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मा ATURESS
पाणु ज्जोवो जोवो जैन विद्या संस्थान श्री महावीर जी
जैनविद्या
महावीर जयन्ती 2586
कनकामर विशेषांक
१वासीहारी वासहवेदणापरिहरियकामुकोषाणासनिणिमियलोयापिकनिदिन याउपरमाणाणिकलरहियानिमालाहसमाराधना गियरुडलहेवियुमोणिवशोडिदि कमणिवेधशासबसिसिवहरवणालण्यामरखपवरवयलहरायणादिकदियवरवं सुपपणावारिसिद्धिविमलरणावरीश्यडयाईदियेवरेणासुपसिद्धामकणयाम रेणो दहमालएबहोसीमणाव्याश्याजणमणतोसरणाश्रासयरिणयरिपत्रएणाजिण वरणासराम्हनत्रएणाअडताताहिमचरिउपाधरपयडिजवियणविराम जामम अविद्यालनगर्कियामाविलुण्याडविबुद्धतेभियरकजकरण प्रमाणाहा अप्याण
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जैनविद्या संस्थान
( INSTITUTE OF JAINOLOGY ) दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी
राजस्थान
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मुखपृष्ठ - चित्रपरिचय
मुखपृष्ठ पर संस्थान के पाण्डुलिपि विभाग की जिस प्रति का चित्र छपा है उसका संक्षिप्त परिचय एवं मुद्रित पत्र का मूल पाठ निम्न प्रकार है—
वेष्टन सं. 151 | ग्रंथनाम - करकण्डचरिउ । पत्र सं. 67 । लेखनकाल- सं. 1563 । भाषा-अपभ्रंश । ग्रन्थकार-मुनि कणकामर । विशेष— प्रथम एवं अंतिम पत्र नहीं हैं । वासीइ चंदणाई । परिहरियइ कामुक्कोयणाइ । णासग्गि णिवेसिय लोयणाइ ॥ णिरुजुंजिवि अप्पर परमणाणि । कलरहियइ णिम्मलणहसमाणि ।।
घत्ता
1
1
- णियरूवु लहेविणु सो णिवइ, केडिवि कंमणिबंधणइ । सव्वत्थसिद्धि संपत्तुखणे, कणयामरमुणिवरवय लहइ ।। २७ ।। चिरुदियवरवं सुप्पण्णएण चंद्दारिसिगोत्तिं विमलएण । सुपसिद्धणाम कणयामरेण ॥ उप्पाइय जणमणतोसएण जिणचरणसरोरूह भत्तएण ॥ । घर पयडिउ भवियण विणउ णेहु | सोधेविणु पयडहु विविहु तंपि ॥ 1 अप्पाणउ पयडिउ सज्जणाह । महुदीणहो ते सयलु वि खमंत्तु ||
I
वराइयई हुयई दियंवरेण I बहुमंगल एवहो सीसएण आसयरिणयरि संपत्तएण अछंतइ तहि मइ चरिउ एहु मइ सत्थविहीणइ भणिउ किं पि परकज्जुकरणउज्जुप्रमणाह करजोडिवि मग्गइ एउ कहंतु ।
।
घत्ता - जो पढइ सुणइ मणि चित्तवंइ, जणवंए पयडइ एउ चरिउ । सो नरु भुवणयल हो मंडणउ, लहइ सुकित्तणु गुणभरिउ ॥ २८ ॥ जो णवजोव्वणि दिवसहि चडियर्ड, अमरविमाणहो णं सुरु पडियउ | कणयवण्णु ग्रइ मणहरगत्तउ, जसु विजवालु णिरारिउत्तउ ॥ धम्मगततरु सिंचाइ प्रणुदिणु, जो विजवालही णं मुहृदप्पणु । जो अरि णिहणइ दुस्सह लीलई, जसु मणुरंजिइ कुजरकीलए । बंधवइट्ठमित्तजणरोहणु, विभुववालहो जो मणमोह | दाणा जो दुहभंजणु, कण्णणरिदहो ग्रासरंजणु ॥ जो वोलंतउ णिवसह खोहइ, जो ववहारइ नरवइ मोहइ । जो गुरुसंगरे अइसय धीरउ, जो जणिपयडुण कारयहीरउ ॥ जो चामीयरकंकणवरिसणु, जो वंदीयण सहल करिसणु । जो जिणपायसरोरुहमहुयरु, जो सव्वंगु वि णयणह सुहयरु ॥ जो कामिणि वि मम्मि ण मुच्चइ, जो जणि सीलतंरगिणि चुच्चइ । कित्ति भवंतिय कह व ण थक्कइ, जसु गुणलितिण सरसइ थक्कइ ।। तहो ठायहो तहि रल्हे राहुल, मुणिकणयमारपय उब्वोल |
धत्ता — तहु अणुराएं यउ चरिउ, मइंजणवए पयडिउं मणहरजं । ते बंधवपुत्तकलत्तमहु, चिरु णंदउ जा रविससहरउ ||२६||
इय करकंडमहारायचरिए मुणिकणयामरविरइए भव्वयणकण्णावयंसे पंचकल्लाणय कप्पतरुफलसंपत्ते करकण्ड सव्वत्थसिद्धिलाभोनाम दहमो संधी, परिछेउ सम्मत्तो ॥ छ ॥ १० ॥ छ ॥ श्रेयकारी || शुभं भवतु ।। लेखक - पाठकयोस्तु || छ । संवत् १५६३ वर्षे माघ वदि १३ तेरसि तिथै बुधवासरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भट्टार........।
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जैनविद्या
जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी द्वारा प्रकाशित अर्द्धवार्षिक
शोध-पत्रिका
मार्च-1988
सम्पादक
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन
सहायक सम्पादक
पं. भंवरलाल पोल्याका
सुश्री प्रीति जैन
प्रबन्ध सम्पादक श्री नरेशकुमार सेठी
मंत्री
प्रबन्धकारिणी कमेटी दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
सम्पादक मण्डल
श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका डॉ. कमलचन्द सोगारणी श्री नवीनकुमार बज डॉ. दरबारीलाल कोठिया
श्री नरेशकुमार सेठी डॉ. गोपीचन्द पाटनी श्री प्रेमचन्द जैन प्रो. प्रवीणचन्द्र जैन
प्रकाशक
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी
मुद्रक : पॉपुलर प्रिण्टर्स, त्रिपोलिया बाजार, जयपुर।
वार्षिक मूल्य देश में : तीस रुपया मात्र विदेशों में : पन्द्रह डॉलर
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महावीर पुरस्कार
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी का सन् 1987 का रु. 5001/- का महावीर पुरस्कार निर्णयाधीन है।
वर्ष 1988 के पुरस्कार के लिए प्राचार्य कुन्दकुन्द से सम्बन्धित रचनाओं की चार प्रतियां 31.10.88 तक श्रामन्त्रित की जाती हैं जो 1984 के पश्चात् प्रकाशित हुई हों । पुरस्कार के लिए अप्रकाशित कृतियां भी प्रस्तुत की जा सकती हैं । अप्रकाशित कृतियों की दो-दो प्रतियां स्पष्ट टंकण की हुई तथा जिल्द बंधी होनी चाहिये । सुवाच्य हस्तलिखित प्रतियां भी इस कार्य के लिए स्वीकृत हो सकती हैं ।
नियमावली तथा श्रावेदन का प्रारूप प्राप्त करने के लिए दो रुपये का पोस्टल श्रार्डर मन्त्री, दिगम्बर जैन प्रतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, जयपुर के नाम नीचे दिये गये पते पर आना चाहिये
संयोजक
जैनविद्या संस्थान समिति,
महावीर भवन, सवाई मानसिंह हाइवे,
जयपुर-302003
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विषय
प्रास्ताविक
प्रकाशकीय
आरम्भिक
विषय-सूची
मुनि कनकामर : व्यक्तित्व और कृतित्व
अनित्य भावना
करकण्डचरिउ की कथा में लोकतात्त्विक जड़ाव -जुड़ाव
अशरण भावना
करकण्डचरिउ का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन
करकंडुचरित विषयक जैन साहित्य
करकण्डचरिउ में प्रतिपादित इतिहास व संस्कृति
करकण्डचरिउ और पद्मावत का शिल्प-विधान
एकत्व भावना
करकंडचरिउ की अध्यात्म चेतना
संवर भावना
हेमचन्द्र - अपभ्रंश-व्याकरण
सूत्र - विवेचन
इस अंक के सहयोगी रचनाकार
लेखक
डॉ. अलका प्रचण्डिया
कवि कनकामर
डॉ. (प्रो.) छोटेलाल शर्मा
कवि कनकामर
डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया
डॉ. कपूरचन्द जैन डॉ. ज्योति जैन
डॉ. भागचंद्र भास्कर
डॉ. पुष्पलता जैन
कवि कनकामर
डॉ. सूर्यनारायण द्विवेदी
कवि कनकामर
डॉ. कमलचंद सोगारपी
पू. सं.
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प्रास्ताविक
जनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी की शोध-पत्रिका 'जनविद्या' का यह आठवां अंक 'कनकामर विशेषांक' अपभ्रंश भाषा के पाठकों व अध्ययनकर्ताओं को समर्पित है । मुनिश्री कनकामर एक निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु थे । कई भाषाओं के अलावा वे अपभ्रंश भाषा के भी विद्वान् एवं कवि थे । इन्होंने अपभ्रंश भाषा में एक खण्डकाव्य 'करकंडचरिउ' (करकण्डुचरित्र) की रचना वि. सं. 1050 के लगभग की है । करकण्डुकथा जैन साहित्य में तो प्रसिद्ध है ही, इसका वर्णन बौद्ध साहित्य में भी प्राप्त होता है परन्तु इन दोनों कथानकों में कई बिन्दुओं पर काफी अन्तर है । करकण्डुकथा इतनी प्रसिद्ध हुई कि मुनि कनकामर ने तो विक्रम की 11वीं शताब्दी में इस पर 'करकंडचरिउ' काव्य की रचना की ही, इसकी वर्तमान में उपलब्ध अधिकांश हस्तलिखित प्रतियां 16वीं-17वीं शताब्दी में लिखी गईं जो अपभ्रंश के विकास का उत्तर-मध्यकाल माना जाता है । ग्रन्थ की करीब 14-15 हस्तलिखित प्रतियां मुख्यतः अामेर शास्त्र भण्डार जयपुर (वर्तमान में जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी शास्त्र भण्डार), दिगम्बर जैन नया मन्दिर दिल्ली, सरस्वती भवन, नागौर, सरस्वती भवन, ब्यावर, दिगम्बर जैन तेरहपंथी बड़ा मन्दिर, जयपुर में उपलब्ध हैं।
__मुनिश्री कनकामर के स्वयं के कथनानुसार ज्ञात होता है कि वे शास्त्ररूपी जल के समुद्र प्राचार्य सिद्धसेन, प्राचार्य समन्तभद्र, प्राचार्य अकलंकदेव, जयदेव, विशालचित्त स्वयंभू, तथा वागेश्वरीगृह श्री पुष्पदंत आदि के अत्यन्त प्रशंसक थे एवं उनके तत्काल गुरु पं. मंगलदेव थे। इन व्यक्तियों की भक्ति एवं स्मरण मात्र से ही जो कुछ उन्हें प्राप्त हुआ उसी के फलस्वरूप वे इस ग्रन्थ करकंडचरिउ की रचना कर सके, यद्यपि उनके कथनानुसार वे न तो व्याकरण जानते थे और न छन्दशास्त्र । वास्तव में इस प्रकार मुनिजी ने अपने गुरुओं के प्रति अपनी विनयांजलि अर्पित की है । वे ब्राह्मण वंश के चन्द्रऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे और वैराग्य धारणकर दिगम्बर मुनि बन गये थे। उनका नाम मुनि कनकामर प्रसिद्ध हो गया था। जन्मस्थान, बाल्यावस्था व गृहस्थावस्था का उनका नाम व जन्मकाल अज्ञात ही है । मुनि अवस्था में घूमते-घूमते वे एक 'प्रासाइउ' नाम की नगरी में पहुंचे। वहाँ एक धर्मप्रेमी सज्जन के द्वारा प्रोत्साहित किये जाने पर मुनिजी ने इस ग्रन्थ की रचना की। ये सज्जन बड़े योग्य, व्यवहार
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(ii)
जनविद्या
कुशल थे । वे तत्कालीन नरेश विजयपाल के द्वारा भी सम्मानित किये जाते थे । उनके तीन पुत्र आहुल, रल्हो, व राहुल थे, ये सभी मुनिजी के भक्त थे । खेद का विषय है कि मुनिजी ने अपने इस भक्त के नाम के बारे में अपने ग्रन्थ में कहीं भी संकेत नहीं दिया है, जिस नगरी 'पासाइउ' में रहकर ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ की रचना की है, उसके बारे में भी निश्चित सूचना नहीं है। इस नाम की कम से कम 3 नगरियां तो अवश्य मिलती हैं। इनके बारे में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा सन् 1964 में प्रकाशित 'करकंडचरिउ' की प्रस्तावना में विद्वान् सम्पादक डा. हीरालालजी जैन ने जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है उसके अनुसार यह 'प्रासाइउ' नगरी वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के समीप की 'पाशापुरी' प्रतीत होती है जो इस समय काफी भग्नावशेष अवस्था में है एवं जहाँ एक भग्न जैन मन्दिर में भगवान् शान्तिनाथ की 16 फीट ऊंची खड्गासन मूर्ति है । शिलालेखों व अन्य ग्रन्थकारों की रचनाओं से यह भी प्रतीत होता है कि करकंडचरिउ सम्भवतः सन् 1040 व 1050 के बीच में रचा गयो है । इसी काल में बुन्देलखण्ड में तीन नरेशों विजयपाल, भूपाल व कर्ण का उल्लेख प्राप्त होता है।
इस 'करकंडचरिउ' में प्रतापी महाराजा करकण्डु का चरित्र-वर्णन दश सन्धियों (अध्यायों) में किया गया है । महाराज करकण्ड के समय का तो निश्चित रूप से पता नहीं है परन्तु कुछ विद्वानों का मत है कि उनकी मां पद्मावती राजा चेतक की पुत्री थी । इस बारे में भी मतभेद है । 'करकंडचरिउ' के आधार पर अंगदेश की चम्पापुरी के राजा धाड़ीवाहन कुसुमपुर में एक अपरिचित, सुन्दर युवती को देखकर उस पर मोहित हो गये । तत्पश्चात् उस युवती के संरक्षक एक माली से ज्ञात हा कि वह वास्तव में कौशाम्बी के राजा वसुपाल की पुत्री पद्मावती थी जिसे अपशकुन के कारण जमुना नदी में बहा दिया गया था । घाड़ीवाहन ने उससे विवाह कर लिया। कुछ समय पश्चात् जब वह गर्भवती हुई तो दोहले के कारण वह ' राजा के साथ एक हाथी पर वनभ्रमण को गई जहाँ वह दुष्ट हाथी रानी पद्मावती को लेकर जंगल में भाग निकला। राजा बच गया एवं शोक में व्याकुल अपनी राजधानी को लौटा । किसी प्रकार रानी बहुत दूर जाकर सरोवर में कूद कर बच तो गई परन्तु जंगल में भटक गई। श्मशान में उसने पुत्र को जन्म दिया जहाँ से उसे एक मातंग (चाण्डाल) उठा ले गया। वास्तव में यह चाण्डाल एक विद्याधर था जो किसी श्राप के कारण मातंग का जीवन व्यतीत कर रहा था। यह पुत्र अपने कर में कण्डु अर्थात् खुजली के दाग के कारण करकण्डु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में पुण्योदय से वह दन्तीपुर का राजा बना एवं श्राप के मिटने के कारण वह मातंग भी अपने वास्तविक रूप में विद्याधर बन गया। राज्यविस्तार की इच्छा से करकण्डु ने कई देशों पर आक्रमण कर उन्हें अपने अधीन किया। जब उसने चम्पापुर पर भी आक्रमण किया तब उसकी माँ पद्मावती ने आकर पिता-पुत्र में मेल कराया। राजा धाड़ीवाहन ने भी चम्पापुर का राज्य अपने पुत्र करकण्डु को देकर वैराग्य धारण किया। करकण्डु ने गिरिनगर की राजकुमारी मदनावली, सिंहलद्वीप की राजपुत्री रतिवेगा आदि कई युवतियों से विवाह किया। करकण्डु एवं उसकी रानियां मदनावली व रतिवेगा पर विपत्तियां भी आई परन्तु पूर्व जन्म में उपार्जित पुण्य के कारण विपत्तियों से छुटकारा भी प्राप्त होता रहा।
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जनविद्या
(iii)
पूर्व जन्म में करकण्डु धनदत्त नाम का एक ग्वाला था। उसने एक जैन मुनि से कुछ व्रत लेकर उन्हें निष्ठापूर्वक पाला । एक बार उसने एक सरोवर से कमल का एक बड़ा फूल तोड़ा एवं एक देव व अन्य व्यक्तियों के कहने पर उसने उस फूल से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा की । पूजन के समय उसके हाथ गन्दे थे । जिनेन्द्र-पूजा के फलस्वरूप वह इस भव में एक प्रतापी राजा तो बना परन्तु हाथ गन्दे होने के कारण उसके हाथ में खुजली (कण्डु) के दाग बन गये और इसी कारण वह करकण्डु के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालान्तर में एक मुनिराज शीलगुप्त के दर्शन करने हेतु जाते समय एक घटना के कारण उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और उसने बारह भावनाओं का चिन्तन किया, तत्पश्चात् उसने मुनिराज से धर्मश्रवण किया, गृह, राज्य आदि त्यागकर निर्ग्रन्थ मुनि की दीक्षा ली एवं घोर तपस्या कर परिणामस्वरूप सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया ।
मुनिश्री कनकामर ने अपने ग्रन्थ 'करकंडचरिउ' में बारह भावनाओं एवं सम्यग्दर्शन के स्वरूप का जो सुन्दर सजीव चित्रण किया है वैसा सुन्दर चित्रण जैन साहित्य में विशेषकर अपभ्रंश भाषा में, अन्यत्र कम ही मिलता है । 'करकंडचरिउ' एक उच्चकोटि का काव्य है जिसमें महाकाव्य के सभी गुण सन्निहित हैं। शृंगार रस व वीर रस की कथा शान्त रस में परिवर्तित होकर अन्त में आध्यात्मिक कथा का रूप ले लेती है। वास्तव में इस प्रकार का परिवर्तन जैन कथाओं का मुख्य आधार है जिसका दिग्दर्शन हमें खुजराहो, हलेविड आदि के जैन मन्दिरों पर उपलब्ध वास्तुकला में भी होता है जहाँ सौन्दर्य में जलन नहीं, शीतलता है, विलासिता नहीं, पावनता है जिसे देखकर, पढ़कर वैराग्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। किसी भी विषय की सही जानकारी जीवन को गलत नहीं, सही मोड़ देती है । इस प्रकार के अध्ययन व मनन से व्यक्ति मानव की मूल एवं प्रमुख मनोवृत्तियों को सही रूप में समझ सकता है एवं अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है ।
डॉ. गोपीचन्द पाटनी
सम्पादक
U
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प्रकाशकीय
समस्त चराचर जगत् में मानव ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसे प्रकृति ने चिन्तनमनन करने की शक्ति प्रदान की है। इसी वैशिष्ट्य के कारण वह मानव नाम से अभिहित किया जाता है । इसकी दूसरी विशेषता है अक्षरात्मक वाणी जिसके कारण वह अपने चिन्तनमनन, सोच-विचार को दूसरों तक सम्प्रेषित करने में समर्थ है। तीसरी विशिष्टता है अपने विचारों को लेखिनीबद्ध कर उसे स्थायित्व प्रदान करने की। किसी भी धर्म, दर्शन अथवा साहित्य के उद्गमस्थल होते हैं मन, मस्तिष्क और नैसर्गिक प्रतिभा ।
धर्म और दर्शन मानव की दीर्घ साधना और तपस्या के फल हैं । जैनधर्म और संस्कृति का मूलाधार है अहिंसा और समता । वह विरोधी के विचारों का दमन नहीं करती, समानरूप से उनका आदर करती है, उनके साथ समन्वय स्थापित करती है । वह वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखती है, परखती है । वस्तु में विभिन्न परस्पर विरोधी युग्मों की स्वीकृति ही अनेकान्त है और वाणी द्वारा उनमें से किसी एक धर्मविशेष को मुख्य एवं अन्य धर्मों को गौण कर कथन करना ही अपेक्षावाद अथवा स्याद्वाद है । जैनधर्म श्रावश्यकता से अधिक संग्रह करने में नहीं बांट कर खाने में विश्वास करता है ।
ऐसे धर्म और दर्शन से ओतप्रोत निश्छल हृदय से जो वाणी फूटती है वह लोक कल्याणकारी, सबका उदय चाहनेवाली होती है । प्राणिमात्र उसके लिए समान होते हैं। किसी प्राणिविशेष, वर्गविशेष, क्षेत्रविशेष, जातिविशेष आदि के साथ उसका कोई पक्षपात नहीं होता ।
जैनसन्त ऐसे ही धर्म और संस्कृति के उपासक होते हैं अतः स्वभावतः उनकी रचनाएँ जैन वातावरण, जैनमान्यताओं से परिपूर्ण होती हैं । किन्तु जैनधर्म और संस्कृति में ऊंच-नीच आदि को कोई स्थान न होते हुए भी वे अपनी रचनाओं को संकुचित क्षेत्र से ऊपर नहीं उठा सके । इसी कारण जैनेतर समाज में इसका प्रचार-प्रसार बहुत ही कम रहा । वैसे भी दर्शन का विषय शुष्क तथा बोझिल होता है और जैन रचनाएँ प्राय: इसी विषय से सम्बद्ध हैं अतः यह भी एक और कारण उनके कम प्रचार-प्रसार का रहा है ।
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(v)
पिछले 60-70 वर्ष में डॉ. हरमनजैकोबी, पिशेल, डॉ. दलाल, मुनि जिनविजयजी, डॉ. परशुराम वैद्य, प्रो. हीरालाल जैन, डॉ. उपाध्ये, पं. लालचन्द गांधी, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. अल्सफोर्ड, राहुलसांकृत्यायन, नाथूराम प्रेमी आदि विद्वानों द्वारा जो जैन साहित्य - अन्वेषित हुआ, नवीन ढंग से सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ उसके फलस्वरूप साहित्य क्षेत्र में जैन प्रतिभा के प्रति विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है और अब जायसी, तुलसी आदि पर अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवियों का प्रभाव स्वीकार किया जाने लगा है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन इनमें प्रमुख हैं। यह भी अंगीकार कर लिया गया है कि अपभ्रंश भाषा का अध्ययन-मनन किये बिना हिन्दी के विकास को समझा नहीं जा सकता और अपभ्रंश की रचना का अधिकांश जैन विद्वानों द्वारा रचित है ।
जैनविद्या
जैन साहित्य के इसी महत्त्व को देखते हुए जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी द्वारा एक षाण्मासिक पत्रिका 'जैनविद्या' का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया है । अपभ्रंश भाषा की उपयोगिता एवं आधुनिक ढंग से उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता को अनुभव कर सर्वप्रथम उसने इस क्षेत्र को चुना है जिसके अनुसार अपभ्रंश भाषा के मूर्द्धन्य छह रचनाकारों पर अब तक उसके सात अंक प्रकाशित हो चुके हैं । यह आठवां अंक अपभ्रंश भाषा के ही 11वीं शताब्दी के कवि मुनि कनकाम पर पाठकों को समर्पित है जिसमें उनके व्यक्तित्व तथा उनकी कृति 'करकण्डचरिउ' का विभिन्न दृष्टिकोणों से अधिकृत विद्वानों, मनीषियों एवं चिन्तकों द्वारा अध्ययन प्रस्तुत किया गया है ।
'करकण्डचरिउ' के रचनाकार एक जैन सन्त हैं, अतः उनकी रचना का मूल उद्देश्य पाठक को आत्मा पर पड़े हुए विभिन्न कर्मपुद्गलों के आवरण को हटा कर उसके सहज स्वरूप का भान कराना है । यह अवस्था तब तक प्राप्त नहीं की जा सकती जब तक वह रागद्वेषरहित निराकुल अवस्था को प्राप्त नहीं कर ले । इसीलिए रचना पाठक को कई रसों की अनुभूति कराते हुए शान्त रस में परिसमाप्त होती है और कथा का नायक करकण्डु जीवन में कई उतार-चढ़ावों का अनुभव करके अन्त में सर्वार्थ की सिद्धि कर लेता है ।
साहित्य में तत्कालीन समाज का प्रतिबिंब झलकता है इस इप्टि से यदि रचना का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि उस समय भी लोग अपशकुन से भयभीत हो जाते थे और अपनी सन्तान तक का त्याग कर देते थे । करकण्डु की माता को इसी कारण जन्मते ही उसके माता-पिता ने यमुना नदी में बहा दिया था । स्त्रियां अपनी सौत से डाह करती थीं इसी कारण वनमाली की पत्नी ने पद्मावती को घर से निकलवा दिया था । बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण हो रहा था, उनका खर्चा चलाने के लिए गृहस्थों को व्ययसाध्य उद्यापन सहित व्रत-उपवासों का अतिरंजित फल बता कर उन्हें जैन मन्दिरों में विपुल दान देने की प्रेरणा की गई है श्रादि ।
