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से सहित होते हैं।
प्रतिपाद्य-कर्म की अपेक्षा से जीवों के दो विभाग किए गए हैं। संसारी जीव कर्म सहित होते हैं । जैन धर्म का अंतिम लक्ष्य है कर्मो से मुक्त होकर सिद्ध गति को प्राप्त करना । जब कर्म मल दूर हो जाता है तब जीव संसार के भ्रमण से कर्म मुक्त होकर सिद्ध हो जाता है। ८
मूल-भले ते स्यूं । सिद्ध नी रासि माहे भलवा नी इच्छा राख ॥२॥
हिंदी-८ की संख्या का क्या अर्थ है ? सिद्ध की राशि में मिलने की इच्छा रखो ।
प्रतिपाद्य-संसारी जीव ८ कर्मों सहित होते हैं। ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप की आराधना से ८ कर्मों का क्षय कर आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होता है । सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। __ • मूल-मीड़ संसार रुप गोल उंडो कूवो छे ते माही निकलसी तो सिद्धा माही भलसी ॥३॥
हिन्दी-बिन्दु का अर्थ क्या है ? संसार गोल गहरा एक कुंआ है। उसमें से निकलेगा तो सिद्धों में मिल जाएगा।
प्रतिपाद्य -- गुणस्थान १४ होते हैं। पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और १४वां गुणस्थान अयोगी केवली गुणस्थान होता है । १४वें गुणस्थान के बाद जीव सिद्ध गति को प्राप्त होता है। मिथ्यात्वी दो प्रकार का होता है-अभवी और भवी । अभवी कभी मुक्त नहीं होता। भवी मुक्त होता है। भवी मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी बनता है, फिर क्रमशः अविरत सम्यक् दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, वीतराग केवली, अयोगी केवली, सिद्ध बनता है। ॥-बीलाडी
मूल -- जीम कूप माही वस्तु पडी होवे तो लोहे नी बीलाडी थी काढे तिम इहा संसारी जीवन ने संसार रुप कूप माही थी काढवा नी बीलाडी । एकदेसव्रत बीजा सर्वव्रत ॥४॥
हिन्दी--जिस प्रकार कुंए में कोई वस्तु गिर गई हो तो उसे लोहे की बिल्ली से निकाला जाता है वैसे ही इस संसार में से जीव को निकालने के लिए देशव्रत और महाव्रत बिल्ली है।
प्रतिपाद्य-सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं --- देशविरत और सर्वविरत । सम्यक् दष्टि से असंख्य गुण अधिक निर्जरा देश विरत के होती है। देशविरत से असंख्य गुण अधिक निर्जरा सर्वविरत के होती है। ॐ-उगण चोटीयो माथे पोतीयो
मूल-सिद्धा ना जीव कीहा रहे ते कहे छ। चवदे राज लोक ना तीन भाग करता एक तो नीचे लोक मध्य लोक उर्धलोक ने चोट ली थानके इसीप्रभाप्रवथी
खण्ड २१, अंक ३
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