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________________ का विवेचन है :(क) युद्ध -श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में अनेक प्रकार के युद्ध का उल्लेख मिलता है। दुष्टों के संहार के लिए, भक्तों के उद्धारार्थ, प्रतिशोध की भावना के वशीभूत होकर राज्य सीमा के विस्तारार्थ, ईर्ष्या या द्वेष के कारण से युद्ध का आविर्भाव हुआ है । भगवान् श्रीकृष्ण अनेक राक्षसों का संहार करते हैं। यक्षों से राजा ध्रव का युद्ध अत्यन्त रोमांचकारी है। अपने भ्राता उत्तम के वध का बदला लेने के लिए धनुर्धर ध्रुव ने विभिन्न प्रकार से युद्ध में प्रवृत होकर यक्षों का विनाश किया ।५३ भागवत में अनेक प्रकार के युद्ध जैसे-आयुद्ध युद्ध, मलयुद्ध, गदायुद्ध, । मुष्टियुद्ध आदि का वर्णन प्राप्त होता है। (ख) राजधर्म का निरूपण - आख्यानों में राजधर्म का विस्तृत निरूपण हुआ है। श्रीमद्भागवतीय राजा प्रजानुरजक थे। प्रजा के लिए ही वे जीवन धारण करते थे। उनका एक-एक कत्तव्य प्रजा के लिए ही समर्पित होता था। राजा शत्रु एवं पुत्र को समभाव से देखता था। दण्डनीय होने पर वह पुत्र को भी दण्डित करता था। प्रजानुरञ्जन के कारण ही राजा को राजा कहा जाता था। रञ्जयिष्यति मल्लोकमयमात्मविचेष्टितैः । अथामुमाहू राजानः मनोरञ्जकैः प्रजा ।।४।। वह दृढ़ संकल्प, सत्य प्रतिज्ञ, ब्राह्मण-भक्त, वृद्धजनसेवक, शरणागत वत्सल, सर्वप्राणियों को मान देने वाला और दीनों पर दया करने वाला होता था ।५५ वह परस्त्री को माता के समान, पत्नी को अर्धांग के समान, प्रजा पर पिता के समान प्रेम रखता था ।५६ दुष्टों के लिए यमराज के समान अतिभयंकर और क्लेशदायी होता था। राजा रन्तिदेव वैभव-विलास, ऋद्धिसिद्धि आदि का परित्याग कर सम्पूर्ण लोक किंवा प्रजा का दुःख अपने ऊपर ले लेना चाहते हैं, जिससे कि एक भी प्राणि कष्ट में न रह सके । न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा मष्टद्धियुक्ताम पुनर्भवं बा । आति प्रपद्येऽखिल देहभाजा मन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ।।५७ दुष्ट राजाओं का भी वर्णन प्राप्त होता है, जिनसे प्रजा संत्रस्त रहती थी। राजा वेन के आतंक से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। कंश, जरासंध आदि राजा ऐसे ही थे। इससे तत्कालीन समाज की उच्छृखलता का बोध होता है। राजा देवांश है-भागवतकार ने यह प्रतिपादित किया है कि राजा देवांश होता है। स्वयं विष्णु ही लोकमङ्गल के लिए राजा के रूप में अवतरित होते हैं । राजा देवांश होता है-इसका प्रतिपादन भागवतकार ने अनेक तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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