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(vi)
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जैनविद्या
आशा है गत अंकों की भांति ही हमारा यह प्रकाशन भी पाठकों को रुचिकर होगा। इसमें परिवर्तन, परिवर्द्धन, एवं रही हुई त्रुटियों के परिमार्जन हेतु पाठकों के सुझावों का स्वागत है।
इस अंक के प्रकाशन में जिन रचनाकारों ने अपनी रचनाएं भेजकर जो सहयोग दिया है उसके लिए हम उनके आभारी हैं । आशा है भविष्य में भी इसी प्रकार हमें उनका सहयोग प्राप्त होता रहेगा। सम्पादक, सह-सम्पादक एवं मुद्रक पत्रिका के सम्पादन एवं मुद्रण में प्रदत्त योग के लिए धन्यवाद के पात्र हैं।
नरेशकुमार सेठी प्रबन्ध सम्पादक
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आरम्भिक
पत्रिका के इस अंक से पूर्व प्रकाशित सात विशेषांकों के द्वारा अपभ्रंश भाषा के स्वयम्भू, पुष्पदन्त आदि ख्यातनामा कवियों की कृतियों पर कई दृष्टियों से प्रकाश डाला गया है । प्रस्तुत विशेषांक करकण्डचरिउ के रचनाकार मुनि श्री कनकामर से सम्बद्ध है ।
1
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, कन्नड़, राजस्थानी प्रादि अनेक भाषाओं की समृद्धि के संवर्धन में जैन रचनाकारों का जो योग रहा है वह कई दृष्टियों से व्यापक महत्त्व का है । उन्होंने हजारों की संख्या में ग्रन्थ रचना की । काव्य, धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, तन्त्र-मन्त्र, नीति प्रादि प्रायः सभी विषयों पर उनकी कृतियाँ उपलब्ध होती हैं । उनकी रचनात्रों का जितना अंश प्रकाश में आया है उससे ही पता चलता है कि उनकी यह साहित्य. सेवा कितनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है । ग्रन्थ भण्डारों का जो सर्वेक्षण होता रहा है उससे विदित होता है कि अभी सहस्रों रचनाएं शोध-खोज और प्रकाशन की प्रतीक्षा में है । इनमें से अनेक पाण्डुलिपियाँ तो इतनी जर्जर अवस्था में हैं कि यदि शीघ्र ही उनकी सुधि नहीं ली गई तो वे नष्ट हो जायंगी । इस ओर समाज का ध्यान अधिक जागरूकता से जाना चाहिये । ऐसे सामाजिक प्रयत्न होने चाहियें जो योजनाबद्ध रीति से इनके प्रकाशन और प्रसारण में सहायक हों ।
जैन साहित्यकारों की अपनी एक विशेषता रही है । उन्होंने साहित्य की प्रतिष्ठा, धर्म, नीति और अध्यात्म के आधार पर की है । उनके द्वारा रचित साहित्य प्रज्ञानान्धकार के गर्तों में इधर-उधर भ्रष्ट मानव को प्रभ्युदय और निःश्रेयस के मार्ग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक है ।
आठवीं से 13वीं शती तक का काल अपभ्रंश भाषा में काव्य-रचना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। इसी काल में स्वयम्भू, पुष्पदन्त, घवल, घनपाल, नयनन्दी, घाइल आदि अनेक कवियों ने अपनी काव्य-कौमुदी से साहित्य- गगन को आलोकित किया है । करकंडचरिउ के रचनाकार मुनि कनकामर भी उनमें से एक हैं। ईसा की ग्यारहवीं शती का उत्तरार्धं उनका स्थितिकाल है । उनका जन्म बुन्देलखण्ड की प्रसाइय नामक नगरी में
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हुआ । वे जन्म से चन्द्रर्षि गोत्रीय ब्राह्मण थे । जैनधर्म की उत्कृष्टता से प्रभावित होकर उन्होंने उसे स्वीकार किया और साधनामार्ग में चल पड़े। उन्होंने आगे चलकर मुनि-दीक्षा ली। करकण्डचरिउ के माध्यम से उन्होंने धर्म और दर्शन की विशेषताओं को लोगों तक पहुंचाया, वे समत्व के साधक थे, सत्य के उपासक थे । वे जनसामान्य को मानवीय दृष्टि से देखते थे । किसी धर्म या भावना का खण्डन उनकी रचना में नहीं मिलता । साम्प्रदायिक कटुता से वे सदा दूर ही रहे।
करकण्डचरिउ के अध्ययन से तत्कालीन समाज के स्वरूप का परिचय मिलता है । उन दिनों समाज के प्रायः सभी उदात्त क्षेत्रों में शिथिलता पाने लगी थी। इसी का यह प्रभाव है कि महल-मसान, काच-कंचन, शत्रु-मित्र आदि सब को समदृष्टि से देखनेवाले जैन मुनि सुव्रत करकण्डचरिउ में बलदेव विद्याधर पर क्रोधित हो उसे मातंग बनने और उसकी विद्याएँ नष्ट हो जाने का शाप देते दिखाई पड़ते हैं । कुछ अन्य विवरण भी जैनागम के अनुकूल नहीं हैं।
इस चरित में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन अध्यात्म से ओत-प्रोत है और कर्मकाण्ड को यदि निकाल दें तो यत्याचार और श्रावकाचार का वर्णन भी मानव को आध्यात्मिक अभ्युत्थान की । ओर प्रेरित करनेवाला है।
मुनि कनकामर की एक धार्मिक ग्रन्थकार एवं साहित्यिक रचनाकार के रूप में अन्य क्या विशेषताएँ हैं यह पाठकों को इस अंक के अध्ययन से विदित होगा।
- विभिन्न विषयों के विद्वानों द्वारा इस अंक की रचनाएँ लिखी गई हैं । वे मुनि कनकामर के 'व्यक्तित्व और कृतित्व' पर बहुमुखी प्रकाश डालती हैं । गत अंक में एक विशेष लेख के द्वारा प्राचार्य हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों का प्रायोगिक दृष्टि से विवेचन प्रारम्भ किया. गया था वह इस अंक में समाप्त हो रहा है । ये दोनों लेख अपभ्रंश के अध्येयताओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी होंगे । हमें आशा है कि गत सात अंकों की भांति यह पाठवां अंक भी सामान्यतः सभी पाठकों को और विशेषतः अनुसंघेतानों को पसन्द आयेगा ।
इस अंक के सम्पादन में डॉ. गोपीचन्द्र पाटनी, डॉ. कमलचन्द्र सोगाणी, पं. भंवरलाल पोल्याका और सुश्री प्रीति जैन का, प्रकाशन में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबंधकारिणी के अध्यक्ष श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका और मन्त्री श्री नरेशकुमार सेठी का तथा मुद्रण में पापुलर प्रिन्टर्स का जो योग रहा है वह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है ।
(प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन
सम्पादक
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मुनि कनकामर व्यक्तित्व और कृतित्व -डॉ० (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया 'दीति'
साहित्य का चरम मानदण्ड रस ही है जिसकी परिधि में व्यष्टि और समष्टि, सौन्दर्य और उपयोगिता, शाश्वत और सापेक्षिकता का अन्तर मिट जाता है । साहित्य की सार्थकता तभी है जब साहित्यकार अपने मानस की व्यापकता तथा गहराई से मानव जीवन की सम्पूर्णता का संचय कर उसे निज की अनुभूति एवं भावों के पुटपाक में परिपाक कर सुन्दर उद्घाटन करता है । भारतीय साहित्य की एक सुदीर्घ परम्परा का इतिहास अपभ्रंश साहित्य है। मुनिश्री कनकामर अपभ्रंश वाङ्मय के प्रमुख ज्योतिर्मय हस्ताक्षर हैं। मुनिश्री का व्यक्तित्व सदाचरण का शिखर है और उनका काव्यत्व धार्मिक गंध से मुखर है । वस्तुतः कविमनीषी कनकामर का व्यक्तित्व और कृतित्व ज्ञान और क्रिया का अद्भुत समन्वित समीकरण है । यहां मुनिश्री के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालना हमारा मुख्य लक्ष्य है।
जैन कवियों की नाई मुनिश्री कनकामर का स्वभाव प्रात्मपरिचय की अभिव्यक्ति करना कदापि नहीं रहा है । प्रसंगवशात् अपने विषय में विशेष कथन जीवन-बिन्दुओं का स्पर्शमात्र है तथापि कविश्री का जीवन-संदर्भित-वृत्त स्पष्ट सा है। ग्यारहवीं शती के मध्यभाग में मुनिश्री कनकामर ब्राह्मण वंश के चंडऋषि गोत्र में उत्पन्न हुए थे । यथा
श्री वञशाखाधुरिवत्रसेनान्नागेन्द्रचन्द्रादिकुलप्रसूतिः ।
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जैन विद्या
आप धार्मिक संकीर्णता से रहित उदार हृदय व्यक्ति थे, मनस्वी थे । कालान्तर में कविश्री देह-भोगों से विरक्त होकर दिगम्बर मुनि हो गए । तब से उनका नाम मुनि कनकामर प्रसिद्ध हुमा । वस्तुतः कविश्री का व्यक्तित्व साधुमय था । देशाटन करते समय कविश्री कनकामर का 'असाइय' नगरी में पहुंचना हुआ और आपने इसी नगरी में दस सन्धियों के अपने इस चरितात्मक महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' की सर्जना की।
महाकाव्य के अन्त में मुनिश्री ने अपने प्राश्रयदाता का भी कुछ परिचय दिया है । आपने लिखा है-ये सज्जन बड़े योग्य एवं व्यवहारकुशल थे। वे विजयपाल नरेश के भी स्नेहभाजन थे तथा उसके मुख के दर्पणवत् थे, उन्होंने राजा भुवपाल के मन को मोह लिया था तथा वे कर्ण नरेन्द्र के चित्त को भी आनंदित किया करते थे। उनके तीन पुत्र थे-पाहुल, रल्हो तथा राहुल । तीनों पुत्र कनकामरजी के चरणों में अनुरक्त थे (10.29, 2.13) । कविश्री ने महाकाव्य के आरम्भ में (1.2.1) सरस्वती के अतिरिक्त पंडित मंगलदेव के चरणों का स्मरण किया है। साथ ही अन्तिम प्रशस्ति (10.28.3) में स्वयं को बुध मंगलदेव का शिष्य कहा है । अतएव मुनिश्री कनकामर के गुरु का नाम मंगलदेव स्पष्ट है जो पंडित मंगल के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
मुनिश्री कनकामर ने ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है । काव्यकार ने अपने पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, प्रकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदंत का उल्लेख किया है (1.2.8-9) । पुष्पदंत ने अपना 'महापुराण' ई. सन् 965 में समाप्त किया था अतएव 'करकण्डचरिउ' की रचना इससे पूर्व नहीं हो सकती है । इस महाकाव्य की प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि. सं. 1502 की उपलब्ध है । अतः कविश्री का काल सं. 1502 के पश्चात् भी नहीं हो सकता है । डॉ. हीरालाल जैन इतिहास के आलोक में 'करकण्डचरिउ' का प्रणयनकाल सन् 1065 ई. के लगभग स्वीकारते हैं । वस्तुतः मुनिश्री कनकामर ग्यारहवीं शताब्दी के महाकवि थे और 'करकण्डचरिउ' कविश्री की एकमात्र रचना है।
चरितात्मक महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' के प्रणयन में कविश्री का अभिप्रेत जैनधर्म के सदाचारमय जीवन का दिग्दर्शन ही रहा है। उपवास, व्रत, देशाटन, रात्रिभोजननिषेध आदि प्राचार के अनेक साधारण अंगों का भी उल्लेख कविश्री ने अपने महाकाव्य में किया है। हिन्दुओं के देवताओं-बलभद्र, हरि (9.5.5), बलभद्र, यम, वरुण (9.7.8-9), बलराव, वरायण (10.25.3), हरि, हर, बम्ह, पुरंदर (10.8.9-10) का भी महाकाव्य में उल्लेख मिलता है। महाभारत के पात्र अज्जुणु-अर्जुन का उल्लेख कवि काव्य में द्रष्टव्य हैं (10.22.7)।
रोमान्टिक-चरित-प्रधान महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' का प्रणयन मुनिश्री कनकामर ने श्रुतपंचमी का फल तथा पंचकल्याणक विधि की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर किया है। इस रचना का विशेष महत्त्व इसलिए है कि इसमें कई कथाओं का संग्रह है तथा मन्दिर के शिल्प का वर्णन भी है। राजकुमार करकंडु के पाख्यान द्वारा हिंसामियों के पुनर्जन्मों में नाना प्रकार के दारुण दुःखों/भोगों का वर्णन करके जैनधर्म की महिमा का गुणगान किया
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जनविद्या
गया है । जैन परम्परानुसार करकण्डु ईसा से लगभग पाठ सौ वर्ष पूर्व हुए थे। उनका सम्मान दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में ही नहीं है वरन् बौद्धों ने भी इन्हें 'प्रत्येक बुद्ध' रूप से स्वीकार किया है । अतएव करकंडु पूर्वबुद्ध युग के ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध होते हैं । मुनिश्री कनकामर ने एक ऐतिहासिक महापुरुष को अपने चरितकाव्य का नायक बनाया है। दस सन्धियों के इस काव्य में करकण्डु की कथा के साथ नौ अवान्तर कथाएँ भी संयोजित हैं । अवान्तर कथाएँ नीति की शिक्षा देती हैं।
'करकण्डचरिउ' में काव्यकार का लक्ष्य नायक के ऐतिहासिक जीवन पर प्रकाश डालना नहीं है । उनका प्रयत्न यह है कि पौराणिक और लोककथाओं के मिश्रण से कथावस्तु को रोचक कैसे बनाया जाय ?
काव्य में वर्णित कुछ कथाएं तत्कालीन समाज में प्रचलित होंगी या फिर कवि कल्पना की देन । अनेक कथाओं का प्राभास अन्य संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । आठवीं कथा को पढ़कर तो बाणकृत 'कादम्बरी' के शुक का ध्यान हो पाता है । ये कथाएँ मूलकथा के विकास में अधिक सहायक नहीं होती। किसी भी घटना को स्पष्ट करने के लिए एक स्वतन्त्र कथा का वर्णन पंचतन्त्र का ढंग है जो इस महाकाव्य में उपलब्ध है। धार्मिक काव्यों की भांति इसमें भी अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का समावेश है । पौराणिक, काल्पनिक तथा अलौकिक घटनामों के कारण कथानक में काव्योपम सम्बन्ध का निर्वाह भी भलीभांति नहीं हो पाया है। कवि का उद्देश्य प्रादर्श की स्थापना करना रहा है। इतिवृत्तात्मकता की अपेक्षा इसमें संग्रहात्मकता अधिक है।
कथा का प्रमुख पात्र करकण्डु है जिसके चरित्र का कविश्री ने अपने समूचे काव्य में विशद रूप से वर्णन किया है। वह धीरोदात्त, गुणसम्पन्न नायक है। उसका चरित्र शक्ति, शील और सौन्दर्य से अनुप्राणित है। मातृभक्ति और विनयसम्पन्नता इस चरित्र की अतिरिक्त विशेषता है । मां पद्मावती के चरित्र का भी काव्य में विकास द्रष्टव्य है । उसमें पुत्र-वात्सल्य एवं मोक्ष की प्राकांक्षा का सुन्दर समायोजन हुआ है । अन्य पात्रों में मुनि शीलगुप्त, रानी मदनावली, रानी रतिवेगा प्रादि हैं । इनके चरित्र का प्रांशिक विकास दृष्टिगत है।
___मुनि कनकामर के 'करकण्डचरिउ' में मानव-जगत् और प्राकृतिक-जगत् दोनों का वर्णन हुआ है। मानव-हृदय के भावों का सुन्दर अनुभूतिपूर्ण चित्रण दर्शनीय है । करकण्डु के दन्तिपुर में प्रवेश करने पर सुन्दरियों के विक्षुब्ध होने की मार्मिक अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है यथा
कवि रहसई तरलिय चलिय णारि, विहरपफर संठिय का वि वारि । क वि पावइ गवणिवरणेहलुख, परिहाणु ण गलियउ गण्इ मुख । क वि कज्जलु बहलउ महरे बेइ, गयणुल्लएँ लक्लारसु करेइ । कवि णेउर करयलि करइ बाल, सिर छडिवि कडियले धरह माल । रिणयणंदण मण्णिवि क वि वराय, मज्जारु न मेल्लइ साणुराय। (3.2.)
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..... अर्थात् करकण्डु के आगमन पर कोई स्त्री आवेग से चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेम-लुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसी ने गिरते हुए वस्त्र की भी परवाह न की, कोई अधरों पर काजल भरने लगी, आंखों में लाक्षारस लगाने लगी, किसी ने नूपुर को हाथ में पहना, किसी ने सिर के स्थान पर कटि-प्रदेश पर माला डाल दी और कोई बेचारे बिल्ली के बच्चे को अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती।
इसी प्रकार मुनिराज शीलगुप्त के आगमन पर नगर की नारियों के हृदय में उत्साह और उनके दर्शन की उत्कण्ठा का चित्रण उल्लेखनीय है (9.2.3-7) । भौगोलिक प्रदेशों के वर्णन भी कविश्री ने अनेक स्थलों पर किए हैं। इन वर्णनों में मानव-जीवन का सम्बन्ध सर्वत्र परिलक्षित होता है । अंगदेश का वर्णन हो (1.3.4-10), राजा धाड़ीवाहन का वर्णन हो (1.5), श्मशान का वर्णन हो (1.17), राजप्रासाद का वर्णन हो (3.3), सिंहलद्वीप का वर्णन हो (7.5) या फिर गंगा का वर्णन (3.12, 5.10) ये सब प्रसंग काव्यमय हैं । इस प्रकार कविश्री द्वारा वस्तुयोजनान्तर्गत नगर, द्वीप प्रादि का वर्णन चित्रोपम हुआ है।
___ अपभ्रंश काव्यों की भांति 'करकण्डचरिउ' महाकाव्य वीर और शृंगार रसयुक्त है जिसका पर्यवसान शांतरस में होता है। कथानक से स्पष्ट है कि कविश्री को संयोग और वियोग दोनों प्रकार के अनेक अवसर प्राप्त हुए हैं । कविश्री ने नारी-रूप वर्णन में परम्परा का ही पाश्रय लिया है। प्रेम का रूप कवि ने सम रखा है। वियोग में नायक और नायिका दोनों दुःखी एवं अश्रु बहाते चित्रित किये हैं परन्तु नायिका के वियोग-वर्णन में जो तीव्रता है वह नायक के वियोग-वर्णन में नहीं । उदाहरण के लिए रतिवेगा करकंडु के सहसा विलुप्त हो जाने पर विलाप करने लगी। उसके विलाप से समुद्र का जल विक्षुब्ध हो उठा, नौकाएं परस्पर टकराने लगीं । हा हा का करुण शब्द सर्वत्र व्याप्त हो गया, चराचर उससे दुःखी हो गये (7.10.9-10)। कविकाव्य में उत्साह-भाव को उबुद्ध करनेवाले अनेक सुन्दर वर्णन मिलते हैं। चम्पाधिपति के युद्ध के लिए प्रस्थान उत्साह की सुन्दर अभिव्यंजना है (3.14.1.10) । युद्धगत भिन्न-भिन्न क्रियाओं और चेष्टाओं का सजीव चित्र सुन्दर शब्दयोजना के द्वारा कविश्री ने प्रस्तुत किया है यथा
रोसं वहतेण, करे घणहु किउ तेण । तहो चप्पे गुणु विष्णु, तं पेक्खि जण खिष्णु । ता गयणे गुणसेव, खोहं गया देव ।
टंकारसदेण, घोरें रउद्देण । . घरणियलु तडयडिउ, तस कुम्भु कडडिउ । (3.18.2)
निर्वेद भाव को उद्दीप्त करनेवाले अनेक प्रसंग कविकाव्य में दृष्टिगत हैं । पुत्रवियुक्ता विलाप करती हुई स्त्री को देख करकंड के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है (9.4.6-10) । मर्त्यलोक में समुद्र के समान विशाल दुःख हैं और मधु-बिंदु के समान स्वल्प भोग-सुख हैं । कविश्री ने, इन शब्दों द्वारा दुःख की विशालता, गम्भीरता, क्षारता, अनुपादेयता और सुख की मधुरता, स्वल्पता, दुर्लभता आदि भनेक भावों की व्यंजना कर दी है।
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- मुनिश्री कनकामर ने प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभाविक वर्णन किया है किन्तु चामत्कारिता और नवीनता की दृष्टि से कोई विशेष बात दिखाई नहीं देती । वस्तुतः कविश्री का हृदय प्रकृति में भलीभांति रम नहीं पाया । प्रकृति कविहृदय में स्पन्दन और स्फूर्ति का ज्वार पैदा नहीं कर सकी जैसा कि अपभ्रंश के अन्य कवियों पुष्पदंत, धनपाल, वीर आदि कवियों के काव्य में परिलक्षित है तथापि मुनिश्री का प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक है किन्तु कविश्री सरोवर को जड़ और स्पन्दनरहित नहीं देखता। शुभ्र फेन-पिंड से वह हँसता हुमा, विविध पक्षियों से नाचता हुमा, भ्रमरावलि गुंजन से गाता हुआ और पवन से विक्षुब्ध जल के कारण दौड़ता हुआ सा प्रतीत होता है (4.7.3-8)। वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविश्री प्रकृति में जीवन, जागृति और स्पन्दन स्वीकारते हैं ।10
डॉ. तगारे ने 'करकण्डचरिउ' की भाषा को दक्षिणी अपभ्रंश कहा है। मुनिश्री कनकामर की भाषा में रसानुकूल गुणों का समावेश है। युद्ध वर्णन में भाषा प्रोजगुणप्रधान है तो शृंगार वर्णन में भाषा माधुर्य गुण से अनुप्राणित है । कविश्री कनकामर ने भाषा को भावानुकूल बनाने के लिए ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है (3.8) । इसके प्रयोग से पृथ्वी, समुद्र और आकाश के विक्षोभ की सूचना मिल जाती है। शब्दाडम्बर-रहित, सरल और संयमित भाषा में जहां कवि कनकामर ने गम्भीर भावों को अभिव्यंजित किया है वहां उनकी शैली प्रभावोत्पादक हो गई है। संसार की क्षणभंगुरता और असारता का प्रतिपादन करनेवाले स्थलों में भाषा के उक्त रूप के अभिदर्शन होते हैं। शैली-उत्कर्ष हेतु प्रतिपाद्य विषय को रोचक बनाने के लिए हृदयस्पर्शी सूक्त्यात्मक वाक्यों, सुभाषितों का व्यवहार प्रावश्यक होता है । इस दिशा में मुनिश्री कनकामर की सफलता दर्शित है यथा
लोहेण विडंविउ सयलु जणु भणु किं किर चोज्जई गउ करइ । (2.9.10) अर्थात् लोभ से पराभूत सकल जग क्या. आश्चर्यजनक कार्य नहीं करता? गुरुप्राण संगु जो जणु वहेइ, हियइच्छिय संपइ सो लहेइ। (2.18.7). अर्थात् जो गुरुजनों के साथ चलता है वह अभीष्ट सम्पत्ति प्राप्त करता है ।
मुनिश्री कनकामर में थोड़े.. से शब्दों, द्वारा, सजीव सुन्दर चित्र खींचने की क्षमता विद्यमान है (6.9.8-10) । काव्य में अनेक शब्द-रूप. हिन्दी शब्दों से पर्याप्त साम्य रखते हैं यथा-.. . . . .. ..... . . .
