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________________ कहा गया है। निर्वाण के स्वभाव को स्पष्ट करते हुए जैन दर्शन कहता है कि यह वह अवस्था है जिसमें न दुःख है, न सुख है, न पीड़ा है न बाधा है, न मरण है और न जन्म है । जिस तरह सभी प्राणियों का अधिष्ठान जगत् है, उसी तरह मोक्ष का आधार शान्ति है ।" जैन-दर्शन मोक्ष को 'शान्ति' और संसार को 'अशांति' मानता है। व्यक्ति को शांति लाभ तभी संभव है जब वह संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है । मृत्यु शांति नहीं है क्योंकि वह तो पुनर्जन्म की भूमिका है। वस्तुतः मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। जिसने इस सत्य को भली भांति समझ लिया है वही शांति और मृत्यु के बीच भेद को ठीक-ठीक देख पाता है।' जैन दर्शन का सर्वोच्च मूल्य निर्विवाद रूप से अहिंसा है। आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो लोग बंधन-मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं, ऐसे मेधावी पुरुष अहिंसा के मर्म को अनुत्घात को, अर्थात्, किसी को भी हानि न पहुंचाने के महत्त्व को-अच्छी तरह समझते हैं । जो अहिंसक नहीं है उसके लिए मुक्ति भी संभव नहीं है । यही कारण है कि वीर पुरुष, जिसने अपनी सभी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पा ली है, हिंसा में लिप्त नहीं होता। हिसा में निहित आतंक और अहित शांति का स्पष्ट ही विलोम है । जहां जहां आतंक है, उपद्रव है-अशांति है। शांति का अर्थ उपद्रवों से मुक्ति है। शांति निरुपद्रवी' है। उपद्रव कई प्रकार के हो सकते हैं । कुछ उपद्रव प्राकृतिक होते हैं, कुछ अतिप्राकृतिक और कुछ वैयक्तिक-सामाजिक होते हैं । प्राकृतिक उपद्रवों में अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि जैसे उपद्रव आते हैं। चूहों द्वारा, पतिंगों द्वारा और अन्यान्य हिंसक पशुओं द्वारा उत्पन्न उपद्रव भी प्राकृतिक उपद्रवों की कोटि में ही रखे जा सकते हैं। महामारी (रोगों) से उत्पन्न उपद्रव भी प्राकृतिक ही कहे जायेंगे। अति प्राकृतिक उपद्रवों में राक्षसी उपद्रव आदि शामिल हैं। इसी प्रकार शत्रुओं द्वारा आक्रमण आदि सामाजिक-राजनैतिक उपद्रव कहे जा सकते हैं । जैन धर्म में इन सभी प्रकार के उपद्रवों के निवारण हेतु शांति-स्तुति की गई है ।' विषयों से मन को रोकना वस्तुतः संयम है। जैन दर्शन के अनुसार हमारी सारी कठिनाइयों के मूल में व्यक्ति का विषयों के प्रति 'ममत्व' है। इसे 'मूर्छा' भी कहा गया है । मनुष्य के लिए अपनी आत्मिक शान्ति हेतु यह आवश्यक है कि वह किसी भी विषय के प्रति ममत्व न रखे । विषयों को 'स्व' न मानकर 'पर' ही समझे। यही संयम है । मनुष्य को शान्ति के लिए स्वयं 'पर' पर विजय प्राप्त करना चाहिए। मैं और मेरे के भाव से ऊपर उठना चाहिए । अपने पर विजय प्राप्त करना बेशक कठिन है। लेकिन एक आत्मविजेता ही अंततः इस लोक और परलोक में सुखी होता, है।" उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप द्वारा अपने पर विजय प्राप्त करूं । बंधन और हिंसा द्वारा दूसरों के द्वारा मैं दमित किया जाऊं, यह ठीक नहीं है।" जैन दर्शन इसीलिए एक ओर निवृत्ति तो दूसरी ओर प्रवृत्ति के लिए उपदेश देता है-- असंयम से निवृत्ति ओर संयम में प्रवत्ति ।१२ जब तक मन के मूल में ममत्व का जल बना रहता है, आशा की बेल सदैव हरी रहती है ।" आशा से यहां तात्पर्य किसी भी तुलसी प्रज्ञा २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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