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ओघनियुक्ति में उपधि - साध्वी जतनकुमारी "कनिष्ठा"
जैन दर्शन में दो प्रकार की साधनाएं रही हैं। एक सचेलक साधना पद्धति और दूसरी अचेलक साधना पद्धति । जो साधक कायक्लेश तप की विशिष्ट-साधना लाघव धर्म की आराधना और कष्ट सहिष्णुता की कसौटी पर खरे उतरने के लिए अपनी अर्पणा करना चाहते, वे एक शाटक अथवा अचेलक रहते हैं और जो श्रमण अभिग्रहधारी प्रतिमाधारी व गण व्युत्सर्ग करना नहीं चाहते वो सचेलक साधना स्वीकार करते हैं। सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की परम्पराएं अभिमत, अनुमोदित एवं जिन आज्ञा से अनुप्राणित रही हैं ।
निर्वस्त्र साधना करने वाले श्रमण अपने को महान् और सवस्त्र साधना करने वाले को हीन श्रमण नहीं मानते थे। परिस्थिति भेद से दोनों अनुज्ञात थे। हीन और महान् का प्रश्न ही नहीं था। .
जोडवि दुवत्थ तिवत्थो, एगेणअचेलगोव संथरइ । णहुंते हीलंति परं, सब्वेऽविते जिणाणाए ।
--आयारो, व ११६३ किसी के मन में किसी प्रकार का अवज्ञा भाव नहीं था। सब अपनी-अपनी सीमा में मस्त थे, व्यस्त थे। जम्बू स्वामी तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही । जब से वोटिक ने अपनी ममतामयी चद्दर के गुरु द्वारा किये टुकड़े देखे, उसी दिन से उसने वस्त्रों का त्याग कर दिया और वस्त्रों सहित रहने वाले मुनि की मुक्ति नहीं हो सकती, ऐसी प्ररूपणा की। लगता है परम्परा भेद की प्रसव भूमि यहीं से प्रारम्भ हुई है। निर्वस्त्र (दिगम्बर) अपने आपको महावीर के सच्चे साधु तथा वस्त्रधारी को जिनाज्ञा से बहिर्भूत मानने लगे। धर्मोपकरणों को परिग्रह एवं मूर्छा का हेतु बताकर वस्त्रों को अविहित मानने लगे।
जैन साहित्य में प्राचीनतम आगम आचाराङ्ग है। उसमें मुनि को एक वस्त्रधारी, दो वस्त्रधारी, तीन वस्त्रधारी कहा है
वत्थं पडिग्गहं कंबलं पाय पुंछणं, उग्गहं च कडासणं ।' वस्त्र, कम्बल, पाद पोंछन अवग्रह और कटासन (जो गृहस्थों के लिए निर्मित हो) उनकी ही याचना करे ।
जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उनका मन ऐसा नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा।'
आचारचूला के पांचवें अध्ययन में वस्त्रंषणा के चार प्रकार बतलाए हैं।
खण्ड २१, अंक ३
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