.... ... पुक्कार .. . 'पुकार ..
12.19) वार्ता, बात
..
(2.1.13) सयाणु सयाना, सज्ञान
(2.5.8) चुक्कइ चूकना
(2.8.5)
(2.16.1) चडेवि .. . . ..:
चढ़कर .
(1.10.9) डाल.
. . शाखा, डाल .. . (1.6.5)
वात
...
कहाणी
कहानी
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जैनविद्या
आगे
अग्गइ
(1.14.4) गुड-सक्कर-लड्डु गुड़-शक्कर-लड्डू
(2.7.1) इस प्रकार मुनिश्री कनकामर की भाषा सप्राण, सशक्त और सजीव है ।
मुनिश्री कनकामर ने अपनी भाषा को अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया तथापि महाकाव्य में यत्र-तत्र अलंकारों के प्रयोग द्रष्टव्य हैं । शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग परिलक्षित है । इन अलंकारों में भी सादृश्य योजना वस्तु के स्वरूप का बोध कराने के लिए ही की गई है, भावतीव्रता के लिए नहीं। अप्रस्तुत योजना के लिए परम्परागत उपमानों के अतिरिक्त ऐसे भी उपमानों का प्रयोग कवि ने किया है जिनसे उसकी निरीक्षण शक्ति प्रतीत होती है यथा
करिकण्ण जेम थिर कहि ग थाइ, पेक्खंतह सिरि णिग्णासु जाइ । जह सूयउ करयलि थिउ गलेइ, तह गारि विरती खरिण चलेइ। (9.6)
अर्थात् श्री की चंचलता की उपमा हाथी के कानों की चंचलता से और नारी के अनुराग की क्षणिकता की उपमा करतलगत पारे की बूंदों से देकर कवि ने अपनी निरीक्षण शक्ति और अनुभूति का सच्चा परिचय दिया है । शब्दालंकारों में श्लेष (3.14.8), यमक (9.9.4) उत्प्रेक्षा (1.3.10), परिसंख्या (1.5.5) तथा अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग कवि-काव्य में हुआ है । कविश्री ने अलंकार वर्णन अपने ज्ञानप्रदर्शन के लिए नहीं किया अपितु वह सहजता के साथ प्रस्तुत हुआ है।
मुनिश्री कनकामर ने पज्झटिका छंद का बहुलता के साथ व्यवहार किया है। बीच बीच में कतिपय पंक्तियां कड़वक, अलिल्लह या पादाकुलक छंद में भी प्रयुक्त हैं। प्रत्येक सन्धि में छंद परिवर्तन हेतु मुनिश्री कनकामर ने समानिका, तूणक, दीपक, सोमराजी, चित्रपदा, प्रमाणिका, स्रग्विणी, भ्रमरपदा या भ्रमरपट्टा, चन्द्रलेखा, घत्ता आदि छंदों का व्यवहार सफलतापूर्वक किया है।
इस प्रकार मुनिश्री कनकामर का करकंडचरिउ धार्मिक तथा रोमाण्टिक चरितात्मक महाकाव्य है । वस्तु-वर्णन, चरित्र-चित्रण और भाव-व्यजंना इस महाकाव्य में समन्वित-रूप में विद्यमान है। घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं को भी कविश्री ने पूरा विस्तार दिया है।
आदर्शवाद का मेल कविता की समाजनिष्ठ पद्धति और प्रबन्धशैली से अच्छा हुआ है। इसमें कवियुगीन सामाजिक व्यवस्था का सुन्दर चित्रण दृष्टिगत है । विलासमय वातावरण के वर्णन में मुनिश्री को पर्याप्त सफलता मिली है । समाज में मंत्र-तंत्र, शुभ-शकुन, शाप आदि में निष्ठा, सदाचार का संदेश प्रादि का वर्णन महत्त्वपूर्ण है । झूठा आदर्श जीवन के लिए मंगलप्रद नहीं हो सकता । कविश्री कनकामर के भावों की अतल गहराई में उतरकर अमूर्त भावनाओं को मूर्त-रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। जिज्ञासा को उत्तरोत्तर तीव्र करने के लिए कथाओं को गतिशीलता दी गई है। कथाएं व्रत या चारित्र पालने के लिए भावोत्तेजक हैं । वस्तुतः
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जैन विद्या
मुनिश्री कनकामर अपभ्रंश साहित्याकाश के ज्योतिर्मय नक्षत्र हैं । उनकी इकलौती रचना 'करकण्डचरिउ' काव्य के अनेक गुणों से मंडित है। भाव और कला की दृष्टि से हिन्दी के सूफी कवि जायसी के 'पद्मावत' पर 'करकण्डचरिउ' का प्रभाव पर्याप्त रूप से परिलक्षित है ।
1. विचार और विश्लेषण, डॉ. नगेन्द्र, पृष्ठ 3 । 2. भविसयत्तकहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', जैनविद्या,
धनपाल अंक, अप्रेल 1986, पृष्ठ 29 । 3. पट्टावली समुच्चय, पृष्ठ 26। । 4. (क) 'मेरा अनुमान है कि वर्तमान मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के समीप की
यही वह प्राचीन नगरी है जिसका उल्लेख मुनि कनकामर ने 'आसाइयणयरि' के रूप में किया है तथा जिस पर 'आशापुरी' ऐसा प्राचीन टिप्पण पाया जाता है।'
-करकण्डचरिउ, सम्पादक-डॉ० हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृष्ठ-10 (ख) 'इटावा से 9 मील की दूरी पर आसयखेड़ा नाम का ग्राम है। यह ग्राम जैनियों का प्राचीन स्थान है । अत: सम्भव है कि यह प्रासाइय नगरी वर्तमान आसयखेड़ा ही हो।'
-तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग-4,
डॉ० नेमिचन्द्र, पृष्ठ 160 । - (ग) 'औरंगाबाद जिले के प्रसाई नामक स्थान में इस ग्रन्थ की रचना की थी।'
- -अपभ्रंश प्रवेश, विपिन बिहारी त्रिवेदी, पृष्ठ 30 । (घ) 'कनकामर के विषय में इतना ही मालूम है कि वे "आसाइय" नगरी के रहनेवाले थे जो सम्भवतः बुंदेलखण्ड में कहीं था।'
-हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ० नामवर सिंह, पृष्ठ 210-11 । 5. करकण्डचरिउ, सम्पादक-डॉ० हीरालाल जैन, 10.28.1.4, पृष्ठ 106 । 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, खण्ड 4, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री,
पृष्ठ 160 । 7. करकण्डचरिउ, सम्पादक-डॉ० हीरालाल जैन, प्रस्तावना, पृष्ठ 12 । 8. अपभ्रंश काव्य परम्परा और विद्यापति, अम्बादत्त पंत, पृष्ठ 279 । 9. अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ० देवेन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ 118। 10. अपभ्रंश साहित्य, हरिवंश कोछड़, पृष्ठ 192 ।
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अनित्य भावना
कम्मेण परिट्टिउ जो उवरे, जमरायएं सो णिउ जिययपुरे । जो बालउ बालह लालियर, सो विहिरणा गियपुरी चालियउ ।
वजोव्वणि चडियउ जो पवरु, जमु जाइ लएविणु सो जि गरु । जो बूढउ वाहिसएहि कलिउ, जमदूर्याह सो पुणु परिमलिउ । छक्खंड वसुंधर जेहि जिया, चक्केसर ते कालेज णिया । विज्जाहर किरार जे खयरा, बलवंता जममुहे पडिय सुरा । उ सोत्ति बंभणु परिहरइ णउ छंडइ तवसिउ तवि ठियउ । घणवंतु ण छुट्ट ण वि विहणु जह काणणे जलणु समुट्ठियउ ।
अर्थ-कर्म के वश से जो उदर में आकर बैठा, मृत्यु (यमराज) उसे अपने नगर में ले गई । जिस बालक का लालन-पालन किया विधि ने उसे भी अपने पुर में भेज दिया । जो मनुष्य नवयौवन तक पहुँचता है, चाहे वह श्रेष्ठ ही हो, मृत्यु उसे भी लेकर चल देती है । बूढ़ा होकर अनेक व्याधियों से पीड़ित है वह तो यम द्वारा मदित होने ही वाला है। जिन चक्रवर्तियों ने छहखण्ड पृथ्वी को जीता वे भी काल द्वारा ले जाये गये । विद्याधर, किन्नर, खेचर और सुर बलवान होते हुए भी मृत्यु (यम) के मुंह में जा पड़े। जैसे सारे वन में फैली हुई भाग किसी को भी नहीं छोड़ती, सारे वन को जला देती है वैसे ही मृत्यु न श्रोत्रिय ब्राह्मण को छोड़ती है न तप में लीन तपस्वी को । उसके मुख से न धनवान छूटता है और न निर्धन ।
करकण्डचरिउ, 9.5
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करकंडचरिउ की कथा में लोकतात्त्विक जड़ाव-जुड़ाव
-डॉ० (प्रो.) छोटेलाल शर्मा
'करकंडचरिउ' (कउ) में उच्च कथा के कथारस का विन्यास है, किस्सागोई का अद्भुत विधान है और लोकजन्य अति प्राकृत तत्त्वों का बेजोड़ जड़ाव-जुड़ाव । बारीक इतना कि रूपरेखा में बुजुर्ग तकनीक का आभास हो और भीतर सर्वहारा सारसिक्त । रचनाकार की रचना-प्रक्रिया पर भी आँख है और परिणाम भी आँख-पोझल नहीं है। लोक और कला का ऐसा सुयोग-संयोग कम सुलभ होता है । कलात्मक मनोविज्ञान और दर्शन कहीं भी विरल नहीं हैं। दर्शन मूलतः विचारों के रूप में अभिव्यक्त युग होता है और कला, भावनाओं, अनुभूतियों के रूप में साकार बना युग । 'कउ' की कथा में न वैश्विकता छूटी है और न विशेष का ही रंग फीका है, साथ ही लोक प्रतिदृश्य भी चटक है और कला प्रतिदर्श भी। कला मनोभावों को संतुलित ही नहीं करती है, मूल्यपरक दृढ़ता भी प्रदान करती है, तभी वह संकेत विज्ञान, तंत्रसंरचना और संवेगात्मक विश्लेषण के परे जाकर उभरती-उमड़ती है। 'रस्किन' ने इस मोर ठीक ही अंगुलिनिर्देश किया है-'विज्ञान वस्तुओं के परस्पर सम्बन्धों का अध्ययन करता है, जबकि कला उनके मनुष्य से संबंध का अध्ययन करती है। जो कुछ भी उसके अधीन है, उसके सामने वह मात्र सवाल उठाती है और उग्ररूप में उठाती है; वह जानना चाहती है कि मनुष्य की आँखों और मन द्वारा प्रतिबोधित कोई वस्तु क्या है और इससे क्या घट सकता है । कला इस जगत् को वैसे नहीं देखती जैसा वह वास्तव में है, अपितु जैसा मनुष्य उसे देखता है
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वैसे देखती है । मानवता उसकी सुवास है, विचार तेज और वीर्य । इससे उसकी स्वायत्तता टूटती भी नहीं है और प्रति को चूमती भी नहीं है ।
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हमारी इस आलोच्य कथा में जीवन के प्रति लोकप्रिय साहित्य का रवैया मुक्त के पुनर्भोगवाला नहीं है, आविष्कार का रवैया है । कला के साथ मिलकर एक ऐसा सामंजस्य है जिसके लिए मानव सदा-सर्वदा लालायित रहता है। इस तरह इसमें जीवन की सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था का प्रयत्न भी है और व्यक्ति के सामंजस्यपूर्ण विकास के पदचिह्नों का संकेत भी है । व्यक्ति में विश्व का संघनन होता है और विश्व में व्यक्ति का प्रस्फुटन । मनुष्य सभी सामाजिक सम्बन्धों की समष्टि है । उसमें सृजनशीलता भी आवश्यक है और नैतिकता भी । इस कथा की सारी परिघटनाएँ सामाजिक कारणों से हैं, तकनीकी कारकों से नहीं हैं । जहाँ तक अन्धविश्वासों का सवाल है, वे हमारी जानकारी के निषेध बिन्दु भी हैं, और फिर जिनमें हमें विश्वास होता है, उनमें तार्किक भेद करना भी कठिन है । इसमें व्यापक और युगीन वास्तविकता की गहन पकड़ है, अत्यन्त सूक्ष्म एवं मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है तथा सृजन प्रयोगों का सर्वतोमुखी और सुसंगत हृत्कंपन है। विरोधों का तर्क भी है और विरोधों के बीच संगति भी ।
लोक जैसे अनादि निधन है, वैसे ही लोकाभिप्राय और रूढ़ियाँ भी अनादि-निधन हैं । इनके श्रद्धान के सामने तर्क शिथिल होता है और जानकारी निस्तब्ध । ये सतत् प्रवाहशील हैं - गुप्त - प्रकट सरिता के सदृश । इनकी ऐतिहासिकता परिणाम में नहीं है, चयन और प्रसार में है । इसलिए इनके बीच प्रागा-पीछा नहीं होता, हाँ अर्थ की सघनता अवश्य प्रतीक प्रक्रिया का अंग बनती रहती है । जब चाहें, जहाँ चाहें, रेत हटाइए और चुल्लू भर लीजिए । भारतीय साहित्य के पौराणिक काल में इनका अत्यधिक मान-सम्मान रहा है । उक्त कथा पर ही 'कथा सरित्सागर' 'यशस्तिलकचंपू' 'वसुदेवहिंडी' 'वृहत्मंजरी' 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' 'पद्मपुराण', 'पउमचरिउ', 'उत्तराध्ययन टीका', 'हरिवंशपुराण', 'महाभारत', 'णायामकहानी', 'कुम्भकारजातक', 'उत्तररामचरित नाटक', 'कादम्बरी', 'महापुराणु', प्रादि का प्रभाव खोजा जाता है और इसका 'रयणसेहरीकहा', 'पद्मावत' आदि पर। लेकिन इस प्रकार के हरण ग्रहरण की चर्चा मनोविनोद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इस तरह के अभिप्राय और रूढ़ियाँ किस • प्रबन्धकाव्य में देखने को नहीं मिलतीं ? हिन्दी के 'पृथ्वीराजरासो', 'रामचरितमानस' 'सूरसागर', 'पद्मावत' 'शिवराजभूषण', आदि ग्रंथ इस प्रकार के लोकतत्त्व से आकंठ भरे हैं । गीत - प्रगीतों में भी इनकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है। आधुनिक काल का सृजन भी इनकी छाया से मुक्त नहीं है । निषेध के परदों से भी ये चमक-दमक उठते हैं। इनकी उपलब्धि इनकी : कलात्मक योजना में है । इसलिए इस निबन्ध में उच्चकथा संरचना के प्रमुख लोकतत्त्वअभिप्राय, रूढ़ि आदि का वर्णन उनके सृजनात्मक परिप्रेक्ष्य में किया गया है ।
'कउ' के कथानक की कड़ियाँ प्रतिसामान्य जीवन से जुड़ी हैं । उसमें अनेक मोड़ हैं और उसके तेवर 'पंचतंत्र' सरीखे हैं । कथानक इसी कारण अतिव्यापक और प्रमुख है, पात्र संवाहक मात्र हैं, वे चाहे किसी वर्ग के हों-सामंत, पूंजीपति या इस वर्ग के खेचर, विद्याधर,
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देव आदि-सभी जितने तीव्र जीवनकंटकों को दलित करते हैं, उतनी ही गौरव-सौरभ बिखराते हैं, उपेक्षितों तक में अपनी पहचान होने की व्यापकता बनाते हैं-मैं सबमें हूँ और सब मुझ में, सभी स्पृहणीय मूल्यों की सर्वत्र प्रतिष्ठा करते हैं । कथानक की सभी परिघटनाएं सावयवीरूप से संयोजित हैं, वे सम्पुर्ण की उपकारक हैं और खंड की पूरक । इस कारण कहीं जोड़-तोड़ नहीं दिखता, एक सहज प्रवाह ही प्रतीत होता है। इन परिघटनाओं को मोटे तौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, 1. अभिप्राय, 2. रूढ़ियां और 3. विश्वास । अभिप्राय भी एक ही सांचे-ढांचे के नहीं हैं । उनके अनेक रूप हैं, अनेक स्रोत हैं। कुछ अभिप्राय मनुष्यों से सम्बन्धित हैं और कुछ मानवेतर प्राणियों से । साधनापरक अभिप्राय भी हैं। रूढ़ियों में सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निन्दा, उपसर्ग, भवान्तर आदि से सम्बन्धित अधिक उल्लेख्य हैं । विश्वासों में शकुन, अपशकुन आदि की भूमिका अधिक स्फुट है। मानवसम्बन्धी अभिप्राय
मानवसम्बन्धी एक अभिप्राय तब दृष्टिगोचर होता है जब रचनाकार राज्य के उत्तराधिकारी के चयन की विधि के वर्णन में दत्तचित्त होता है । वर्णन स्वभावोक्ति अलंकार, मनोवेगात्मक रभस और घटना के अकल्पनीय मोड़ सम्बन्धी विस्मय से अनुप्राणित हैवियरंतवइरिविद्धावणासु,
दुस्सीलरायभयदावणासु । जणु प्राण ण लंघइ तणिय जासु, हुउ गरि गरिवही गासु तासु ।
X
जणु जंपइ को वि ग प्रत्थि कुमरु, जे रज्जु करेसइ एस्थ पवरु । ता मंतिमणहो परिफुरिउ मंतु, अवलोयउ गयवरु लडहदंतु । तं पुज्जिवि मयगल मइवरई, परिपुण्णउ कुंभु समप्पियउ । जो रज्जु करेसइ तहो उवरि, ढालेसहि एउ वियप्पियउ ॥ 2.19 उपर्युक्त सभी विशेषण पारदर्शी हैं और सूझ अन्तर्जात हैस पुण्णउ कुंभु करेण करंतु, छणिदु व पव्वसिंगु संरतु । पुरम्मि घरेण घराई लहंतु, समुण्णइ तो वि समग्ग वस्तु । भमेविण पट्टणु चच्चरवंतु, गमो गउ बाहिरि दूरे भमंतु । मसाणहो माझे . अउन्वउ मारु, गएण तुरंतएँ विठ्ठ कुमार । मुसोहणु कुंभु सिरेणं, गएण, सिरम्मि विरेइउ तासु गएण । 2.20
यह क्या विडंबना ? सब लोग सिर धुनने लगे। महान् रव व्याप्त हो गया, इस करिवर ने यह क्या किया ? चांडाल के ऊपर कलश ढाल दिया। प्रश्न कुल-शील जिज्ञासा का खड़ा हो गया । रचनाकर ने बड़े कौशलपूर्वक पूरक इतिवृत्त से अनुस्यूत किया है
उदुम्मण अहिं जा मणम्मि, खेयरहो ताम तहिं तक्खणम्मि । मुरिणदिष्ण सावें जउ गासियाउ, विज्जाउ पराइउ तासु ताउ ।
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ता हरिसुक्कंठऍ खयरेण, लोयहं परिग्रक्विड सुन्दरेण । मायंगहो सुउ णउ होइ एह, रिगवणंदणु एहउ दिव्यदेहु ।
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जयघोसु पर्वाड्डउ गयरणयले करणया मरवाह मारणर्वाह करकंड
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भ्रमरेहि सुमंगलु पूरियउ ।
विधि का विधान कैसा विचित्र है ? साम्राज्ञियां श्मशान में प्रसव के लिए प्रेरित हैं मौर राजकुमार मातंगों द्वारा पालितपोषित है । इस प्रकार करकंड का श्मशान से उद्धार होता है और वह राजा बनता है । कैसी प्रसंगति श्रोर कैसे एकरेखीय संगति में पिरो दी गई हैं कि दोनों छोर जुड़कर समाधेय हो गये हैं । यह अभिप्राय अन्यान्य रूपों में जनता की जिह्वा पर चटखारों के साथ आज भी प्रासन जमाए है ।
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रज्जे वइसारियउ । 12.21
जब अनजान में पिता-पुत्र करती है । इस अभिप्राय के एक स्थान पर सीता परिचय
मानव सम्बन्धी एक अन्य अभिप्राय तब सामने प्राता है, मांडलीक भावना से जूझ उठते हैं। बीच-बचाव रानी माता दर्शन लवकुश वृत्त और अर्जुन वभ्रुवाहन वृत्त में भी होते हैं । कराती है और दूसरी जगह अलोपी समाधान करती है। पारस की रुस्तम - सोहराब की कथा का मूल प्राधार तो यही अभिप्राय है । नई पीढ़ी की परख ने नाद से अर्थ की सृष्टि की है और कथ्य को भोज के चित्रात्मक और अप्रतिहत है -
की यह अच्छी कसौटी है ।
कवि वेष्टन में लपेट दिया है, भाषा
ता रोसें चंपहिउ गरिबु,
रह चडिवि पधायउ णं सुरिंबु । सो तुरिउ गयउ परबलणिवासु, ग्रभिडियउ करकंडहो णिवासु ।
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सर पेसिय जा चंपाहिवेण, करकंडहो बलु भग्गउ खगेण । करकंडए पेच्छिवि बलु चलिउ मरिण रोसु जा बिज्ज पइण्णी लेयर तहे पेसणु
जैन विद्या
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टंकारस घोरें रउब्वेण । धरणियलु तडयडिउ, तस कुम्मु कडयडिउ । भुवणयसु खलभलिउ, गिरिपवर टलटलिउ ।
महंत विष्फुरिउ । विष्णउ तें तुरिउ ।। 3.16
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खगणाहु परिसरिज, सुरराउ रहरिउ । सो सदु सुणेविणुधणुगुणहो रह भग्गा णट्ठा गयपवर ।
मउगलियर चंपणराहिवहो भयभीय ण चल्लह कहि खयर ॥ 3.18
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जैन विद्या
हुउ बाणु णिरत्थउ सो हु जाव, पोमावइ संगरे- पत्त ताव | हे माए माए संगरे सम्झे कि ग्राइय तुहुँ भडनियरमज्झे । सा भइ पुत्त संवरहि चाउ, एह घाडीवाहणु तुज्झ ताउ । 3.19
यहाँ प्रर्थान्तरन्यास-निष्ठ प्रात्मविस्फार और पुनरुक्ति समृद्ध दर्शनीय है । पिता के चेहरे पर एक भाव प्राता है और एक जाता है, पुत्र का समाता है | कैसा रमणीय विरोध है ।
विस्मय - विस्तार मन फूला नहीं
