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________________ " महावीर, आह्वान, सिद्धान्त, राजुल नेमि और कतिपय भजन छपे हैं । ६. "मानवताना दीवा" और "जिनभक्ति" – संपादक -- लक्ष्मीचंद छ. संघवी, २ घुतपापेश्वर बिल्डिंग, मंगलकडी, २४० शंकरशेठ रोड, मुंबई-४ । भाई लक्ष्मीचंद संघवी ( बाबुभाई) प्रेस फोटोग्राफर हैं और 'मुंबई समाचार' से जुड़े हैं। आपको १९८६ में सेवानिवृत्ति के बाद ज्ञान प्रसार की धुन लगी हैं । आपने सामायिक सूत्र का प्रकाशन कर उसका वितरण किया और सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से 'प्रेरणा' - शीर्षक संकलन प्रकाशित किया । तदुपरांत जिनभक्ति एवं मानवताना दीवा शीर्षक में दो संग्रह प्रकाशित किए हैं । बाबुभाई का कहना है 'अन्नदान श्रेष्ठ छे । ऐमा बे मत नथी । पण ज्ञानदान ने हुं ऐथी बंधु श्रेष्ठ मानु छं । कारण के अन्न खाधा पछी ऐ जींदगीभर याद रहे तुं नथी पण सारा पुस्तकोनी भेंट अने वांचन में जिंदगीभर याद रहे छे । फेरी फेरी बार बांची शकाय छे। अने आ रीते ज्ञान अने संस्कारिता जींदगी भरनु भाथु अने संभारणं रहे छे ।' - यह कथन सत्य है । ८४ वर्ष की अवस्था में संघवी साहब की यह धुन भी इसीलिए सकारात्मक है । १०. न्यायावतार सूत्र - ( आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ) - विवेचक, पं० सुखलाल संघवी । प्रकाशक - शारदाबेन चीमनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर शाहीबाग, अहमदाबाद- ४ | मूल्य २५ रुपये । स्व० पं० सुखलाल संघवी द्वारा लिखित न्यायावतार सूत्र की विवेचना सन् १९०८ में 'जैन साहित्य संशोधक' में छपी थी। उसके बाद पं सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। प्रो. सातकड़ी मुखर्जी ने भी इस सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद किया और पिछले दिनों पं. दलसुख मालवणिया ने इस पर लिखी शांतिसूरि की वार्तिक वृत्ति का संपादन किया । कतिपय और भी प्रकाशन हुए हैं। दरअसल जैनदर्शन में प्रमाण मीमांसा विषयक ग्रन्थों में न्यायावतार सूत्र शीर्ष स्थान पर है । ३२ कारिकाओं में लिखा होने पर भी प्रमाण-व्यवस्था का यह पहला ग्रन्थ है । सन् १९०८ के बाद एतद्विषयक पर्याप्त चिन्तन-मनन हुआ किन्तु पं० संघवी के लेखन का अपना महत्त्व है । उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर के शारदाबेन सेन्टर सुधी पाठकों के लिए उपलब्ध करा दिया । एतदर्थ उसके अधिकारीगण धन्यवाद के पात्र हैं । ११. आत्म-समीक्षण संपादक - शान्तिचन्द्र मेहता, प्रकाशक- श्री अखिल भारत वर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर | प्रथम संस्करण - १९९५ । मूल्य - ७० रुपये | आत्म समीक्षण आचार्य नानालाल सा. के राणावास --- प्रवचनों पर आधारित चिरंतन आर्हतीविद्या का अमृतकलश है । इसमें जैनदर्शन एवं अध्यात्म साधना के नव-सूत्र है । यह ग्रन्थ उत्तम पुरुष में लिखा गया है और विभावों को दूर करने के लिए खंड २१, अंक ३ ३५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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