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________________ प्रतिपाद्य - सम्यक्त्व प्राप्त करने से पूर्व मिथ्यात्वी अवस्था में की गई उत्कृष्ट निर्जरा से नरेन्द्र (चक्रवर्ती) पद प्राप्त होता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद उत्कृष्ट संवर और निर्जरा की आराधना से सिद्ध गति को प्राप्त होता है या अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त होता है । जाइमरणो मुच्चई । इत्मत्थं च चयइ सव्वसो | सिद्धे वा भवइ सासए । देवे वा अप्परए महिड्दिए ॥ ७॥ क्ष - भुडीया षाटक मोर छोड पाले बंधीया बे चोर मूल सिध ना सुख किम पामे ते कहै छे । इण संसार माहि षटकाय ना जीव आरंभ पहिली छोड नही तो आत्मा ना ग्यानादिक गुण लुटवा ने राग धेष रुप दोय चोर खडा छे । तेहने पकडी बाधी ने बीज मात्र काटी ने जिम कर्म रुप वृक्ष नी उत्पति फेरी न थाय । रागाय दोसाय कम बीया तेहने टालीजे । च्यार घनघातीया कर्म जिमकेवल श्री पामे । ते केवल श्री भोगवी ने अंते चवदमे गुणठाणे योग ने रुंधी सलेसी करणे करी शुकल ध्यान नो चोथो पायो तेजस कारन बेदी क्रिया रहीत थाइ सिध रासी मे भलजे ॥ दसर्वकालिक ९।४।७ हिंदी - सिद्धों के सुख कैसे मिलता है वह कहते हैं । इस संसार में षट्काय ( पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय) के जीवों की हिंसा पहले छोड़ । आदि गुणों को लूटने के लिए राग और द्वेष ये दो चोर खड़े हैं । बांधकर, निःसत्त्वकर, जिससे कर्म रूपी वृक्ष की उत्पत्ति वापस न हो । ये कर्म के बीज हैं इनको दूर कर । चार घनघातिक कर्मों को नष्ट कर जिससे केवल ज्ञान की प्राप्ति हो । केवली पद भोगकर अंत में चौदहवें गुणस्थान में योग निरोध कर, शैलेशी अवस्था प्राप्त कर शुक्ल ध्यान के चौथे चरण में आरोहण कर, तैजस कार्मण शरीर छोड़ क्रिया रहित हो सिद्ध राशि में मिलेगा । राग और द्वेष प्रतिपाद्य - रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति कम्मं च जाई मरणंस्स मूलं दुक्खं च जाई मरणं वयंति । Jain Education International (उत्तराध्यय ३२|७) राग और द्व ेष कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्ममरण का मूल है । जन्ममरण को दुख कहा गया है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घनघातिक कर्म हैं । मोह कर्म के क्षय होने से शेष तीन घनघातिक कर्म भी क्षय हो जाते हैं । बारहवें गुणस्थान में मोह क्षय होता है फिर उसके बाद केवलज्ञान प्राप्त तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में तीन कर्म टूटते हैं । ३१४ तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only तेजसकाय वायुकाय, आत्मा के ज्ञान उनको पकड़कर, www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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