रानी के दोहद के रूप में एक अन्य अभिप्राय से तब परिचय होता है जब कवि इस हर्ष प्रसून को कुटिल कीटों से छिपे छिपे कुतरते दिखाने का उपक्रम करता है । रानी गर्भगौरव के सुख का संवरण नहीं कर पा रही है और असमाधेय देखकर पीड़ित प्रतिस्खलित भी है
तें पीडिय मारिणि मयरणलील, रंग पर्यपह कीरइ का वि कील । किउँ पावउँ चिति पियमणम्मि, पडिललइ महीयलि तक्खणम्मि । X X X
X* वरिसंतई जलहरे मंदमंदे, पई सहुं चडेवि णरेसर पुणु इउ हियवई वट्टर जह ण
X
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X ता मारिणि पभणइ गिभयालि, दावाणललग्ग
प्रइवमालि । कहि प्रच्छइ जलहरु सामिसाल, संभवइ रग एहउ गुणविसाल । ता राएं गियमणि कलिवि एउ, संचितिउ X X मोक्कलेइ चित्ति विभु
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मेहजालु ताउ तेरण
मंद मंदु, संभरीउ,
रउ करेविणु रियगइंदे | परमेसर पट्टणु भममि सगोउरउ | विघट्टइ तो णिच्छ एवहि मरउँ । 1.10
मेहकुमारदेउ । 1.11
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तोर्याबदु । विष्फुरीउ । 1.12
वह हाथी राजा-रानी को लेकर भाग खड़ा हुम्रा और कालिंजर के एक सरोवर में जा बैठा । रानी वहाँ वन में भटकने लगी और माली के घर श्राश्रय पा सकी। वहाँ भी विपत्ति ने पीछा नहीं छोड़ा। रानी का सौन्दर्य शत्रु हो गया । गजगामिनि और ढोला के साथ भी ऐसा ही हुआ है । रानी को मालिनि की ईर्ष्या के कारण घर छोड़ना पड़ा, बीहड़ श्मशान में प्रसव हुआ । सीता ने भी ऋषि श्राश्रम में ही पुत्रों को जन्म दिया था। मालिनि का वितर्क, प्रति सामान्य होते हुए भी जादू भरा है
एह नारि विसिट्ठी गयरणारण पियारी
वरणवालहो घरि सा वसइ जाम, कुसुमत्तएं चितिउ हिय ताम । तहि विट्ठी किणरि किं विज्जाहरिय | महिलहं सारी चंपयगोरी गुणभरिय | 1.15
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जनविद्या
जइ प्रायहि रुबई मयणसरुवई महो पिउ होहइ विमणमणु । ता कलहु करेविणु मई मेल्लेविण णिच्छउ माणइ एह पुण। 1.16
ताव ताए रोसियाई, दोस देवि घल्लियाई । दुक्खएण जंतियाए, भूयथाणु दिठ्ठ ताए ।
देहहो अवसारणई भीममसागई तहिं तहे जायउ पुत्तु वरु। 1.17 इस कौशल की दुहाई से कौन मुकर सकता है ? स्नेह-रज्जु से विजड़ित कोमल दल विपत्ति की ऊष्मा में भी हरा-भरा बना रहता है। हाँ, यह ताप तप की साधना का मार्ग अवश्य खोल देता है।
एक रससिक्त 'पत्नी अपहरण' सम्बन्धी अभिप्राय का संदर्भ तब उपस्थित होता है जब एक वन्यगज राजा की सेना पर टूट पड़ता है और जब राजा उस अप्रतिहत हाथी के साथ द्वन्द्व में उतरता है, तब वह विलुप्त हो जाता है। सीताहरण अभिप्राय का तेवर भी यही है। यती राक्षसराज के रूप में बदल जाता है।
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जा अच्छइ तीरे सरोवरास, सेण्णाहिं गंधु ता गयउ तासु । उच्चाइवि करयलु सिर धुणेवि, अवलोइय करिणा मुहु वलेवि । सा पेक्खिवि सो करिवर विरुद्ध, उद्धाविउ करि मयगंषलुषु । करु दसणे करतउ गुलुगुलंतु, पयभारें मेइणि णिदलंतु । तो पाइउ परवइ करकिवाणु, पडिखलियउ वारणु जुममाणु । करणाइ देवि किर हणइ जाम, अइंसणु वारणु हुयउ ताम । प्रदंसरणे हूयएं करिवरई णिरियणयण सो तक्खणिण । पेक्खंतह णासिवि करि गय उ थिउ विभिउ परवइ णियमणिण। 5.14
एक विस्मय यह है और दूसरा विस्मय आवास पर घटित होता है। राजा दोनों के तनाव के बीच दुःखाम्बुधि में डूब जाता है। सारी वर्णन-योजना नाटकीय है-बदलते दृश्यों की अवली।
प्रावासहो पावइ जाव राउ, मयणावलि उ पेच्छइ वि ताउ । जोइयइ चउद्दिस हिययहीणु, उव्वेविरु हिंडइ महिहे दीण । 5.15
'तुलसी' के राम के सदृश करकंडु को भी सारी प्रकृति चेतन प्रतीत होने लगी। राजा शास्त्रीय नखशिख वर्णन की परम्परा से सप्राण लाक्षणिक व्याजनिन्दा में पुकार मचाने लगता है
जोएवि विसिहि प्रागय वलेवि, पुक्कारहिं उम्भा कर करेवि । ता राएं देक्खिवि ते रुवंत, परिमुक्क अंसु पयहिं तुरंत ।
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हे पयवय तुहूं सवरणाणुबंधु, महु अक्खहि सुन्दरि णेहबंधु । हा मुद्धि मुद्धि तुहुँ केरण पीय, किं एवहिं ल्हिक्किवि कहिं मि ठीय । हा कुंजर कि तुहुँ जमहो दूउ, कि रोसई महो पडिकूलु हूउ। 5.15 -
कन्यापहरण से सम्बन्धित एक उपकारक इतिवृत्त भी है। एक राक्षस राजकन्या का अपहरण कर लेता है। राजा अनुदिन डिडिमि घोष कराता है कि कभी कोई उद्धारक नगर में प्रवेश कर राजा का कार्य साध सके। एक बार दो विद्वान् पुरुष पाए, उन्होंने उस राक्षस को मंत्रों द्वारा द्वेषगलित कर उस कन्या का उद्धार किया। राजा ने उन्हें अति प्रचुर धन से सम्मानित किया
ते कहिउ एत्यु णरणाहधूव, णिय मंडई रक्खसें कामरूव । छंडावइ को विण सा वराय, रक्खेरण जित्त परणियर राय । पइपारि गरि उव्वसि वसेइ, तहो भीए को वि ण ऊससेइ । विज्जाहिउ णरु प्रायउ णिएइ, ते कज्जे दिवि दिवि इहु भमेइ। 2.11
गय विणि वि ते रक्खसरिणवासे, परिभमइ रण कवणु वि जासु पासे । पुणु विठ्ठउ रक्खसु कविलकेसु, उच्चारई मंतहो गलियदेसु । ते विक्खिवि राणउ हिट्ठचित्तु, अइपउर पइण्णउ ताहं वित्तु । 2.12
एक अन्य अभिप्राय रमणी रभस से सम्बन्धित है । उनका विभ्रम वस्तु सौन्दर्य की उत्कृष्ट व्यंजना करता है और साथ ही नारी के मनोविज्ञान को भी इंगित करता है। सारा नगर करकण्ड के नगर प्रवेश पर सागर सदृश किस प्रकार विक्षुब्ध है
सो पुरवरणारिहिं गुणणिलउ पइसंतउ दिउ पयरे कह। णं दसरहणंदण तेयरिणहि उज्झहिं सुरणारीहिं जह । 3.1
तहिं पुरवरि खुहियउ रमणियाउ, झाणट्ठियमुणिमणदमणियाउ । क वि रहसइँ तरलिय चलिय णारि, बिहडफ्फड संठिय का वि वारि। क वि धावइ णवणिवणेहलुख, परिहाण ण गलियउ गणइ मुख । क वि कज्जल बहलउ अहरे देइ, णयणुल्लएं लक्खारसु करेइ । णिगंथवित्ति क वि अणुसरेइ, विवरीउ डिभु क वि कडिहिं लेइ । कवि णेउरु करयलि करइ बाल, सिरु छडिवि कडियले घरइ माल। णियणंदणु मण्णिवि क वि वराय, मज्जारु ण मेल्लइ साणराय । क वि षावह णवणिउ मणे धरंति, विहलंघल मोहइ घर सरंति । क वि माणमहल्ली मयणभर करकंडहो समुहिय चलिय । थिरथोरपनोहरि मयणयण उत्तत्तकणयछवि उज्जलिय।
3.2.
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जैनविद्या
जलयात्रा में पोत और स्वजनों का बिखराव अत्यन्त प्रसिद्ध अभिप्राय है। करकंड के सलिलयान को चोर हर ले जाते हैं। दूसरी नाव तैयार होती है। वह लहरों के वेग से बिखर जाती है। राजा देशान्तर में भटक कर कोंकण जा लगता है और रानी खम्भायत पहुँच जाती है। वहीं, वह एक कुट्टिनी के हाथों पड़ जाती है। जब वह यह कहती है कि बिना ग्रहण के वेश्या शुद्ध नहीं होती तब वह द्यूत में पराजय की शर्त लगाती है। राजा उसे द्यूत में हराता है । दोनों एक दूसरे को पहचान लेते हैं। इसी प्रकार टक्क व्यापारी से अपना घोड़ा भी मोल ले लेते हैं
णिवपहरएँ तुरियई हयसमाणु, ता चोरहिं हरियउ सलिलजाण । रविउग्गमे परवइ णियइ जाव, ण वि पेक्खइ बोहिय तुरउ ताव । खड़ कट्टिवि बंधहु तुरिउ तेव, रयणायर लीलएँ तरहु जेव। . तं रइवि चडिण्णउ सरलराउ, णियघरिणिहे सरिसउ सुयसहाउ । तहो लहरिहिं बंधई तोडियाई, देसंतर राएँ हिंडियाई । ता उड्डिवि सूयउ वडि गयउ रिणउ परवइ लहरिहिं कोंकणहो । तहो घरिणि मणोहर विहिवसई णिय, खंभायच्चहो पट्टणहो। 8.12 तहि लंबझलंबा कुट्टीएँ, सा विट्ठिी ताई वियक्खणीएं। तं णिसुणिवि जंपिउ सुंदराए, इह जूवई जो मई जिणइ माए । सो सोवइ मई सहुँ भणिउ ताएं, ता जिणिया जूर्व पर तियाएं। 8.13 जएण पसिद्धी कित्ति जाहे, देवाविउ गहरणउ तेण ताहे । अप्पणु पुणु रयणिहिं गयउ तेत्यु, सूयएँ सहुँ रमरिण शिविठ्ठजेत्थु । सा भणिय तेण णं मयणदूउ, लइ सुंदरि खेल्लहिं सारिजूउ । सा जित्ती तेण णराहिवई जा हुई मणे विहडप्फडिय। ता ताएं वियाणिवि रिणयरमणु खणे अंगें पंगु समुभिडिय ॥ 8.15
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जावच्छइ तिएं सहुँ तेत्थु राउ, ता तुरय लेवि को वि टक्कु प्राउ । तहि मज्झि णिहालिउ राणएण, किउ ऊहणु ते सहुँ टक्कएण। बोल्लाविउ राएँ णाम लेवि, ता घोडें जोइउ मुहु वलेवि। 8.16
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२ सयलु विहंजिवि दुत्थियाह, सुहभोयणु दिउ भुक्खियाह । जावच्छइ सा तहिं रइ करंति, जिणणाहहो चलाई मणि सरंति । रइवेयई विट्ठउ णियरमणु तहिं हरिसई वड्ढिउ अंसुजलु ।
ता विज्जु चमक्किय कसणतणु सिहिकंतएँ णं जलहरु सजलु ॥ 8.17
यहाँ विषमता के संघर्ष की कसौटी पर मानवीय संभावनाओं की परीक्षा है जिसमें जहां-तहां देव सहायक है । मानव की संभावनाओं के उभार के लिए संघर्ष प्रयोजनीय है ।
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जनविद्या
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स्थिति बदलती है, पद हटता है, पुरुष रह जाता है और पुनः प्रतिष्ठित होता है, यह मानव जीवन की ही विशेषता है ।
गुण-कर्म-विशिष्ट व्यक्तित्व के लयात्मक प्रभाव से संबंधित अभिप्राय तब देखने को मिलता है जब पद्मावती एक सूखे निर्जन वन में पहुंचती है और वह लहक के साथ हरा-भरा हो जाता है । राम के पदार्पण से दण्डकवन फूल उठता है । सारा संभार रभस और विस्मय से भरा-पूरा है
अइदुक्खु वहंती णियमणम्मि, सरु मुएवि महासइ गय वरणम्मि । ता विठ्ठउ उववण ढंखरुक्खु, मयरहियउ पोरसु गाईमुक्खु । तहिं रुक्खहो तले वीससइ जाम, गंदणवणु फुल्लिउ फलिउ ताम । पप्फुल्लिय-चंपय बउल चूय, लयमंडव सयल वि हरिय हूय । अण्णण्णहि समयहिं फलहिं जे वि, फलभारई तरुवर एमिय ते वि। भमरावलि परिमलगंधलुद्ध, गं वरणसिरि गायइ सर विसुद्ध । किं वम्महु प्रायउ तहिं वण्णसि, तं सुंदर भावइ महो मण्णमि। 1.14
मानवेतर प्राणियों से संबंधित अभिप्राय
मानवेतर प्राणियों में शुक, अश्व, हाथी आदि से संबंधित अभिप्राय ही अधिक मिलते हैं । 'कउ' का शुक संबंधी अभिप्राय परिघटना स्वरूप का है और 'समाधि' प्रलंकार का काम करता है । 'पृथ्वीराजरासो' और 'पद्मावत' के शुकसंबंधी अभिप्राय भी परिघटनात्मक हैं। 'कउ' के इस अभिप्राययुक्त प्रकरण का सारांश इस प्रकार है-'एक खेचर शुक योनि में उत्पन्न हुआ । उसने ग्वाले को धन कमाने के लिए उसे बेचने की युक्ति बताई। शुक ने मार्ग में अपना बुद्धि प्रकर्ष दिखलाया-एक कुट्टिनी स्वप्न की घटना के लिए एक सेठ से द्रव्य का प्राग्रह कर रही थी। शुक ने द्रव्य के प्रतिबिंब को आगे कर झगड़े को निबटा दिया और राजद्वार पर जाकर राजा को पैर उठाकर आशीर्वाद दिया और अपनी कपट-कहानी सुनाई कि वह एक भील को चकमा देकर यहां आ गया है । उसने राजा के साथ समुद्र यात्रा की और जलयान के मंग हो जाने पर बिखरे लोगों को मिला दिया । आत्मा किसी भी योनि में अवतरित हो, अपना चमत्कार दिखाती ही है--
खेयर हयउ कोरो, पव्वयमत्ययषीरो। तुहुँ गोवाल लएवि मई हि तुरंतउ पुरवरहो । कंचरणपंचसएहिं फड़ जाएवि देहि गरेसरहो ॥
8.3
सुएणावि जुत्तो, पुरं झत्ति पत्तो। भरणीमो बलाएं, गिरा कोमलाएँ।
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जनविद्या
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तुमं जेठ्ठउत्तो, सुईणे विसुत्तो।। तहे देहि दवं, णिवारेहि गव्वं ।। 8.4
X माणि सेट्ठि पारिसो वि, देमि दव जेम को वि। बप्पणस्स मझे बिबु, लेहि प्रक्क एहु दन्छ । तं सुरिणवि पडुत्तर सा भरिणय सुइणई कि गहणउ लहइ चले।
8.5
ता सूएं उच्चाएवि पाउ, अहिणंबिउ पासीवाएं राउ । पतिवज्जइ जणवर पाहचार, तह कवडकहाणउ रयउ फार।
8.7
तहि चरिउ गरेसर सहुँ सुएण, देवाविउ फेरउ विढभएण। ता कीरें गयणंगणु सरेवि, अवलोइउ पाणिउ थिरु करेवि।
8.9
सूएण णराहिउ तक्खणेण, अणुमग्गे पीयउ तहुँ तणेण । अवरोप्पर चित्तें मिलियएण, ता तक्खरिण भरिणयउ सूयएण। हे परवइ तुहुँ एह रयणलेह, लइ परिणहि कंचरणदिव्वदेह।
8.10
तहो कहिय वत्त तेहि मि सुएहि, पण भरिणय ते वि वयणल्लएहि। 8.13
भरे सुप भायर प्रावहि एत्थु, तुहारउ सामिउ अच्छाइ केत्यु।
8.14
अश्व संबंधी अभिप्राय का निबंधन 'पंचतंत्र' की कयन भंगिमा से होता है । घोड़ा भी वह ऐसा है कि जमीन से उसका पर ही नहीं लगता है । राजा भूल से कशाघात कर देता है और घोड़ा ले उड़ता है । वह सागरतट पर ले जाकर छोड़ता है । समुद्र संतरण में यह घोड़ा भी बिछुड़ जाता है और एक टक्क के हाथ पड़ जाता है । राजा उसे पुनः क्रय कर लेता है । राजपरिवार की परीक्षा के अवसर का आयोजन इस शौर्य के माध्यम से हुआ है और शौर्य-धर्य के प्रकाशन के लिए प्रकरण निकल आया है । अश्व में भी वेग-वैचित्र्य के अतिरिक्त अन्य किसी विशेषता का उल्लेख नहीं है
तहिं विट्ठउ गिरिवरतणउ प्रासु, गउ वडवासंगहो कामवासु । मासुंदर घोडउ ताएँ जाउ, परणियले लग्गइ पाहि पाउ । मई जारिणउ सो विज्जाहरेण, तुह प्रक्खिय गेहपरव्वसेण । घरि अच्छइ मंतिहे सो चरंतु, तं सुरिणवि गरेसर गउ तुरंतु। 8.8
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जनविद्या
19
कीरेण णिवारिउ देव घाउ, मा पयहि छंडहि रिणयसहाउ । रणरणाहें तुरयहो सुयछलेण, कसताउणु किउ कोऊहलेण । ता तुरउ तुरंतउ एहयलेण, गउ सायर लंधिवि दूरएण।
8.9
तहि मज्झि णिहालिउ राणएण, किउ ऊहणु ते सहुँ टक्कएण। बोल्लाविउ राएँ रणाम लेवि, ता घोडें जोइउ मुहु वलेवि । .अइबुम्बलु ऊहणु जो किमो वि, सोवष्णु देवि तें किणिउ सो वि। 8.16
हाथी संबंधी अभिप्राय जिन-बिम्ब की सूचना से संबद्ध है । वामी में जिन-बिम्ब नीचे दबा है । एक हाथी सरोवर से कमल लेजाकर वामी में दिये जिन-बिम्ब की पूजा-अर्चना और अभिषेक करता है । उस सेंध और सुगंध से करकंड को उस जिन-बिम्ब को बाहर निकालने की प्रेरणा होती है । अतिशय क्षेत्रों से इस प्रकार के आश्चर्य जुड़े हुए हैं। महावीर क्षेत्र से ग्वाले की गाय का प्राश्चर्य जुड़ा है
णिहालिय अच्छहिं जाव वरणम्मि, सुवारण पत्तउ नाव खरणम्मि। ... सरोवरे पोमई लेवि करिदु, समायउ पव्वउ गाई समुदु । । झलाझल कण्णरएण सरंतु, कवोलचुएण मएण झरंतु । सुपिंगललोयण दंतर्हि संसु, चडावियचावसमुण्णयवंसु । दुरेहकुलाई सुदूरे करंतु, दिसामुह सुंडजलेण भरंतु । करेण सरोयसयाई हंरतु, सुमोत्तियदाम सिरेण धरंतु । . तें करिणा लेविण पंकयई कर भरेवि जलेण तुरंतएण ।
परिदक्खिरण देविण सिंचियउ तें पूजिउ वामिउ भवियएण। 4.6
इससे योनिभेद से व्यवहारभेद की आशंका निरस्त होती है और प्राणिमात्र के साथ समान व्यवहार, अहिंसा का भाव बनता है। साधनसिद्धि से संबंधित अभिप्राय
साधनसिद्धि से संबंधित अभिप्राय का विनियोग कवि ने तब किया है जब वह मंत्रियों की ईर्ष्यालु वृत्ति के वर्णन में दत्तचित्त हुआ है । एक ब्राह्मण कुमार एक दिन एक विद्याधरी का आँचल ले पाता है । वह वस्त्र एक वणिक् के माध्यम से राजा के पास पहुंचता है, राजा वैसे वस्त्र की मांग करता है । ब्राह्मण वन में जाकर एक राक्षसी सिद्ध करता है जो कभी व्याघ्री बनकर दूध देती है और कभी बोलता पानी बन जाती है । इस प्रकार रानी और मंत्री के प्रणय और षड्यन्त्र का भंडाफोड हो जाता है और मंत्री निकाल दिया जाता है। इस अभिप्राय का प्रयोग राज्य के अत्याचार के निरास के लिए हुआ है
गउ सिवि बाहिरि पट्टणहो सो रयणिहिँ जुण्णएं मढे वसिउ। तहिं पायउ विजाहरिणियर ते देक्सिवि सो मणि उल्लसिउ। 10.18
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जनविद्या
तहो अंचले लग्गउ सो खणेण, सव्वाउ पणद्वउ तहो भएण। तं लयउ वणीसें देवि बव्वु, ते अप्पिउ रायही अंसु भन्छ । सो पुच्छिउ राएँ अवर अत्थि, जइ प्राणहि ता तुह वेमि हत्यि । टेवंती कत्ती णिवकरेण, तहि दिट्ठी रक्खसि ताव तेण । जाणेविण रक्खसि बम्हणई भयकंपिर अग्गई तहो भणह ॥ 10.19
मा मारहि सामिय संवरेहि, तं करमि सव्य जं तुहुँ भणेहि । 10.20 xxx घरि णीय गरिदहो बम्हणेण, सा प्रप्पिय वग्धिणि तक्खणेण । 10.21
तें रक्खसि प्राणिय जलु करेवि, बोलाविउ णिवमग्गएँ घरेवि। 10.22
देवी प्राकट्य अभिप्राय का प्रकरण तब उपस्थित होता है जब रतिवेगा देवी से अपने पति का कुशल-क्षेम जानना चाहती है । वह पद्मावती देवी की पूजा करती है और देवी प्रकट होकर गुप्त वृत्तान्त सुनाकर उसे धैर्य बंधाती है । इस अभिप्राय से मनःशुद्धि और भावना की शक्ति का संकेत मिलता है
समच्चिवि पूजिवि झायइ जाव, समागय देवय पोमिणि ताव । समंथरलील सकोमलभंगि, कुणंतिय का वि प्रउब्विय भंगि । विणिम्मियत्वसमिति खणेण, सरीरई रत्तिय सुखममेण । करेहि चहिं करंति गुगाल, सपोत्ययभिंग समुद्दमुणाल । सकंलकग्णफुरंतकवोल
सणेउरकिंकिणिमेहलरोल। फणीफणपंच सिरेण धरंति, पसण्णिय जिम्मल का वि करंति । महीयलि पायसरोय थवंति, सुहाविएं वाणिएं कि पि चवंति । दिसाह मुहम्मि पसारियधामु, उरम्मि णिवेसियमोतियवामु । वर देमि भणंती देवि खणे रइवेयहे मग्गई गुणभरिय । तुहुँ मग्गि किसोयरि जं हियई तउ कारणे परणिहें प्रवरिय ॥ 7.13
X
अणुराएं मउलेवि करजुवलु सिरु गविवि पयत्त प्रणुसरिय ॥
विज्जाहरु सो ण वि पत्थि तहिं तसु तणिय केर जे ण वि धरिय ॥ 7.15 वर्णन रूढ़ियाँ
'खलनिन्दा' संबंधी रूढ़ि 'कउ' में एक उदाहरण के रूप में उद्धृत है। एक गुणसागर वणिक् का एक चेटी से प्रेम हो गया । उसे गर्भ रह गया। उसने राजा के मयूर के मांस की इच्छा प्रकट की। वणिक् ने राजा के मयूर के नाम से मन्य पक्षी का मांस उसे खिला दिया । चेटी विश्वासघात करती है और वणिक् विपत्ति में पड़ जाता है
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जनविद्या
21--
संसग्गु कियउ सहुँ चेडियई कुडिलेण य वणिणा जाम तहि । ता जायउ गम्भु खणेण तहे संजणिय मणोरह सयल जहि ॥ 2.14
ता तुरिउ ताएँ सो वणिउ उत्तु, महो एक्कु वयणु तुहँ करि णिरुत्तु । एह रायहो वरहिणिमंसुएण, महो दिज्जइ जीवमि णिच्छएण। ता गयउ तुरंतउ वणिपहाणु, तहो बरहिणि सम्मुहुँ लऽ ठाणु । सो बरहिणु ल्हिक्किवि जीउ प्रवर, घरे जाइवि तें तहे विष्णु पवर । सो सणिविताएँ चडिएं णिवासु, सिहिवइयरु प्रक्खिउ सयलु तासु ।
सो गरवइ रुट्ठउ वणिवरासु, मारणहँ समप्पिउ तलवरासु। 2.15.
