति बर्ताव में भी उन्होंने अहिंसा का अनुमोदन - किया है।
जैन दर्शन में पशुओं के प्रति अहिंसक वृत्ति के लिए, कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है, कुछ अधिक ही आग्रह किया गया है । इसका मुख्य कारण शायद् महावीर के समय हिंदुओं में अत्यधिक हिंसा, विशेषकर यज्ञादि में होने वाली पशुबलि की प्रधानता रही होगी जिसमें हिंसा को हिंसा समझा ही नहीं गया। कहा भी गया है, यज्ञ में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं होती। महावीर का करुणामय हृदय अवश्य ही निरीह पशुओं की यज्ञ के नामपर होने वाली हिंसा को देखकर द्रवित हुआ होगा और इसीलिए उन्होंने सभी प्रकार के जीवों की हिंसा पर नियंत्रण के लिए इतना अधिक बल दिया उन्होंने यह प्रत्यक्ष देखा था कि मनुष्य अपने नानाविध प्रयोजनों के लिए शारीरिक बल, ज्ञानात्मक बल, मित्र-बल, पारलौकिक बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि बल, कृपण-बल और श्रमण-बल आदि, का संचय करता है और इन सभी प्रकार के सामथ्र्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा (दंड) का प्रयोग करता है। इससे स्पष्ट ही, जीव जगत् में अशान्ति उत्पन्न होती है । अतः भगवान् महावीर कहते हैं कि प्रयोजनों के लिए किसी भी मेधावी पुरुष को हिंसा का न तो प्रयोग करना र २१, अंक ३
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