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________________ लापता है । मूल में था : ततो विश्वक्यशा कश्चिद् ब्राह्मणो लोकविश्रुतः । तस्यापि त्रीणि वर्षाणि राज्यं हृष्टं भविष्यति ।।" उसे मिटाकर शकों की वंश-वृद्धि करने की चेष्टा की क्या सार्थकता है, कहना कठिन है । सारांश यह कि मगध में शक-शासन का अस्तित्व अम्लाट के बाद भी बना रहना युगपुराण से प्रमाणित नहीं होता । अम्लाट का काल प्रश्न है : मगध पर हमला करने वाले अम्लाट का काल क्या है ? चूंकि अम्लाट कलिङ्ग जीतने जाकर किसी सातवाहन राजा के हाथों मारा गया अतः अन्ध्रकाल (१२०७ --- ८०१ ई० पू०) में उस घटना की रखने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है । परन्तु हमें यहां आग्रहमुक्त होकर चलना चाहिए। पुलोमा के बहुत बाद सोमदेव भट्ट ने जब काश्मीर में बैठकर 'कथासरित्सागर' रचा उस समय भी वहां अपने को सातवाहन कहनेवाला एक राजवंश वर्तमान था। फिर सिमुक के पूर्व भी सातवाहन राजा का अस्तित्व असम्भव नहीं । अतः यह प्रश्न अभी अनिर्णीत है। वैसे अन्ध्रकाल में अम्लाट का आक्रमण अधिक सम्भव लगता है। ईसवी सन् के इतना पहले शकों का भारत में होना ध्रुव को असम्भव लगता है। वे अम्लाट को अजेस् के साथ इसलिए नत्थी कर देते हैं क्योंकि उनको पूर्ण विश्वास है कि शक विदेशी आगन्तुक थे। वे मध्य एशिया से १२० ई० पू० के बाद आए और अजेस् ही वह व्यक्ति था जिसने पंजाब में शकों का सिक्का जमाया। पूर्व की ओर बढ़ने का प्रश्न तो इसके बाद ही उठ सकता है। दुर्भाग्यवश इस मत की जड़ें अब खोखली हो गई हैं क्योंकि आधुनिक इतिहासकारों का एक भाग ईसा पूर्व आठवीं-नवीं सदी में एक शक आक्रमण की बात मानने लगा है।" ऐसी हालत में अन्ध्र-काल के अन्तिम भाग में अम्लाट का आक्रमण हुआ, ऐसा मानने में आधुनिक इतिहासकार बाधा नहीं दे सकते। फिर भी 'शक' शब्द और शक जाति को विदेशी मानना भ्रममात्र है। 'शक' धातु से बना 'शक' शब्द 'बली' अर्थ का बोधक है । उसका और उससे बने शाक, शाकिन् जैसे शब्दों का प्रयोग वेदों में भी मिलता है । एक मजबूत लकड़ी आज सागौन कहलाती है जो 'शाकवन' का ही परिवर्तित रूप है। फिर भारत की एक बली जाति 'शक' कहलाती थी इसमें आश्चर्य ही क्या है ? शकों का मूल स्थान किसी समय रावी और चनाब का कांठा (उशीनर जनपद) था। पुराणों के अनुसार राजा बाहु के समय वे अयोध्या तक पहुंच गये थे। सगर के समय वे पतित घोषित किये गये और निर्वासित हुए ।२ मनु शकों की गणना उन क्षत्रिय जातियों में करते हैं जो वृषल बन गयीं ।"धर्म-भ्रष्ट होने के बाद उनमें से अधिकांश तोची-गोमल नदियों के रास्ते गजनी गन्धार की अधित्यका की ओर चले गये शकस्थान या सीस्तान में बस गये । डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने भारतीय परम्परा का अनादर करके शकों का गतिपथ उल्टा बताया है ।" पाणिनि को नवीं शती ई० पू० के बाद रखना भी उनका भ्रम है क्योंकि नन्द राजा का समकालीन पाणिनि सत्रहवीं शताब्दी ई० २७८ तुमसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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