इससे जुड़ा सज्जन-प्रशंसा का प्रकरण है । एक राजा वन में भूखा-प्यासा भटक गया । वहां वणिक् ने उसे तीन मधुर फल दिए । राजा ने उसे अपना मंत्री बना लिया । एक दिन उस वणिक् ने राजा के पुत्र का अपहरण कर लिया और उसके वस्त्राभूषण एक विलासिनी को दे दिए । राजा को इसका पता चल गया । तब राजा ने मंत्री से संतुष्ट होकर कहा-'उन तीन फलों में से एक फल का ऋण ने मतिवर मंत्री का चुका दिया। अन्य दो फलों का ऋण अभी भी है, क्षमा कीजिए।' मंत्री इससे पानी-पानी हो गया और पुत्र लाकर राजा को भेंट कर दिया
वाणारसिणयरि मणोहिरामु, अरविंदु पराहिउ अत्थि णाम् । संतोसु वहंतउ णियमणम्मि, पारखिहें गउ एक्कहिं विणम्मि । जलरहियहिँ प्रडविहिं सो पडिउ, तहिं तव्हएँ भुक्खएँ विग्णडिउ । प्रमिएण विणिम्मिय सुहयराइ, तहो दिण्णइ वणिणा फलई ताई। संतुट्ठउ तहो वणिवरहो राउ, घरि जाइवि तहो दिण्णउ पसाउ । उवयार महंतउ जाणएण, वणि णिहियउ मंतिपयम्मि तेण। 2.16 xx
x ता एक्कहिं विणि मंतीवरेण, तहो रायहो गंदणु हरिवि तेण । माहरणइं लेविणु विहिकरासु, गउ तुरिउ विलासिणिमंदिरासु । ता केण वि घिठे तुरियएण गरणाहहो अग्गई भणिउ । उपलक्खिउ तुह सुउ देव मई सो गवलइँ मंतिएं हणिउ । 2.17
तं वयणुं सुविण सरलबाहु, संतुट्ठउ मंतिहे घरणिणाहु ।. तिहि फहि मज्झ एक्कहो फलासु, गिरहरियउ रिणु मई मइवरासः ।.... प्रवराह बोणि मज्ज वि खमीस, खणि हुयउ पसण्णव परणिईस । ... परियाणिवि मंतिई रायणेहु, णिवणंदणु अप्पिउ विव्ववेहु । 2.18
जिन-प्रतिमा की अचलता से संबंधित एक वर्णन रूढ़ि तब देखने में आती है जब अमितवेग और सुवेग उसे जिन-स्तुति के लिए पर्वत पर रख देते हैं। जिन की वंदन-भक्ति से लौटने पर जब वे उसे उठाने लगते हैं, तब वह अपने स्थान से चलायमान नहीं होती
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ええ
तहि रएन ।
पछिंदें प्रायहँ केरएण, जिर्णावब करावहुँ उ मणिवि प्रभत्तीभरेहि, संगहिय पडिम बेहिमि करेहिं । जिणपासही बहुरयर्णाहं कलीय, उच्चाएवि सा ते संचलीय ।
X
X
X
तर्हि दणहत्ति करेवि बे वि, णियपडिमहिं सम्मुहँ गय वलेवि । तहिँ जाइवि सा पुणु लेहिं जाम, णिययाणहो ण चलइ पडिम ताम । मंजूस करेवि तो भय एहिँ, णिक्खणिवि मुक्क भूमीएँ तेहिँ ।
भारतीय साहित्य में चित्रदर्शन से प्रेमोत्पत्ति की एक दीर्घ वर्णन करकंड चित्रपट को देखकर मुग्ध हो जाता है और उसमें संज्वर और व्याधि के होने लगते हैं
सो भणिय करकण्ड णिवेण, पडु अप्यहि देक्खहुँ सहुँ हिएन । ता तेण समप्पिउ पत्थिवासु, जणु रस्तउ प्रणुराएण जासु । सो पंचवण्णु गुणगणसहंतु, करकण्डई जोयिउ पड़ महंतु । ताहिँ रूउ सलक्खणु तेण बिट्ठ, णं मयणवाणु हियवएँ पइट्ठ । मुहकमल सउहउ दोहसासु, जरु बाहु अरोचकु हुयउ तासु । करडई जोइउ पड़ पवरु थिउ हियवएँ विंभिउ एक्कु खणु । लय कहिय तहो विरहु ते मउलिउ णवणिउ विमणमणु ।
तें काणि जइवरु एक्कु बिट्टु, तहो तोसु महंतउ मणे पठ्ठे । खेलंतु अहेडउ रायउत्तु ता तेत्थु खणों को विपत्तु ।
परम्परा है । चिह्न प्रकट
पंचाणु विसs जहिं समत्थु मई सवणु सुहावउ लघु एत्थु । तहो फलइँ लहेसमि रायलच्छ, भुंजेसमि मेइणि हरियकुच्छि । महो देहि भडारा सवणु एह, लइ भूसणु घोडउ दिव्वदेहु । fararaणदेविएँ तो पुरउ णियविज्जएं णिम्मिउ जं जि तणु । तं. मेल्लिवि कीयउ अवरु पुणु पेक्खतहँ पसरइ जेण: मणु
I
जैन विद्या
5.7
कोक्काइवि मालिउ कुसुमदत्तु, संसएण पपुच्छिउ निविडगत्तु । तुह तणिय बाल कि होइ एह, किं श्रणहो कासु वि कहि सह ।
5.8
3.4
7.1.
7.2
अशुभ कन्या को नदी में बहा देने की भी एक वर्णन रूढ़ि अनेक ग्रन्थों में मिलती है । 'महाभारत' में कर्ण को गंगा में बहा दिया जाता है और 'पउमचरिय' में सीता को मन्दोदरी बहा देती है क्योंकि वह अपने पिता के लिए अशुभ बताई गई है । 'कउ' में पद्मावती को इसी कारण यमुना में बहा दिया जाता है जिसे माली की पत्नी कुसुमदत्ता पकड़ती है । उसमें स्वर्णमयी अंगुली - मोहर लगी है जिस पर उसके माता-पिता का नाम लिखा है ।
• इससे उसके कुलशील की पहचान हो जाती है—
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जनविद्या
त कहिउ गरिंदहो महियलि चंदही घरिणिएँ महो कुसुमत्तई। गंगाजलवाहे सुठु अगाहे पाविय एह मंजूसई ।
सा वि जोइया णिवेण, गाणसायरं गएण । तम्मि दिटु हेमकंतु, अंगुलीउ णामवंतु । ताव तेण सुंदराई, वाइयाई अक्खराई । एह बाल रायधूव, कामगेहु जा वि हूव । कउसंबियरायहो पसरियछायहो वसुपालहो पउमावइ दुहिय ।
इय मण्णिवि राएँ कयप्रणुराएँ सा खणि परिणिय दुहमहिय । 1.7 - अभिप्राय और वर्णन-रूढ़ियाँ साहित्य के प्रमुख तत्त्व हैं । इनका संबंध लोकमनोविज्ञान और लोकरुचि से है । ये काव्य की प्रक्रिया में भी योगदान करते हैं और फलप्राप्ति में भी। इनसे काव्य का प्रमुख प्रयोजन लोकमंगल घटित होता है, विस्मय से ग्रहण
आकर्षक और आनंदप्रद हो जाता है । यह विस्मय साधारणीकरण की प्रक्रिया को अत्यन्त 'सरल बना देता है । इनसे कथानक में प्रवेग भी आता है और विश्रांति भी घटित होती है । जीवन के बदलाव में श्रद्धा और दृढ़ता ही उत्पन्न नहीं होती, रमणीयता भी आ जाती है। लोक की एकता के तो ये प्रमुख साधन हैं और संस्कृति के विकास के ऐतिहासिक साक्ष्य । राष्ट्र के भावात्मक एकीकरण में इनकी माज भी सार्थकता है।
1. कला के वैचारिक और सौंदर्यात्मक पहलू, आब्नेरजीस, पी. प. हा. 1984, पृ. 144।
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अशरण-भावना
पइसरउ, सुरलोउ
अह विवरे सुरगिरिहि आरुहउ, पंजहि तणु बंधवह मिर्त्ताह, पुत्तह सुत्थियउ, ह भरियर परियरउ, उ तेहि
पुणु
बल एउ चक्कहरू, सुरणाहु हे
खयरु ।
जमु वरुणु धरधरणु, ण वि होइ कु वि होइ कु वि सरणु ।
प्रणुसरउ । छुहउ ।
करधरियकुंते हि ।
रक्खयउ ।
धरिउ ।
अर्थ - चाहे गुफा में प्रवेश कर ले, चाहे सुरलोक का अनुसरण करे । चाहे सुमेरु पर चढ़ जाए या अपने शरीर को पिंजड़े में बन्द कर ले । चाहे बन्धु, मित्र एवं पुत्रगण अपने हाथों में भाले लिये बचाते रहें, मन्त्र से रक्षा करते रहें या योद्धाओं के समूह से घेरे रहें फिर भी मृत्यु से बचा नहीं जा सकता। ये भी उसकी रक्षा नहीं कर सकते । बलदेव, चक्रधारी, खगेन्द्र, वरुण, शेषनाग इनमें से कोई भी ( उसका ) शरण नहीं हो सकता ।
करकण्डचरिउ 9.7
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करकंडचरिउ का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन
- डॉ० महेन्द्रसागर प्रचंडिया
मनुष्यगति प्राणी की श्रेष्ठ अवस्था है । इस अवस्था में प्राणी मति, श्रुति, अवधि तथा मन:पर्यय ज्ञान का पूर्ण विकास प्राप्त कर सकता है। इससे भी अगाड़ी जब संयम साधना में प्रवृत्त होकर निवृत्ति की ओर उन्मुख होता है तब ग्राज नहीं तो कल अन्ततोगत्वा एक दिन अवश्य केवलज्ञान को जगाने में समर्थ हो जाता है । इस अवस्था में प्राणी अपने वसुकर्मों को पूर्णतः विनाश कर स्वयं अविनाश रूप में परिणत होता है । मोक्ष पुरुषार्थ तभी चरितार्थ होता है ।
मति र श्रुति ज्ञान के द्वारा वह भव भ्रमण के रूप को समझने का प्रयास करता है । प्राणी जो बाहर से सीखता है उस अर्जित अभिज्ञान को वह दूसरों तक पहुंचाने के लिए प्रातुर उत्कण्ठित रहता है । यही प्रातुरता और उत्कण्ठा उसे अभिव्यक्ति की शक्ति प्रदान करती है । यद्यपि अभिव्यक्ति प्रादमी की स्वयंभू शक्ति है जिसका विकास वह अभ्यास द्वारा सम्पन्न करता है । अभ्यास के प्रभाव में विद्या भी विष हो जाती है— अनभ्यासे विषं विद्या ।
परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बेखरी ये वाणी की चार प्रादिम अवस्थाएँ हैं । 1 'विखरेणु बैखरी' अर्थात् जो अन्तरंग के भाव कण्ठ से निसृत हो बिखर जाएं वे ही बैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेती हैं । आदमी की प्रादिम अभिव्यक्ति काव्यमय रही है । 'कवेरिदं कार्यभावो वा' श्रर्थात् कवि द्वारा जो कार्य सम्पन्न हो, वही वस्तुतः काव्य है । 2 कवि शब्द की कु धातु में प्रच् प्रत्यय जोड़कर व्युत्पत्ति निष्पन्न की गई है । कु का अर्थ है
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जैन विद्या
व्याप्ति अर्थात् सर्वज्ञता। फलस्वरूप कवि सर्वज्ञ है, द्रष्टा है। इसलिए श्रुति में स्पष्ट किया है-कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः । यहाँ परिभूः से तात्पर्य है जो अपनी अनुभूति में सब कुछ समेट ले और स्वयंभू जो अपनी अनुभूति के लिए किसी का भी ऋणी न हो । काव्य उसी मनीषी की सृष्टि है जो स्वयं सम्पूर्ण और सर्वज्ञ है । इस दृष्टि से करकण्डचरिउ एक उत्कृष्ट काव्य है और मुनि कनकामरजी श्रेष्ठ कविर्मनीषी हैं।
काव्य का प्रयोजन विषय पर चर्चा करते हुए काव्यशास्त्रियों ने मूल्यवान् चर्चा की है और इस दृष्टि से स्थापना की कि जहां तक काव्यप्रयोजन का सम्बन्ध है, प्राचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि को अपनाते हुए काव्य को धर्म, अर्थ, और काम के अतिरिक्त मोक्ष का भी साधन बतलाया है । पुरुषार्थ चतुष्टय पुरुष को पूर्णता प्रदान करता है । पूर्णता का अपरनाम सत्य है । कविता का लक्ष्य सत्य की शुभ ज्योति है जिसके द्वारा मनुष्य अपने अस्तित्व को सन्तुलित एवं समन्वित बनाने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार काव्य पवित्रीकृत जीवन है ।
काव्य हृदय और बुद्धि की संश्लिष्टि है। उसे मात्र रसवाद के अन्तर्गत सीमित करना उचित नहीं । यद्यपि आज काव्य को रसमूलक-प्रबन्धकाव्य, भावमूलक गीतिकाव्य तथा परिहासमूलक परिहास अथवा विडम्बना काव्य मानते हैं। स्पष्ट है कि रस एवं भाव काव्य के हृदय पक्ष हैं जबकि विचार तथा परिहास चमत्कार वस्तुतः बौद्धिक पक्ष है । इस प्रकार काव्य तत्त्वों में दो रूप स्थिर किए गए हैं यथा- .
1. भाव पक्ष
2. कला पक्ष
भाव पक्ष में काव्य-कथ्य-कथानक, रसपरिपाक तथा प्रकृति-चित्रण का समावेश रहता है जबकि उसके कला पक्ष में भाषा, शैली, अलंकार, छन्द, रीति, गुण आदि तत्त्वों का सहयोग रहता है।
काव्य के निर्माण में कवि के स्वभाव, संस्कार और देश-काल की परिस्थितियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । काव्य पर तत्कालीन बदलती लोकरुचि का भी प्रभाव पड़ा करता है । इस प्रकार जीवन-पद्धति के अन्तर से काव्य-पद्धति में भी परिवर्तन हो जाता है । युगधर्म और काव्यलेखन में अनन्य सम्बन्ध है । विवेच्य कवि मुनि कनकामर का समय विक्रम की 12वीं शताब्दी है और उनकी एकमात्र काव्यकृति 'करकण्डचरिउ' का रचनाकाल ग्यारहवीं शती का मध्यभाग सिद्ध होता है । करकंडचरिउ पर तत्कालीन प्रचलित सामाजिक प्रवृत्तियों, परम्पराओं तथा साहित्यिक रीति-रिवाजों का प्रभाव परिलक्षित है । यहां काव्यशास्त्रीय निकष पर प्रस्तुत ग्रन्थ का अंकन-मूल्यांकन करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है।
विवेच्य काव्य करकंडचरिउ एक प्रबन्धकाव्य है । इसका मूलकथ्य राजकीय परम्परा से दीक्षित है तथापि उसमें अनेक अवान्तर कथानकों का भी समावेश है। काव्यरूप की दृष्टि से यह एक चरित-काव्य है। अपभ्रंश वाङ्मय में चरिउ-काव्य रचने की पद्धति प्रारम्भ से ही रही है । यद्यपि अपभ्रंश साहित्य में करकण्डचरिउ को खण्डकाव्य की कोटि में रखा
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जैनविद्या
गया है पर यदि इसका काव्यशास्त्रीय दृष्टि से विचार करें तो यह काव्य प्रबन्ध अथवा महाकाव्य की कोटि में परिगणित किया जाना चाहिए। संस्कृत महाकाव्य की परिभाषा निश्चित करनेवाले प्राचीनतम भारतीय आलंकारिक प्राचार्य भामह हैं । उनके अनुसार महाकाव्य लम्बे कथानकवाला, महान् चरित्रों पर प्राघृत नाटकीय पंचग्रन्थियों से युक्त, उत्कृष्ट और अलंकृत शैली में लिखित तथा जीवन के विविध रूपों और कार्यों का वर्णन करनेवाला सर्गबद्ध सुखान्त काव्य ही महाकाव्य होता है । उन्होंने प्राकृत अपभ्रंश के महाकाव्यों के रूप को पारिभाषित कर जो स्वरूप प्रदान किया वह आचार्य दण्डी की परिभाषा के अनुरूप ही है तथापि नवीनता इतनी भर दी है कि उन्होंने लक्षणों को शब्द वैचित्र्य, अर्थ-वैचित्र्य और उभय- वैचित्र्य में रसानुरूप सन्दर्भ, प्रर्थानुरूप छन्द, समस्त लोकरंजकता आदि का होना आवश्यक माना है ।"
आचार्य विश्वनाथ ने पूर्ववर्ती सभी प्राचार्यों के मतों का समाहार करके, पर विशेष रूप से प्राचार्य दण्डी की परिभाषा के आधार पर अपने लक्षरण निर्धारित किए 110 उन्होंने अपनी परिभाषा में महाकाव्य के बाह्य या स्थायी लक्षणों का ही अधिक निर्देश किया है । उन्होंने यह शर्त लगा दी कि महाकाव्य का नायक कुलीन होना चाहिए। आठ या उससे अधिक सर्ग होने चाहिए; वीर, श्रृंगार तथा करुण में से किसी एक रस की प्रधानता होना आवश्यक है । संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के काव्यशास्त्रीय प्राचार्य भामहपर्यन्त प्राचार्य विश्वनाथ तथा हेमचन्द्राचार्य द्वारा निर्धारित महाकाव्य निकष पर यदि सावधानीपूर्वक विचार करें तो मुनिवर श्री कनकामर द्वारा विरचित करकण्डचरिउ एक महाकाव्य प्रमाणित होता है, मात्र खण्डकाव्य नहीं ।
करकंडचरिउ का कथानक राजकीय सम्भ्रान्त परिवार से सम्बन्धित है । इस ग्रन्थ में करकंड महाराज का चरित्र वर्णन किया गया है । कथ्य अथवा कथानक का नायक उक्त गुणों से भिमण्डित है । चरितनायक की कथा के अतिरिक्त प्रवान्तर नौ कथाएं भी वर्णित हैं । काव्य कथ्य का मुख्योद्देश्य चतुर्वर्गफल की प्राप्ति रहा है। स्वयं नायक करकण्ड महाराज जागतिक पूर्ण विकास को प्राप्त करता है और अपनी प्राणप्रिय जनता को सभी सुख-सुविधाएं जुटाता है । वह स्वयं भी बहुविध संघर्षपूर्ण जीवन जीता है, भोगोपभोग भोगता है और जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने पुत्र को राज्य की बागडोर सौंप कर मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर आध्यात्मिक उत्कर्ष में लग जाता है । यह मोक्ष पुरुषार्थं को चरितार्थ करनेवाला आदर्श है । अवान्तर कथाओं में कवि ने किसी न किसी अर्थ अभिप्राय की अभिव्यंजना की है जो मूल कथा को गति प्रदान करती हैं । कथानक रूढ़ियों की दृष्टि से इस काव्य की कथा प्रत्यन्त समृद्ध है । अनेक स्थलों पर मुख्य कथा में लोक कथाओं की भनक मिलती है । 11
विवेच्य काव्य में मानव जगत् और प्रकृति-जगत् दोनों का सजीव वर्णन उपलब्ध है । करकण्ड के दंतिपुर में प्रवेश करने पर नगर की नारियों की हार्दिक व्यग्रता मुखर हो उठती है । काव्य सौष्ठव की दृष्टि से यह वर्णन अत्यन्त रसपूर्ण तथा आकर्षक बन पड़ा है । 12 कवि देश, नगर, ग्राम, प्रासाद, द्वीप, श्मशान श्रादि के वर्णन में भी अत्यन्त पटु है । सरोवर धान्य
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से भरे खेत, कृषक-बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदि का चित्रण सजीवता और सहज स्वाभाविकता का संचार करता है ।13
महाकवि मुनि कनकामर ने विवेच्य काव्य में श्रृंगार, वीर तथा भयानक रसों का बेजोड़ वर्णन किया है । नारी-सौन्दर्य में कवि ने कवि-परम्परा का आश्रय लिया है । परम्परानुमोदित उपमानों का प्रयोग कर नारी के नखशिख का चित्रण किया है । रतिवेगा के विलाप में ऊहात्मकता के दर्शन होते हैं 14 तो वहां संवेदनात्मक कृत्यों का बाहुल्य है । इसी प्रकार मदनावली के सह
ने पर नायक करकंड का विलाप भी पाषाण को पिघला देनेवाला है।15
पात्रों के पुरुषार्थों को कथानक में इस प्रकार चित्रित किया है कि संसार की नश्वरता और अस्थिरता मुखर हो उठी है । यहां काल के प्रभाव से कोई बचता नहीं (9.5) । प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। वह अपने कर्मों के फल को अकेला ही भोगता है । इस शाश्वत सत्य को कवि ने बड़ी प्रभावना तथा मार्मिकता के साथ शब्दायित किया है (9.6)।
विवेच्य काव्य की तृतीय संधि में कवि ने नायक के गंगातीर पहुंचने पर गंगा नदी का मालंबनकारी सजीव चित्रण किया है । गंगाधारा भुजंग की महिला, हिमवंत गिरीन्द्र की कीर्ति जैसे सभी उपमानों के आरोपण से मानवीकरण साकार हो उठा है। अगणित भक्तों द्वारा स्नान तथा आदित्य जलाकर्षण से गंगा स्वयं अनुभव करने लगी मानो मैं शुद्ध हूं, स्वमार्गी हूं अतः मेरे ऊपर रुष्ट न होइएगा। गंगा-वर्णन जहाँ एक अोर आलम्बनकारी प्रकृति-चित्रण करने में कवि की पटुता प्रमाणित करती है वहाँ दूसरी ओर लक्षणा तथा व्यंजना शक्तियों का. स्वाभाविकतापूर्ण अद्भुत प्राकलन द्रष्टव्य है (3.12) ।
विवेच्य कृति को दश संधियों/सर्गों में विभक्त किया गया है। विविध धर्मों में समादृत महाप्रतापी सच्चरित्र महाराज करकंड के चरित को सम्पूर्ण रूप से चित्रित किया गया है जिसमें सरसता है, सुबोधता है और है गजब का आकर्षण । इस प्रकार अभी तक करकंडचरिउ को खण्डकाव्य निरूपित किए जाने पर आश्चर्य होता है। मानवी कल्याण तथा पुरुषार्थ चतुष्टय का क्रमिक विकास व्यक्त करनेवाले चरित्रप्रधान काव्य को धार्मिक संज्ञा दे कर साहित्यिक सिंहासन से उतारना काव्यशास्त्रीय विवेचना की विडम्बना नहीं तो और क्या है ? करकंडचरिउ एक विशुद्ध प्रबन्ध तथा महाकाव्य है जिसके प्रभाव से उत्तरवर्ती काव्य-परम्परा अनुप्राणित है। सन्तोष की बात यह है कि प्रो. नामवर सिंह इसे प्रबन्धकाव्य तो स्वीकारते हैं। दश संधियों के इस प्रबन्धकाव्य के तीन चौथाई भाग में करकंड की मुख्य कथा है और शेष चौथाई भाग में नौ अवान्तर कथानों का कलेवर है। इन अवान्तर कथानों में से एक कथा नरवाहनदत्त की है जो संस्कृत में प्रचलित कथा से थोड़ी भिन्न है। ये अवान्तर कथाएं राजा को नीति की शिक्षा देती हैं और इसीलिए कवि ने इन्हें काव्य में समाहित किया है ।18 यह सच है कि इन अवान्तर कथानों को हम बोधकथाएं भी कह सकते हैं पर काव्य में उन्मार्ग से हटकर
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सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के प्रयोजन के लिए चरित्र-चित्रण की इस परम्परानुमोदित पद्धति का अनुमोदन करना भी कवि को इष्ट रहा है। इससे कथोत्कर्ष में कोई बाधा नहीं पड़ती है।
सम्भ्रान्त कथावृत्त के साथ ही कविवर ने प्रकृतिवर्णन में भी उदारता से काम लिया है । काव्य में प्रकृतिवर्णन प्रायः तीन प्रकार से किया गया है यथा
1. आलम्बन रूप में, 2. उद्दीपन रूप में और 3. आलंकारिक रूप में ।
उल्लेखनीय बात यह है कि कवि ने विवेच्य 'करकंडचरिउ' में प्रकृति-वर्णन तीनों ही प्रकार से किया है । समुद्र वर्णन (71.0-12) जम्बूद्वीप वर्णन, भरतक्षेत्र वर्णन, गंगा-जमुना वर्णन (1.3) श्मशान वर्णन (1.3) भीषण वन वर्णन, (4.5) सरोवर वर्णन (4.7) आदि प्रथम कोटि के प्रकृति-वर्णन के उदाहरण हैं । चौथी संधि में राजा के पश्चात्ताप प्रकरण में प्रकृति का उद्दीपनकारी वर्णन द्रष्टव्य है (4.15) । इसी प्रकार पांचवी संधि में मदनावलि के अपहरण प्रकरण में करकंड के विलाप-संदर्भ में प्रकृति का उद्दीपनकारी वर्णन उल्लेखनीय है (5.15)।
जहां तक प्रकृति के प्रालंकारिक रूप में वर्णन का प्रश्न है, कवि ने इस कोटि का वर्णन भी किया है। भावोत्कर्ष की दृष्टि से यह वर्णन कवि ने अवश्य किया है किन्तु पांडित्य प्रदर्शन की कामना से वह कोसों दूर रहा है । उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग में नाना प्रकृतितत्त्वों का उपयोग किया गया है।
जहाँ तक रसयोजना का प्रश्न है विवेच्य काव्य में शृंगार और वीर रस प्रधान रसों के रूप में निष्पन्न हुए हैं। इनके सहकारी रसों में भयानक, वीभत्स तथा शान्त रसों का उद्रेक दर्शनीय है। रानियों के रूप-सौन्दर्य और नारी के नखशिख वर्णन में संयोग शृंगार तथा वियोगावस्था में विप्रलम्भ शृंगार रस का सुन्दर पारिपाक हुआ है। तीसरी संधि में आक्रमणकारी संन्यप्रकरण तथा करकंड और चम्पाधिप का युद्धप्रसंग वीररसोद्रेक के लिए उल्लेखनीय है (3,13,16)। इसी संधि में भीषण संग्रामसंघर्ष में वीभत्स रस का उद्रेक द्रष्टव्य है (3.15) । जहाँ तक शान्त रस के उद्रेक का प्रश्न है कवि ने नायक के वैराग्य-भाव-प्रसंग में शान्तरस की गंगा बहाई है (9.4) । यहीं पर चतुर्थ पुरुषार्थ का समारम्भ होता है ।
इस प्रकार भाव पक्ष की दृष्टि से यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि कवि ने प्रस्तुत काव्य में उन सभी तत्त्वों का स्वाभाविक रूप में प्रयोग किया है जो एक सफल महाकाव्य अथवा प्रबन्धकाव्य के लिए अपेक्षित होता है ।
भाषाभिव्यक्ति में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। करकंडचरित्र की भाषा अपभ्रंश है । महाकवि स्वयंभू तथा पुष्पदन्त की साहित्यिक तथा शुद्ध अपभ्रंश की अपेक्षा मुनि कन
ने तत्सम, तदभव तथा देशज शब्दों के साथ-साथ लोकप्रिय तथा सरल लोकोक्तियों का प्रयोग किया है । आपकी भाषा को समझने के लिए अपभ्रंश भाषा की सामान्य किन्तु मावश्यक प्रवृत्तियों की ओर ध्यान देना अनिवार्य है। अपभ्रंश में संस्कृत की भांति श, ष
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का प्रयोग नहीं है । यहां दन्ति 'स' से काम चलाया जाता है । अपभ्रंश में रेफ का प्रयोग प्राय: नहीं होता। सामान्य शब्द का सामान्य रूप ही व्यवहृत है। यथा इन्द्र-इंद। परम्परागत रूढप्रयोग में न के स्थान पर ण का प्रयोग परिलक्षित है यथा-विनाश-विणास, शरण-सरण निवास-णिवास आदि । ख, घ महाप्राण के स्थान पर ह का प्रयोग द्रष्टव्य है यथा-क्रोध-कोह, भवति-होई, महोदधि-महोवहि तथा दुःख-दुह आदि। स्वर भक्ति द्वारा संयुक्त वर्ण का सरलीकरण किया गया है यथा-श्री से सिरि, भव्य से भविय आदि । संयुक्त व्यंजन के समीकरण में किसी एक का लोप होना हुआ है तथा स्वर का हस्व-दीर्घत्व आदि भेद परिलक्षित हैं यथास्सरामि से सरमि, देवेन्द्र से देविंद, फणीन्द्र से फणिद तथा नरेन्द्र से नरिंद आदि । णत्व तथा सत्व रहित अथवा सहित मध्य व्यंजन का लोप होकर य अथवा व श्रुति होना द्रष्टव्य है यथादिनकर से दिनयर, अनुपम से अणुवम, भुजंगम से भुवंगम आदि प्रयोग परिलक्षित हैं। प्राकृत की प्रथमा विभक्ति 'ओ' अपभ्रंश में लघु प्रयत्नपूर्वक 'उ' हो जाती है। इसी प्रकार प्राकृत की षष्ठी 'स्स' अपभ्रंश में 'हो' हो जाती है । यथा-जिणवरस्स से जिणवरहो, णमंतस्स से णमंतहो तथा सुमरंतस्स से सुमरंतहो आदि ।
मुनिवर कवि कनकामर दिगम्बर जैन तपस्वी रहे हैं। दिगम्बर मुनि सदा पदयात्री होते हैं । ऐसी स्थिति में लोकध्वनि का उन्हें बारीकी से परिचय रहा है। यही कारण रहा है कि कवि ने भाषा को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भावानुरूप शब्दों का प्रयोग किया है । रतिवेगा-विलाप में यह रूप विशेषकर उभरकर आया है ।" ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग से भाषा में लालित्य का सामंजस्य हुआ है।18 कवि की भाषा की अन्यतम विशेषता रही है कि थोड़े से शब्दों द्वारा सजीव तथा सुन्दर चित्र प्रस्तुत करने में अपूर्व सफलता की प्राप्ति । नरवाहनदत्त के पत्नी-वियोग के भ्रमण-प्रसंग में कवि ने पत्ता छन्द में जो प्रयोग किया है वह उल्लेखनीय है ।19
___ काव्य की भावधारा यदि मंत्र है तो उस मंत्र को प्रकाशिका विधि का अपना तंत्र भी होता है। यह तंत्र ही काव्य को जिस पद्धति, ढंग अथवा रूप में प्रस्तुत किया जाता है, काव्यशास्त्र में शैली कहलाता है जिसका मादिम अभिप्राय रीति शब्द में व्यंजित है। प्राचार्य वामन ने रीति को विशिष्ट पदरचना कहकर परिभाषित किया है ।20 वैदर्भी, गौड़ीय और .पांचाली ये रीतियों के तीन गुण-भेद हैं उनमें क्रमशः प्रोज-प्रसाद, प्रोज-कांति तथा मधुरतासुकुमारता का प्राधान्य रहता है। विवेच्य काव्य में इन तीनों रीतियों का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । वीर रसात्मक प्रसंग में वैदर्भी, शृंगार में गौड़ीय तथा पांचाली का उपयोग बन पड़ा है।
विवेच्य काव्य मूलतः चरितकाव्य है। परम्परानुमोदित कवि रूढ़ियों का प्रयोग भी यहां द्रष्टव्य है । काव्य का प्रारम्भ वेदना से होता है जिसमें माराध्यदेव के गुणों को स्मरण कर उनकी पूजा की गई है और काव्य निर्विघ्न समाप्त हो, ऐसी भावना भी की गई है। इसके उपरान्त कवि द्वारा उसका विनय वैशिष्ट्य भी अभिव्यक्त हुआ है । पूरा काव्य कडवक शैली में रचा गया है जिसमें विभिन्न छन्दों के उपरान्त एक घत्ता छन्द दिया गया है। सर्ग
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के स्थान पर संधि शब्द का प्रयोग हुआ है । पूरा काव्य कथानक दश संधियों में विभक्त है । कवि यथास्थान लोकविख्यात उक्तियों, सूक्तियों का भी सफलतापूर्वक प्रयोग करता है । द्वितीय संधि में राजा सरलवाहु की कृतज्ञता प्रसंग में गौरवशाली पुरुषों का संग करनेवाला मनुष्य मनचाही सम्पत्ति प्राप्त करता है । 21 तीसरी संधि में कथानायक करकंड के रोष-प्रसंग में बिना सेवा के एक हस्तमात्र मेदिनी भी भोगने के लिए नहीं मिल सकती 122
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विवेच्य काव्य में अनेक छन्दों का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । इस दृष्टि से पज्झटिका छन्द का प्रयोग द्रष्टव्य है । इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएं होती हैं । अन्त में जगण अर्थात् लघु, गुरु और लघु मात्राएं होती हैं । प्रत्येक चरण में परस्पर तुक का विधान रहता है। एक कड़वक का अन्त घत्ता छन्द से किया गया है । ग्रन्थ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में एक छन्द ध्रुवक का व्यवहृत है । इसके अतिरिक्त करकंडचरिउ में डिल्लह, पादाकुलक, समानिका, तणक, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, भ्रमरपदा, चित्रपदा, प्रामाणिका, चन्द्रलेखा आदि अपभ्रंश छन्दों का प्रयोग परिलक्षित है । पदयोजना में छन्द प्रवाह की सहायता करता है । इस दृष्टि से काव्य में नाना छन्दों का प्रयोग सर्वथा समीचीन कहा जायगा । भावों के ही अनुरूप छन्दों का परिवर्तन, कवि की छन्द विषयक मनोवैज्ञानिकता श्लाघनीय है ।
काव्याभिव्यक्ति में अर्थ उत्कर्ष के लिए अलंकारों की भूमिका उल्लेखनीय होती है । कवि ने वस्तु के स्वरूप को सर्वसाधारण के योग्य सरल बनाने के लिए शब्द तथा अर्थ दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है । इस दृष्टि से उत्प्रेक्षा, यमक, परिसंख्या, श्लेष तथा अनुप्रास नामक अलंकारों के प्रयोग उल्लेखनीय हैं। उपमा और रूपक परम्परानुमोदित है । उपमानों में जहां एक ओर कमल और चन्द्रमा रूढ़ि प्रयोग व्यहृत है वहां कवि ने नए उपमानों को भी गृहीत किया है जिसमें कवि की वस्तु-निरीक्षण की शक्ति प्रमाणित हो जाती है । इस दृष्टि से नवीं संधि में प्रनित्य भावना के प्रसंग में कहा है कि गज- कर्ण के समान लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती । देखते ही देखते वह टरक जाती है । जिस प्रकार पारा हथेली पर रखते ही गलेइ अर्थात् गल जाता है उसी प्रकार लक्ष्मी विरक्त होकर एक क्षण में चली जाती है 123
काव्य में उपमा के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है । जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र और अंगदेश का वर्णन करते हुए कवि ने उत्प्रेक्षा की है कि यहां की नहरों के जल में कमलों की पंक्ति प्रति शोभायमान होती हैं मानो मेदिनी हंस उठी हो | 24 तीसरी सन्धि में करकंड की सेना गंगा तट पर पहुंचती है । नायक गंगा के दर्शन करता है । गंगा का श्वेत जल अपनी कुटिल धारा से इस प्रकारे सुशोभित हो रहा था मानो कोई श्वेत सर्पिणी जा रही हो । 25 इसी प्रकार आठवीं संधि में वियोगियों के पुनर्मिलन के उदाहरण प्रसंग में रतिवेगा को राजा अरिदमन का चरित्र सुनाते समय अवंति देश की शोभा वर्णन करते हुए उत्प्रेक्षा की गई है कि ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वर्ग का एक टुकड़ा टूट कर श्रा पड़ा हो 126
कवि ने तीसरी सन्धि में चम्पा की सेना की तैयारी के प्रसंग में वर्णन किया है कि कोई वीर संग्रामभूमि में अनुरक्त स्वर्गिणी स्वर्गवासिनी अप्सरानों के प्रभीष्ट मार्ग को
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प्राप्त हुए हैं । श्लेष से कवि ने स्रग्विणी छन्द का भी नाम निर्देश किया है जिसमें उसने रचना की है। इसी प्रकार दसवीं सन्धि में वागदत्ता और ब्राह्मणकुमार के पाप तथा वणिक् के वैराग्य विवरण में कवि द्वारा श्लेष अलंकार का विरल प्रयोग द्रष्टव्य है । वह कहता हैइतने में ही सूर्य अस्ताचल पर पहुंच गया और बहुत प्रहरों-प्रहारों से सूर-सूर भी सो गया है ।28
श्लेष की भांति कवि ने यमक अलंकार का भी प्रयोग किया है । नवीं सन्धि में एकत्व भावना के वर्णन-प्रसंग में कवि ने स्पष्ट किया है कि जीव का कोई सच्चा सहायक नहीं है। धन भी घर के बाहर एक पग भी साथ नहीं चलता, जीव अकेला ही धम्म और पाउ का फल भोगता है । यहां प्रथम पाउ का अर्थ है पर और दूसरे पाउ का अर्थ पाप से लगाया है ।29
कवि ने परिसंख्या अलंकार का प्रयोग अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से किया है। प्रथम संधि में धाड़ीवाहन राजा का वर्णन करता हुमा कवि कहता है कि उसका हाथ धन देने के लिए पसरता था, किन्तु उसका धनुष प्राणी का वध करने के लिए सरसंधान नहीं करता था।30
इस प्रकार भाव अर्थात् कथ्य-कथानक, प्रकृतिचित्रण, रसपरिपाक तथा कलापक्ष अर्थात् भाषा, शैली, छन्द, अलंकार आदि काव्यशास्त्रीय तत्त्वों की दृष्टि से कवि का वस्तुतः महत्त्वपूर्ण स्थान है। करकंडचरिउ काव्य में जहां एक ओर प्राणी के कल्याणार्थ धार्मिक तत्त्वों का सम्यक निरूपण किया गया है, वहां इसकी अोर कवि ने साहित्यिक तत्त्वों का भी सरस उपयोग किया है। करकंडचरिउ में बहुमुखी प्रतिभा का अद्भुत सम्मिश्रण है, वहां धर्म भी है तो उसको धारण करने की अद्भुत कला भी है, रसज्ञता भी है ।
कविवर मुनि कनकामरजी ने करकंडचरिउ की रचना मानव-कल्याणार्थ और आत्मोन्नति के लिए की है । जहां एक ओर मनीषियों ने उसे धर्म ग्रन्थों की कोटि में रखा है वहां दूसरी ओर शास्त्रियों ने उसे मंच पर भी प्रतिष्ठित किया है।
1. हिन्दी का बारहमासा साहित्य उसका इतिहास तथा अध्ययन, शोध प्रबंध-पी. एच. डी.,
आगरा विश्वविद्यालय, 1962, द्वितीय अध्याय, डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया। 2. मेदिनी कोष, काव्य तथा कवि प्रकरण । 3. श्रुति, आयुर्वेद, उत्तर अध्याय 40, सूत्र 8 । 4. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सं.-डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, पृ. 229 । 5. करकंडचरिउ, प्रस्तावना, पृष्ठ 11-12 । 6. तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य परम्परा, भाग 4, डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री,
पृष्ठ 161 । 7, अपभ्रंश साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड़, पृष्ठ 181 ।
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8.
काव्यालंकार, 1-19-21, प्राचार्य भामह ।
9. पद्मं प्रायः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशग्राम्यभाषानिबध्दभिन्नान्त्य वृत्त सर्गाश्वाससन्धयवय
स्कन्धबंधं सत्संधिशब्दार्थवचित्र्यो हं महाकाव्यं ।
10. साहित्य दर्पण, 6-315-328, श्राचार्य विश्वनाथ ।
11.
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृष्ठ 221, डॉ. नावमरसिंह | 12. तहिं पुरवरि खुहियउ रमणियाउ, झाणट्ठिप्रमुणिमणदमणियाउ । कवि रहसइँ तर लिय चलिय णारि, विहडफ्फड संठिय का वि वारि ॥ कवि धावs णवणिवणेहलुद्ध, परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध । कवि कज्जलु बहलउ प्रहरे देइ, जयणुल्लएँ लक्खारसु करेइ । friथवित्ति कवि श्रणुसरेइ, विवरीउ डिंभु के वि कडिहिँ लेइ । कवि उरु करयलि करइ बाल, सिरु छंडिवि कडियले घरइ माल । यिद मणिविक वि वराय, मज्जारु ण मेल्लइ साणुराय । कवि घाव णवणिउ मणे घरंति, विहलंघल मोहइ घर सरंति । कवि माणमहल्ली मयणभर करकंडहो समुहिय चलिय । थिरथोरपनोहरि मयणयण उत्तत्तणयछवि उज्जलिय || करकंडचरिउ, 3.2
13.
- काव्यानुशासनं, अ. 6, हेमचन्द्राचार्य ।
दीवाण पहाण हिं दीवदीवे, जंबू दुमलंछिए जंबुदीवे । जहिँ सारणिसलिलि सरोयपंति, अहरेहइ मेइणि णं हसंति ॥
क. च.
1.3
33
14. जा
णरपंचाणणु वियसियाण जलि पडिउ । हउ बोल्लिसु तइयहुँ मिलिहइ जइयहुँ मज्भु पइ ॥ 15. प्रवासहो श्रावइ जाव राउ, मयणावलि णउ पेच्छह वि ताउ । जोses चउद्दिसु हिययहीणु, उब्वेविरु हिंड महिहे वीणु । ता संकिउ णरवइ गलियगव्वु, कहिँ गउ कलत्तु सव्वंगभव्वु । मयणावलि जा श्राणंदभूत्र, सा एवहिं किं विवरीय हू । ता पेसिय किंकरवर णिवेण, अवलोवहु सामिणि दिसिवहेण । जोएवि विसिहिं प्रागय वलेवि, पुक्कारहिं उभा कर करेवि । ता राएँ देक्खिवि ते रुवंत, परिमुक्क श्रंसु णयणहिं तुरंत । हे पयवय तुहुँ सवणाणुबंधु, महु प्रक्खहि सुंदरि रोहबंधु । हा मुद्धि मुद्धि तुहुँ केण णीय, किं एवहिं ल्हिक्किवि कहिँ मिठीय । हा कुंजर कि तुहुँ जमहो वउ, कि रोसइँ महो पडिकूल हूउ । धत्ता - चिर मोहु वहंत को वि हियइँ लडहरुउ अग्गई हुयउ । विज्जाहरु प्राय सो वि तहिं विज्जासायरपाद गड़ ।। 5.15
7.11
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16. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ 211... 17, सव्वंगे कंपिय, चित्ति चमक्किय मुच्छ गया ।
कियचमरसूवाएं सलिल . सहाएं. गुण, भरिया । .
हउँ बोल्लिसु तइयहुँ मिलिहइ जहयहुँ मज्भु पइ ॥ 7.11 18. महि हल्लिय चल्लिय गिरिवरिंद, कंपंत पणट्ठा खे सुरिंद।
लोलाविय धय णिवणरवरेहि, महि गच्चइ ण उम्भिय करेहिं । 4.2 19. मुहकमल करती करकमले, अंगुलिएं लिहंती घरणियलु ।
कोमलवयणपउत्तियहि सा परिपुच्छिय मई सयलु । 6.9 10 20. हिन्दी साहित्य कोश, भाग प्रथम, पृष्ठ 659, सं.-डॉ. धीरेन्द्र वर्मा। . 21. गुरुप्राण संगु जो जणु बहेइ, हियइच्छिय संपइ सो लहेइ। 2.18.7 22. विणु केरई लम्भइ गाहि मित्त, एह मेइणि भुजहुँ हत्यमेत्त। 3.11.1 23. करिकण्ण जेम थिर कहिं ण याइ, पेक्खतहँ सिरि णि ण्णासु जाइ। 9.6.5 24. जहिं सारणिसलिलि सरोयपंति, अहरेहइ' मेइणि णं हसंति। 1.3.10 25. सा सोहइ सियजल कुडिलवंति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति। 3.12.6 26. एत्थत्यि अवंती णाम देसु, णं तुट्टिवि पडियउ सठगलेसु । 8.1.6 27. के वि संगामभूमीरसे रत्तया, · सग्गिणीछंदमग्गेणसंपत्तया । 3.14.8 28. ता एत्तहिं रवि अत्थइरि गउ, बहुपहरहिं रणं सूर वि सुयउ । 10.9.4. 29. धणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ, एक्कल्लउ भुंजइ धम्म पाउ। 9.9.4 30. षणु देवएं पसरह जासु कर, गउ पाणिवहेम्बई धरइ सरु। 1.5.5
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करकंडुचरित विषयक जैनसाहित्य
—डॉ० कपूरचन्द जैन
- डॉ० (श्रीमती) ज्योति जैन
करकंडु महाराज का चरित्र श्रमणधारा की जैन और बौद्ध दोनों तथा जैन परम्परा की दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्परात्रों में समादृत है । बौद्ध तथा श्वेताम्बर साहित्य में करकंड प्रत्येकबुद्ध के रूप में वरिंगत है तो दिगम्बर साहित्य में मुक्तिवधु का वरण करनेवाले एक विशेष व्यक्ति के रूप में चित्रित है ।
बौद्ध और श्वेताम्बर साहित्य में प्रत्येकबुद्धों का चरित्र विशदता से चित्रित हुआ है । दिगम्बर साहित्य में प्रत्येकबुद्ध का लक्षण तो प्राप्त होता है किन्तु किसी प्रत्येकबुद्ध का नाम या चरित संभवतः प्राप्त नहीं होता । तिलोयपण्णत्ति में प्रत्येकबुद्धि ऋद्धि की परिभाषा दी गयी है जिसके अनुसार जिस ऋद्धि के द्वारा गुरूपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यक् ज्ञान और तप के विषय में प्रगति होती है वह प्रत्येकबुद्धि ऋद्धि कहलाती है ।
सर्वार्थसिद्धि में प्रत्येकबुद्ध का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि अपने शक्तिरूप निमित्त से होनेवाले ज्ञान के भेद से प्रत्येकबुद्ध होते हैं । 'स्वशक्तिपरोपदेशनिमित्तज्ञान मेदात् प्रत्येकबुद्ध बोधितविकल्पाः | २
श्वेताम्बर साहित्य के अनुसार प्रत्येकबुद्ध वे कहलाते हैं जो गृहस्थी में रहते हुए किसी एक निमित्त से बोधि प्राप्त कर ले और अपने श्राप दीक्षित हो, बिना उपदेश किये ही
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मोक्ष चले जायं । ये गच्छवास में नहीं रहते और प्रायः एकल-विहारी होते हैं । इनकी संख्या के संदर्भ में विवाद है । उत्तराध्ययन सूत्र में चार प्रत्येकबुद्धों का उल्लेख हुआ है । ऋषिभाषित सूत्र में 45 प्रत्येकबुद्धों के उपदेश संगृहीत हैं । नन्दिसूत्र के अनुसार श्रौत्पातिकी, वैनायिकी कार्मिकी, पारिणामिकी बुद्धि से युक्त जो मुनि होते हैं वे प्रत्येकबुद्ध कहलाते हैं । इस प्रकार अनंत प्रत्येकबुद्ध माने गये हैं किन्तु उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लिखित करकंडु, नग्गई, नमि और दुर्मुख पर ही प्रभूत साहित्य रचा गया है । यद्यपि कुम्मापुत्र, अम्बड, शालिभद्र प्रादि पर भी रचनाएं प्राप्त होती हैं पर वे अत्यन्त न्यून हैं ।
बौद्ध साहित्य के पिटकों की परम्परानुसार दो प्रकार के बुद्ध बताये गये हैं । सम्यक्सम्बुद्ध और प्रत्येकबुद्ध । जो समस्त धर्मों को सम्यक् रूप से जान लेता है उसे सम्यक्सम्बुद्ध कहा जाता है । प्रत्येकबुद्ध आधुनिक विद्वानों के अनुसार मौनबुद्ध हैं, अतः ऐसे बुद्ध अनाचर्यक भाव से प्रत्येक सम्बोधि को प्राप्त किये रहते है पर धर्मोपदेश नहीं करते । वे स्वयं तीर्ण रहते हैं पर जनसमूह के तरणार्थ धर्मशासन की स्थापना नहीं करते । अभिधर्मकोष भाष्य में कहा गया है-'विनोपदेशेनात्मनमेकं प्रतिबुद्धा इति प्रत्येकबुद्धाः' ।'
इसी प्रकार चुल्लनिदेस में प्रत्येकबुद्ध को नौ कारणों से एकल-विहारी कहा गया है। उनकी सम्बोधि के संदर्भ में कहा गया है कि वे दो असंख्येय एक लाख कल्प तक पारमिताओं की परिपूर्ति कर प्रत्येक सम्बोधि को प्राप्त करते हैं । बौद्ध साहित्य में इन प्रत्येकबुद्धों की निश्चित संख्या नहीं बतायी गयी है । करकंड का बौद्ध साहित्य में प्रत्येकबुद्ध के रूप में वर्णन तो हुआ है पर जैन साहित्य जैसी कथा वहां प्राप्त नहीं है, मात्र इतनी समानता है कि करकंडु एक वृक्ष को देखकर राजपाट त्यागकर वन में चले जाते हैं और बुद्धत्व प्राप्त करते हैं।
___ करकंडचरित विषयक साहित्य के विवेचन से पूर्व करकंड की कथा को सामान्य रूप से संक्षेप में जान लेना असमीचीन नहीं होगा ।
करकंड की कथा तीन रूपों में उपलब्ध होती है-दिगम्बर परम्परानुसार, श्वेताम्बर परम्परानुसार और बौद्ध परम्परानुसार ।
बौद्ध परम्परा में कुम्भकार जातक में करकंड या करंडु राजा की कथा इस प्रकार है
बनारस नगरी में राजा ब्रह्मदत्त के शासनकाल में बुद्ध ने कुम्भकार के घर में जन्म लिया । तभी कलिंग देश के दन्तिपुर नगर के राजा करकंड सपरिवार उद्यान में गये। वहां उन्होंने आम्रवृक्ष से एक पका आम तोड़ा । तत्पश्चात् साथ में आये सभी जनों ने आम्रफलों को तोड़ा । करकंड ने उस फलहीन आम्रवृक्ष को तथा पहिले से ही फलरहित आम्रवृक्ष को देखकर विचार किया-'गृहस्थ धर्म उस फलित वृक्ष के समान है जिसकी दुर्गति होती है किन्तु प्रव्रज्या उस फलहीन वृक्ष के समान है जिसे कहीं से किसी अनिष्ट का भय नहीं है । मैं भी
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इसी के सदृश बनूं ।' ऐसा सोच वे राजपाट त्याग वन में चले गये और बुद्धपद प्राप्त किया। .
जातक में कलिंग के करण्डराय के अतिरिक्त गंधार के नग्गजी, विदेह के निमिराज और पांचाल के दुम्मुख के भी कथानक हैं और अन्त में यह गाथा कही गयी है
करण्ड नाम कलिंगानं गंधारानं च नग्गजी । निमिराजा विदेहानां पंचालानं च दुम्मुखो ॥
एते रटानि हित्वान पजिसु अकिंचना ॥ उक्त संदर्भ को उत्तराध्ययन सूत्र के पीछे दिये गये संदर्भ (संदर्भ संख्या 4) से मिलाकर देखें तो नामों में बड़ी समानता है।
करकंड की दूसरी कथा उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार देवेन्द्रगणी ने अपनी सुखबोधा टीका में कही है जो इस प्रकार है
चम्पानगरी में दधिवाहन राजा तथा पद्मावती रानी राज्य करते थे। दोहला होने पर रानी-राजा हाथी पर बैठ कर नगर सैर को गये पर हाथी उन्हें लेकर जंगल में चला गया । एक वटवृक्ष के नीचे से निकलते समय राजा ने उस वृक्ष की शाखा को पकड़ लिया और दुःखी हो अपने नगर लौट पाया । उधर रानी ने हाथी के एक तालाब में घुसने पर दंतपुर नगर के समीप साध्वियों के आश्रम में प्रव्रज्या ग्रहण कर ली पर गर्म की बात नहीं बतायी । गुप्तरूप से प्रसव करके बालक को कम्बल में, लपेटकर नाममुद्रा लगाकर श्मशान में डाल दिया। श्मसान रक्षक ने उसे अपनी पत्नी को दे दिया । बालक के बड़े होने पर उसे सूखी खुजली होने से उसका नाम करकंड पड़ गया ।
एक बार श्मशान में आये दो मुनिराजों में से एक ने कहा कि सामने का बांस चार अंगुल बढ़ने पर जो उसे लेगा वही राजा होगा। करकंड ने यह बात सुन ली और किसी प्रकार विजों से बचाकर बांस को लेकर कंचनपुर गया। वहां का राजा निःसंतान मर गया था अतः घोड़ा छोड़ा गया, जिसने करकंड की प्रदक्षिणा की। अतएव नागरिकों ने करकंडु को राजा बना दिया ।
करकंडु ने चंपा के राजा के पास एक गांव देने के लिए एक ब्राह्मण भेजा । मना करने पर करकंड ने चंपा पर चढ़ाई कर दी। पता चलने पर पद्मावती (करकंड की मां) ने पिता-पुत्र का मैल कराया । दधिवाहन दोनों राज्य देकर प्रवजित हो गये ।
करकंडु ने एक वृषभ को दूध पिलाने का आदेश देकर सांड बनाया, अंत में उसके जीर्ण हो जाने पर उसे देख करकंड को बड़ा विषाद हुआ, उसने सोचा संसार में सब अनिश्चित
और अस्थिर है, इष्टजनसंगम भी चिरस्थायी नहीं, यह सोचता हुआ वह प्रत्येकबुद्ध हो गया। ' उसने पंचमुष्टि केशलोंच किया और देवता द्वारा दिये गये वेष से लोक में विहार करने लगा।
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करकंडु की तीसरी कथा दिगम्बर-परम्परा-मान्य कथा है । इसका मूल आधार कनकामर मुनि कृत करकंडचरिउ है । कथा इस प्रकार है
अंगदेश की चम्पापुरी नगरी में धाड़ीवाहन राजा राज्य करते थे जिनकी रानी का नाम पद्मावती था। रानी को दोहला होने पर राजा उसके साथ हाथी पर बैठ नगर भ्रमणार्थ निकला, पर हाथी उन्हें जंगल में ले गया। रानी के समझाने पर राजा एक पेड़ की डाल पकड़कर बच गया और नगरी में आ गया। रानी भी हाथी के तालाब में घुसने पर, उतरकर वन में भागी। रानी के प्रवेश से वह वन हरा-भरा हो गया। फलतः माली ने उसे बहिन बनाकर रखा पर मालिन द्वारा घर से निकाले जाने पर रानी श्मशान में आयी और वहीं उसने एक पुत्र को जन्म दिया।
रानी के पुत्र को चांडाल के रूप में शापग्रस्त एक विद्याधर ले गया । बड़ा होने पर उसने उसे सभी विद्याओं व कलानों में पारंगत किया। हाथ में कण्डू अर्थात् सूखी खुजली होने से उनका नाम करकण्डु रखा । दंतपुर के राजा के निःसंतान मरने पर हाथी द्वारा करकण्डु का अभिषेक किये जाने के कारण करकंडु राजा बन गया। विद्याधर शाप से मुक्त हुआ । उसे अपनी ऋद्धियां पुनः प्राप्त हो गयीं।
करकंडु का मदनावली से विवाह होने पर चम्पानगर के राजा का दूत पाया और उसने चम्पा नरेश के आधिपत्य को स्वीकार करने का निवेदन किया । प्रस्ताव अस्वीकार करने पर दधिवाहन और करकण्डु के मध्य युद्ध हुआ तब पद्मावती ने पाकर पिता-पुत्र का मिलन कराया। दधिवाहन ने अपना राज्य करकंडु को सौंपा और वे प्रवजित हो गये ।
करकंडु ने दक्षिण भारत विजयार्थ प्रस्थान किया। रास्ते में तेरापुर नगर के पास एक गुफा में भगवान् पार्श्वनाथ के दर्शन किये । गुफा में एक गांठ के खुदवाने पर जलप्रवाह निकला। विद्याधर ने पाकर उस प्रवाह को रोका और गुफा का इतिहास बताया तथा एक
और गुफा बनवायी । एक विद्याधर हाथी का रूप बनाकर मदनावली को हर ले गया । एक अन्य विद्याधर के समझाने पर और पुनर्मिलन का प्राश्वासन पाने के बाद वे आगे बढ़े।
करकंड ने सिंहलद्वीप की राजपुत्री रतिवेगा और समुद्र की विद्याधरी से विवाह कर चोल, चेर और पाण्ड्य नरेशों को जीता । लौटते समय तेरापुर में मदनावली से पुनमिलन हुआ।
शीलगुप्त मुनि से तीन प्रश्न करने और उनका उत्तर पाने पर करकण्डु राजा ने वैराग्य धारण किया और वे पुत्र को राज्य दे मुनि हो गये । रानियों ने भी उनका अनुकरण किया। करकण्ड ने घोर तपस्या कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया।
श्वेताम्बर साहित्य में करकंड प्रत्येकबुद्ध के रूप में समादृत हैं यहां प्रत्येकबुद्धचरित्र विषयक साहित्य का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है ।
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प्रत्येकबुद्धचरित-श्वेताम्बर साहित्य में प्रत्येकबुद्धों पर अनेक काव्य लिखे गये जिनके नाम प्रत्येकबुद्ध चरित ही हैं। इनमें करकंडु, नग्गय, नमि मौर दुर्मुख की कथायें दी गयी हैं । इनमें भी करकंडु की कथा ही प्रमुख रूप से वर्णित है । प्रस्तुत प्रत्येकबुद्ध चरित प्राकृत भाषा में निबद्ध है। इसके रचयिता श्री तिलकसूरि हैं जो चन्द्रगच्छीय शिवप्रभ सूर्य के शिष्य थे । इसकी रचना संवत् 1261 में हुई। इसमें 6050 श्लोक हैं और यह अब तक अप्रकाशित है।10
प्रत्येकबुद्धचरित-इसका अपरनाम प्रत्येकबुद्धमहाराजर्षि चतुष्कचरित है। संस्कृत भाषा में निबद्ध इसके चार पर्यों में चार-चार सर्ग और एक चूलिका सर्ग है । कुल 10130 अनुष्टुप् श्लोक हैं । इसकी प्रति जैसलमेर के शास्त्र मंडार में है ।11 काव्य के अन्त में दी गयी प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जिनरत्नसूरि और लक्ष्मीतिलकगणि दो व्यक्ति हैं, जो सुधर्मागच्छ में हुए हैं । ये जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे जिन्होंने जावालिपुर (जालौर) में लक्ष्मीतिलक को 1288 सं० में दीक्षा दी थी। इन्होंने विक्रम संवत् 1311 (1254 ई०) में उक्त काव्य की रचना की थी।12 इसमें करकंडु, द्विमुख, नमि और नग्गति का जीवनचरित अंकित है। भाषा सरल और स्वाभाविक है। प्रमुख रस शान्त है। यह एक पौराणिक महाकाव्य कहा जा सकता है ।
प्रत्येकबुद्धचरित-इसका अपर नाम प्रत्येकबुद्ध चतुष्टयचरित भी है । इसके रचयिता जिनवर्धनसूरि हैं। यह संस्कृत भाषा में निबद्ध है ।13 इसका समय विक्रम संवत् की चौदहवीं शती का अन्तभाग स्वीकार किया गया है ।14
प्रत्येकबुद्धचरित-इसके लेखक समयसुन्दरगणि हैं। इसकी भाषा संस्कृत है ।15
प्रत्येकबुद्धचरित-यह अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है, इसके लेखक अज्ञात हैं। अतः इसका समय निश्चित कर पाना कठिन है । इसमें 15 सन्धियां हैं । इसकी प्रति पाटन के शास्त्रभण्डार में है ।16
.. प्रत्येकबुद्धचरित-इसका अपर नाम करकंडु कलिंगसु है । पीटरसन ने अपनी रिपोर्ट में इसका वर्णन किया है। इसका समय संवत् 1398 है। इसमें 141 गाथाएं हैं ।17....
प्रत्येकबुद्धचरित-इसके लेखक और समय प्रज्ञात हैं ।18 . ... प्रत्येकबुद्धकया-प्राकृत गद्य में लिखी गयी इस कृति के लेखक अज्ञात हैं ।
करकणचरिउ-करकण्डस्वामी के चरित को जग-जाहिर करनेवालों में यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे मुनि कनकामर ही हैं। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में 10 संधियों में करकंडचरिउ लिखकर करकंडु की यशःकौमुदी को दिग्दिगन्तव्यापी बनाया है । यह डॉ० हीरालाल जैन के संपादन, अनुवाद और विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हो चुका है । करकंडचरित की अन्तिम प्रशस्ति के अनुसार कनकामर ब्राह्मणों के पवित्र चन्द्रर्षि गोत्र
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में उत्पन्न हुए पर वैराग्य के कारण दिगम्बर मुनि बने । इनके गुरु का नाम बुधमंगलदेव था। प्रासाई नगरी में इन्होंने उक्त काव्य की रचना की । यथा
चिरु दियवर वंसुप्पण्णएण, चंदारिसिगोत्ते विमलएण । बहरायई हुयई दियंबरेण, सुपसिद्धरणामकणयामरेण । बहुमंगलएवहो सीसएण, उप्पाइयजरणमणतोसएण । प्रासाइणयरि संपत्तएण, जिणचरणसरोरुहभत्तएण। 10.28
कनकामर दिगम्बर मुनि थे। प्रासाई नगरी के सन्दर्भ में विवाद है । कुछ विद्वान् इसे इटावा के समीप और कुछ भोपाल के समीप मानते हैं । करकंडचरिउ की अंतिम प्रशस्ति में विजयपाल, भूपाल और कर्ण राजाओं का उल्लेख है । इस प्राधार पर डॉ० हीरालाल जैन ने इनका समय विक्रम की 12वीं शती माना है20 जो उचित ही है।
कनकामर अत्यन्त विनीत थे, उन्होंने काव्य के अन्त में लिखा है-मुझ शास्त्रविहीन ने जो कुछ कहा है उसे विद्वान् शोध कर प्रकट करें, उन्होंने हाथ जोड़कर सभी से क्षमायाचना भी की है।
करकंडचरिउ 10 संधियों में विभक्त है । उसकी कथा हम ऊपर दे चुके हैं । इसमें १ अवान्तर कथाएँ भी आई हैं जो मूलकथा के विकास में सहायक हैं । यह एक धार्मिक कथाकाव्य है । वीर, शृंगार और भयानक रसों का अद्भुत समन्वय इसमें हुआ है । भाषा में सरसता, सरलता और प्रवाह है । चम्पा नगरी के सुन्दर वर्णन का एक उदाहरण द्रष्टव्य है
जा वेढिय परिहाजलभरेण, एं मेइणि रेहइसायरेण । उत्तुंगषवलकउसीसएहि, णं सग्गु छिवइ बाहूसरहिं । जिरणमन्दिर रेहहिं जाहिं तुंग, रणं पुग्णपुंज रिणम्मल अहंग। कोसेयपडायउ घरि लुलंति, रणं सेयसप्प गहि सलवलंति । 1.4 .
करकणचरिउ-अपभ्रंश भाषा में ही महाकवि रइधु ने करफंडुचरिउ लिखा। डॉ. राजाराम जैन ने विभिन्न स्त्रोतों के आधार पर रइधू की 37 रचनाओं का अन्वेषण किया है जिनमें करकण्डुचरिउ भी एक है पर कष्ट का विषय है कि इसकी प्रति अब तक उपलब्ध नहीं है । डॉ. राजाराम ने भी यही सूचना दी है ।21
करकण्हुचरित्र-इसके लेखक भट्टारक शुभचन्द्र हैं । ये ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और विजयकीति के शिष्य थे । इनका समय वि. सं. 16वीं सदी का उत्तरार्द्ध और 17वीं सदी का पूर्वार्द्ध माना जाता है ।22
करकंडुचरित्र संस्कृत भाषा में लिखा गया सुन्दर चरितकाव्य है । शुभचन्द्र अपने समय के गणमान्य विद्वान् थे । संस्कृत पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्हें 'त्रिविधविद्याधर' और 'षट्भाषाकविचक्रवर्ती' की उपाधियां मिली हुई थीं।
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करकंडुचरित में 15 सर्ग हैं । इसकी रचना विक्रम संवत् 1611 में जवाक्षपुर के आदिनाथ चैत्यालय में हुई थी। इसमें शुभचन्द्र के सहायक उनके शिष्य भट्टारक सकलभूषण थे।24 इसकी प्रति नागौर के ग्रन्थ भण्डार में उपलब्ध है ।25 ग्रन्थ की अंतिम प्रशस्ति इस प्रकार है
"श्रीमलसंधे कृति नंदिसंघे गच्छे बलात्कार इदं चरित्रं । पूजाफलेखं करकण्डराज्ञो भट्टारक श्री शुभचन्द्रसूरिः ॥
..
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श्रीमत्सकलभूषेण पुराणे पाण्डवे कृतं ॥
साहायं येन तेनाऽत्र तदाकारि स्वसिद्धये ॥" 26 करकण्डरास-राजस्थानी रास शैली में उक्त काव्य की रचना ब्रह्मजिनदास ने की। डॉ. प्रेमसागर ने करकण्डु-रास के पंचायती मन्दिर देहली में होने की सूचना दी है ।27
इनके अतिरिक्त जिनरत्नकोश28 में निम्न करकंडुचरितों का उल्लेख मिलता है।
... करकण्डुचरित्र-इसके लेखक जिनेन्द्रभूषण भट्टारक ब्रह्म हर्षसागर के पुत्र थे। संस्कृत पद्य में लिखे गये इस काव्य में 4 अध्याय और 900 श्लोक हैं । पीटरसन ने अपनी चतुर्थ रिपोर्ट में संख्या 1407 पर इसका उल्लेख किया है।
करकंडुचरित्र-संस्कृत भाषा में लिखे गये इस काव्य के लेखक ब्रह्म नेमिदत्त हैं, जो मल्लिभूषण के शिष्य थे । इसकी प्रति दिल्ली के पंचायती मन्दिर में है।
___ करकण्डुचरित्र-प्रभाचन्द्रदेव रचित इस ग्रन्थ की प्रति ईडर (गुजरात) के ग्रन्थभण्डार में उपलब्ध है।
करकंडचरित्र-श्रीदत्त पण्डित रचित इस काव्य के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख नहीं मिलता।
:: ..... : ........................... .. ... उक्त काव्यग्रन्थों के अतिरिक्त आराधना कथाकोष या कथाकोषों के प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत संस्करणों में करकंडु की कथा उपलब्ध होती है । वस्तुतः यह विषय एक स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध की अपेक्षा रखता है।
-तिलोयपण्णत्ति 4/1022
1. “कम्माण उवसमेण य गुरुवदेसं विणा वि पावेदि ।
सण्णाणसवप्पगमं जीए पत्तेयबुद्धी सा ॥" 2. सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली,
(सन्दर्भ-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष-भाग 3)
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3. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 6, डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ____ शोध संस्थान वाराणसी 1973, पृष्ठ 160। 4. "करकण्डू कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु गन्धारेसु य नग्गाई ॥"
-उत्तराध्ययन सूत्र, अनुवाद-मुनि नथमल, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा,
कलकत्ता 1967, पृष्ठ 231 । 5. ज. सा. का वृ. इति., भाग 6, पृष्ठ 160। 6. निदानकथा, अनुवाद-डॉ. महेश तिवारी, चौखम्भा संस्कृत सीरीज, वाराणसी, 1970,
भूमिका पृष्ठ 69। 7. अभिधर्मदेशना, डॉ. धर्मचन्द्र जैन, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र 1982,
पृष्ठ 289 । 8. निदानकथा, भूमिका पृष्ठ 60। . . 9. करकंडचरिउ, सम्पादन-डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, 1944, भूमिका
पृष्ठ 171 10. ज. सा. का वृ. इ., भाग 6, चौधरी, पृष्ठ 161 । । 11. वही, पृष्ठ 161। 12. पार्श्वनाथ चरित का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. जयकुमार जैन, जैनधर्म प्रचार समिति,
1987, पृष्ठ 161। 13. जिनरत्नकोश, पूना, 1944, पृष्ठ 263 । 14. ज. सा. का वृ. इति., भाग 6, चौधरी, पृष्ठ 464 । 15-19 जिनरत्नकोष, पृष्ठ 263 । 20. वही, प्रस्तावना, पृष्ठ 11-12, 162 । 21. रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन, डॉ० राजाराम जैन, बिहार सरकार,
पटना, 1974, पृष्ठ 49-50 । 22. हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, डॉ. प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, 1964,
पृष्ठ 77। 23. जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम प्रेमी, बम्बई, पृष्ठ 531 । 24. ती. म. और उ. प्रा. परम्परा, भाग 3. पृष्ठ 531। .. 25. भट्टारकीय ग्रन्थ भंडार नागौर ग्रन्थसूची, डॉ० पी. सी. जैन, जयपुर 1985, भाग 3,
पृष्ठ 1241 26. वही, पृष्ठ 3661 27. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृष्ठ 60 (पादटिप्पण) । 28. जिनरत्नकोश, पृष्ठ 671
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करकण्डचरिउ में प्रतिपादित
इतिहास व संस्कृति
-डॉ० भागचन्द्र भास्कर
करकण्डचरिउ का अपभ्रंश-काव्य परम्परा में एक विशिष्ट स्थान है। मुनि कनकामर (12वीं शती) ने अपने इस कथाग्रन्थ की उत्थानिका (1.2) में सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंकदेव, जयदेव, स्वयंभू तथा पुष्पदन्त का पूरे सम्मान के साथ उल्लेख किया है । इसमें दस सन्धियां और उनमें 201 कड़वक हैं जिनमें मुख्यतः पज्झटिका छन्द प्रयुक्त हुआ है । शैली सरस व काव्यात्मक है । .
- करकण्ड को जन-परम्परा में बौद्ध धर्म के समान प्रत्येक-बुद्ध माना गया है । प्रत्येकबुद्ध किसी एक निमित्त से स्वयं दीक्षित होकर उपदेश दिये बिना ही मुक्त हो जाते हैं। जैनधर्म में यह कल्पना बौद्धधर्म से प्रादत्त प्रतीत होती है । दोनों परम्पराओं में मूलतः उनकी संख्या चार है-करकण्ड, नग्गइ, नमि. और दुर्मुख.। ये महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती रहे हैं.पर जैनों ने उन्हें तीर्थकर पार्श्व का. समकालीन घोषित किया है। उत्तराध्ययन (18.45) में उनका मात्र उल्लेख उपलब्ध है। पर उत्तरकालीन श्वेताम्बर परम्परा में उसे विस्तार दिया गया है । नन्दिसूत्र में प्रत्येक बुद्ध को प्रोत्पातिकी, वनयिकी, कार्मिकी, और पारिणामिकी बुद्धि से युक्त मानकर उनकी संख्या को सीमित नहीं किया है जबकि ऋषिभाषित में यह संख्या पैंतालीस निर्दिष्ट है। जो भी हो, जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्धों के चरित को दसवीं शताब्दी के बाद काव्यबद्ध किया है । ऐसे काव्यों में श्री तिलकसूरि का प्रत्येकबुद्धचरित (सं० 1261), जिनरत्न
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जैन विद्या
एवं लक्ष्मीतिलक का प्रत्येकबुद्धचरित (सं० 131 ) तथा समयसुन्दगाणि, भावविजयगणि व तीन अज्ञातकर्तक काव्य प्रमुख हैं। श्रावश्यकनिर्युक्ति में भी उनका उल्लेख आया है ।
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दिगम्बर परम्परा में उपर्युक्त चार प्रत्येकबुद्धों में से मात्र करकण्डु को ही चरित - नायक बनाया गया है और उन्हें भी प्रत्येकबुद्ध न मानकर एक चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में प्रदर्शित किया गया है । इस परम्परा में मुनि कनकामर प्रथम कवि हैं जिनका अनुकरण कर श्रीचंद्र, रामचंद्रमुमुक्षु श्रौर नेमिदत्त ने अपने कथाकोश ग्रन्थों में तथा रइधू, जिनेन्द्रभूषण भट्टारक और श्रीदत्त पण्डित ने स्वतन्त्र काव्यरूपों में करकण्डु के चरित्र को निबद्ध किया है ।
करकण्डचरिउ यद्यपि चरित-ग्रन्थ है पर उसमें इतिहास और संस्कृति भी प्रतिबिम्बित हुई है। डॉ० हीरालाल जी के अनुसार कारंजा की प्रति में इसका रचना स्थल "प्रसाइय" और टिप्पण में प्रासापुरी दिया है जिसकी पहिचान उन्होंने भोपाल के समीपवर्ती आशापुरी ग्राम से की है। वहां जैन भग्नावशेष और तीर्थंकर शान्तिनाथ की मूर्ति भी उपलब्ध है । सम्भव है चेदिनरेशों की राज्यसीमा यहां तक रही हो । चेतियजातक में चेदिनरेश उपचर के पांच पुत्रों द्वारा हत्थिपुर, अस्सपुर, सीहपुर, उत्तर पांचाल और दद्धरपुर नगरों की स्थापना की गई थी । प्रशस्ति में दिये गये राजाओं के नाम भी चंदेलवंशी राजाओं से मिल जाते हैं ।
करकण्डु के जीवन का सम्बन्ध विशेषतः अंगदेश, सौराष्ट्र और दक्षिणवर्ती प्रदेशों से रहा है । उनमें चेल, चोल श्रौर पांड्य नरेश प्रमुख हैं । चम्पापुरी में धाड़ीवाहन नरेश का उल्लेख आया है जिसे दधिवाहन के साथ बैठाया जा सकता है । उसकी रानी कौशाम्बी नरेश वसुपाल की पुत्री पद्मावती थी । चम्पापुरी यद्यपि जैनशासन की केन्द्रस्थली रही है पर उपलब्ध इतिहास में इस नाम का कोई नरेश देखने में नहीं प्राया । इसका सर्वप्रथम उल्लेख ' आवश्यक नियुक्ति में हुआ है जिसे भद्रबाहु की रचना माना जाता है । ये भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु तो हो ही नहीं सकते । अन्य भद्रबाहुनों के समय का अभी तक कोई निश्चय नहीं हो पाया । पर आवश्यक निर्युक्ति में उपलब्ध संस्कृति के आधार पर यह श्रवश्य कहा जा सकता है कि वह 8वीं शताब्दी के आसपास की रचना होनी चाहिए। उत्तराध्ययन में करकण्डु का नाम अवश्य आता है पर उसे बौद्ध जातक से उद्धृत किया गया जान पड़ता है। बौद्ध जातकों का समय भी ईसवी काल के आसपास से अधिक पीछे नहीं ले जाया जा सकता । कुछ जातककथाएं तो पाँचवी शताब्दी के बाद की भी प्रतीत होती हैं।
कोशाम्बी जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है। महात्मा बुद्ध के समान तीर्थंकर महावीर की भी गतिविधियां उससे जुड़ी रही हैं। मृगावती, शतानीक, उदयन श्रादि का भी उल्लेख आता है परन्तु वसुपाल का सम्बन्ध ऐतिहासिक दृष्टि से अभी भी अज्ञात है । फिर भी ऐसा लगता है कि करकण्डचरिउ से उल्लिखित वसुपाल बंगाल के पालवंश से सम्बद्ध नरेश होना चाहिए । पालवंश का राज्य आठवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध से प्रारम्भ होता है । वसुपाल का सम्बन्ध महीपाल से जोड़ा जा सकता है। इसी राजा के काल में चोलों का आक्रमण हुआ । गुर्जरों के साथ भी उनका संघर्ष होता रहा है ।
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चोल, चेर और पाण्ड्य ये तीन सुदूर दक्षिण की प्राचीन राजनीतिक शक्तियां थीं। कहा जाता है, करकण्डु ने उन्हें पराजित किया था। ये तीनों राजशक्तियां जैनधर्म का पालन करनेवाली थीं । अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसका इन शक्तियों के साथ मैत्री सम्बन्ध रहा है। संगम युग में चोलों का प्रभुत्व कम हो गया पर चालुक्यों और पल्लवों के साथ राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली । सक्कोलम के युद्ध ने चोल राजसत्ता को हिला दिया । 925 ई. में राजराज प्रथम के राज्यारोहण से चोलवंश का वैभव जाग्रत हो गया। चेर नरेश रविवर्मन को भी उसने पराजित किया तथा पाण्ड्य नरेश और लंकाधिपति के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की । पाण्ड्य शक्ति का अस्तित्व ई. पू. में रहा है । चतुर्थ से षष्ट शताब्दी तक वह शक्ति दबी रही पर सप्तम शताब्दी में अरिकेशरी के पाने से स्थिति में परिवर्तन आया। पल्लव-पाण्ड्य-चोल संघर्ष भी हुए। चेर राज्य का सम्बन्ध केरल से रहा है । करकण्डु ने इनके साथ ही श्रीलंका को भी जीता। पारिदमन का सम्बन्ध कदाचित् अरिकेशरी से रहा हो । ये सारे संदर्भ लगभग आठ से दशवीं शताब्दी के बीच घटित हुए हैं।
एक अवान्तरकथा में नरवाहनदत्त का उल्लेख पाया है। हम जानते हैं, सौराष्ट्र में एक सरदार ने क्षहरातवंश की स्थापना ई. पू. 57 में की । इस वंश में भूमक, घटक, नहपान आदि प्रसिद्ध राजा हुए। इनमें नरवाहन (22-66 ई.) अथवा नहपान प्रमुख शासक था। इसी समय गिरिनार की चन्द्रगुफा में प्राचार्य धरसेन (अंगपूर्वज्ञान के अन्तिम देशज्ञाता) विराजमान थे। उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को आगम ज्ञान का अध्ययन कराकर उसे लिपिबद्ध करने का आदेश दिया था। श्रुतावतार के अनुसार क्षहरातवंशी नहपान ही 'भूतबलि' थे और राजश्रेष्ठी सुबुद्धि 'पुष्पदन्त" के नाम से विश्रुत हुए।
____ करकण्डु ने लंका जाते समय मलय प्रदेश में सिरीपूदी नामक गिरिवरेन्द्र देखा जिस पर धवल गगनचुम्बी चतुर्विंशति जिनालय (5.4) था। डॉ. हीरालालजी ने इसे मालावार के अन्तर्गत पोदियाल नाम की पहाड़ी बताया है। इसकी पहिचान मालकूट से की जा सकती है। 640 ई. में दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए चीनी यात्री युवानच्वांग ने इसकी सूचना दी है। मालकूट में उस समय पाण्ड्यों का साम्राज्य था जो कांची के शक्तिशाली पल्लवों के अधीन रहे होंगे। मदुरा यहां की राजधानी थी । बौद्धधर्म यहां से प्रायः लुप्त हो चुका था पर दिगम्बर जैन मन्दिर सहस्रों की संख्या में थे। लंकानरेश सूरप्रभ ने इसी पर्वत पर एक चतुर्विशति जिनालय का निर्माण कराया था। ..
करकण्डु ने सिंहल यात्रा की और वहां एक ऐसे नगर में पहुंचा जहां विशाल वटवृक्ष था। वहां के राजा की पुत्री रतिवेगा से उसका परिणय भी हुआ। महावंश (पृ. 67) से हमें यह जानकारी मिलती है कि विजय और उनके अनुयायियों को श्रीलंका में यक्ष-यक्षिणियों का तीव्र विरोध सहना पड़ा था। बाद में पाण्डुकामय (438-368 ई. पू.) उनका सहयोग लेने में सफल हो गया। उसने अनुराधापुर के प्रासपास जोतिय निग्गंठ के लिए एक विहार भी बनवाया। यहां लगभग 500 विभिन्न मतावलम्बी रहते थे। वहीं गिरि नामक एक निगण्ठ भी रहते थे।
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पांच सौ परिवारों का रहना और निर्ग्रन्थों के लिए विहार का निर्माण कराना स्पष्ट सूचित करता है कि श्रीलंका में लगभग तृतीय- चतुर्थ शती ई. पू. में जैनधर्म अच्छी स्थिति में था। बाद में तमिल श्राक्रमण बाद वट्टगामणि अभय ने निगण्ठों के विहार आदि सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिये ( महावंश 33.79 ) । महावंश टीका (पृ. 444 ) के अनुसार खल्लाटनाग ने गिरि निगण्ठ के विहार को स्वयं नष्ट किया और उसके जीवन का अन्त किया ।
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करकण्डचरिउ में सिंहल द्वीप का विवरण कोई नया नहीं है। उसके पूर्व भी हरिवंशपुराण, पउमचरिउ आदि ग्रन्थों में इसका वर्णन द्रष्टव्य है । विद्याधरों (जनों ) का आवागमन वहां होता ही रहता था। श्रीलंका की किष्कंधा नगरी के पास त्रिकूटगिरि पर जैन मन्दिर था जिसे रावण ने मंदोदरि की इच्छापूर्ति के लिए बनवाया था। कहा जाता है, पार्श्वनाथ की जो प्रतिमा श्राज शिरपुर (वाशिम) में रखी है वह वस्तुतः श्रीलंका से मालीसुमाली ले आये थे ( विविध तीर्थकल्प, पृ. 93 ) । करकण्डचरिउ के अमितवेग और सुवेग अथवा नील महानील सम्भवतः माली-सुमाली हों । जो भी हो, पर यह निश्चित है कि श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व वहां बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व था और बाद में भी रहा है। तमिलनाडु के तिरंरप्परकुरम् (मदुरं जिला ) में प्राप्त एक गुफा का निर्माण भी लंका के एक गृहस्थ ने कराया था, यह वहां से प्राप्त एक ब्राह्मी शिलालेख से ज्ञात होता है ।
'
करकण्डु महाराज दक्षिण की यात्रा के बीच तेरापुर रुके जहां उन्होंने पश्चिमी दिशावर्ती पहाड़ी में गुफा देखी । उसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान थी । यह गुफा सहस्र स्तम्भवाली थी। तेरापुर के राजा शिव के साथ अवलोकन करते हुए यह भी पाया कि एक सुन्दर हाथी सरोवर से कमल लाकर वामी की प्रदक्षिणा और जलसिंचन कर पूजा करता है । करकण्डु ने उस वामी को खुदवाया जिसमें से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की फणावली - युक्त प्रतिमा निकली। फणों की संख्या का यहां कोई उल्लेख नहीं ( 49 ) । दुन्दुभि, भामण्डल, दो चामर और सिंहासन का वर्णन अवश्य मिलता है । उसे उत्सवपूर्वक लयरण में प्रतिष्ठित कर दिया गया । करकण्डु ने सिंहासन के ऊपर एक गांठ देखी जिसे देखकर सूत्रधारों ने कहा कि उसे जलवाहिनी रोकने के लिए लगायी गई है। गांठ को तोड़ने पर जलधारा का भयंकर प्रवाह निकला भी । देव ने प्रकट होकर उसे बन्द किया । इसी संदर्भ में यह भी बताया गया यह प्रतिमा पिछले साठ हजार वर्षों से वहां अक्षत बनी रही है ( 4.17 ) ।
कि
तेरापुर गुफाओं के संदर्भ में डॉ० हीरालालजी ने अच्छा प्रकाश डाला है । ये वही गुफाएँ हैं जो उस्मानाबाद के समीपवर्ती गुफा 'धाराशिव' के नाम से जानी जाती | डॉ० फ्लीट ने इन्हीं को 'तगरपुर' नाम से उल्लिखित किया है जो तेरापुर होना चाहिए । वर्तमान में भी इस गुफा का क्षेत्र काफी बड़ा है। इसमें कुल चौसठ खम्भे हैं, शाला के दोनों मोर आठ-आठ कमरे हैं और गर्भगृह बीस फुट लम्बा श्रौर पन्द्रह फुट चौड़ा है जिसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की पांच फुट की काले पाषाण की पद्मासन मूर्ति विराजमान है । गुफा के भीतर अभी भी विशाल जलकुण्ड है । उसी के पास सप्तफणी पार्श्वनाथ प्रतिमा भी रखी हुई है। कमरे के भूतल में दो छिद्र भी हैं जिनका सम्बन्ध कुण्ड से है । शाला के पास भी सजल छिद्र
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है। करकण्डु ने वहां दो लयण और बनवायीं (5.13) । इस तरह तीन लयण-समूह की शोभा का वर्णन करकण्डु में मिलता है जो आज भी सही सिद्ध होता है । धारा का सम्बन्ध उस जलधारा से रहा है और 'शिव' या तो कल्याणसूचक है या उसका सम्बन्ध किसी शिवमन्दिर से रहा होगा । प्रथम गुफा के निर्माण का जहां तक प्रश्न है कनकामर की सूचना के अनुसार नील-महानील विद्याधरों ने उसका निर्माण कराया था। सम्भावना ऐसी व्यक्त की गई है कि शिलाहार वंश का प्रारम्भ नील-महानील विद्याधरों से हुआ होगा। इसके मूल वंशज के रूप में जीमूतवाहन का भी नाम लिया जाता है। इन्हें तगरपुराधीश्वर भी कहा जाता है।
कोंकण के इन शिलाहारों का बेलगांव और कोल्हापुर तक शासन था। उनमें से प्रसिद्ध जैन राजा गण्डरादित्य (1007-9 ई.) ने इरुकुडी में एक जिनालय बनवाया । उसके सेनापति निम्बदेव ने भी अर्जरिका में रूपनारायण जैन मन्दिर का निर्माण कराया जो
आज वैष्णवों के अधिकार में है । निम्बदेव पद्मावती का भक्त था और माणिक्यनन्दी का शिष्य था । इसी प्रकार बोप्पण व भोज द्वितीय (1165-1205 ई.) भी अनेक जिनालयों के निर्माता रहे हैं। विशालकीर्ति पण्डितदेव व शब्दार्णवचन्द्रिकाकार सोमदेव इन्हीं के शासनकाल में कार्यरत थे । यह वंश तीर्थंकर पार्श्वनाथ और पद्मावती का भक्त था।
कनकामर के समय में मन्त्र-परम्परा के प्रति श्रद्धा अधिक बढ़ चुकी थी। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही दी गई स्तुति में जिनेन्द्र को 'मंताणबीज' कहा गया है । मातंग और करकण्डु ने राक्षस को मन्त्रोच्चारणमात्र से वश में कर लिया (2.12)। मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण और सुशोभनीय यन्त्र जैन परम्परा में पूरी तरह प्रविष्ट हो चुके थे (2.9)। जैन धर्म में मन्त्रतन्त्र की शक्ति को पौद्गलिक माना गया है और इसलिए उसे मोक्षप्राप्ति में साधन के रूप में स्वीकार नहीं किया गया (रयणसार, 109)।
- करकण्डचरिउ में कथानकों की भीड़ पा जाने से कवि किसी विषय पर जम नहीं सका । इसलिए संस्कृति के पन्ने भर नहीं पाये । कथानक-रूढ़ियों के बीच घूमती हुई करकण्डुकथा सामाजिक परम्परामों को अधिक समाहित नहीं कर सकी। मात्र वैवाहिक परम्परा का उल्लेख संक्षेप में मिलता है । कलश पर दीपक रखकर स्वागत करने की उस समय प्रथा थी (3.5) । वर के नगर में वधु को सपरिवार बुला लिया जाता, उसका समुचित स्वागत होता, घर पर तोरण लगाये जाते, हाथों में कंकण बांधे जाते, विविध वाद्य बजाये जाते, गीत गाये जाते, नृत्य होते, वर-वधु एक दूसरे के मुखपट उघाड़ते, अग्नि के समक्ष भट्ट मन्त्र पढ़ते, सात भांवरे होती, वर अपना हाथ वधु के हाथ में देता व दाहिने हाथ से शपथ आदि विधियां करता (3.8)। बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी । वर को यथाशक्ति दहेज भी दिया जाता था (7.8)।
धर्म और दर्शन के भी सन्दर्भ अधिक समृद्ध नहीं हैं। जैन-धर्म में श्रावक की परिभाषा यथासमय परिवर्तित होती रही है। कभी वह तत्त्वश्रदान के साथ जुड़ी, कभी
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सप्त-व्यसनों और पंचोदम्बरों के त्याग में सम्पृक्त हुई और कभी मूलगुणों व उत्तरगुणों के पालन करने से उसका सम्बन्ध रहा । समन्तभद्र, हरिभद्र, हेमचन्द्र, प्राशाधर आदि विद्वानों ने सामाजिक आवश्यकता के अनुसार उसकी परिभाषा का निर्धारण किया । मुनि कनकामर ने इन सभी परिभाषानों को एक साथ समेट लिया और सम्यग्दर्शन के स्वरूप के बहाने यह कह दिया कि श्रावक वही है जो सप्त-तत्त्वों में श्रद्धान करे, पंचोदम्बरों तथा सप्त-व्यसनों का त्याग करे (7.23)।
___ मुनि कनकामर ने करकण्डचरिउ में पूजा, उपवास और सम्यक् तपस्या पर बल दिया है । अमितवेगवाले कथानक में हाथी तेरापुर में पार्श्वनाथ भगवान की पूजा करता है
और उसके प्रभाव से वह मरणोपरान्त स्वर्ग प्राप्त करता है (5.12) । धनदत्त के जीव ने भक्तिपूर्वक एक पुष्प से जिनेन्द्र भगवान की पूजा की थी जिसके फल से वह चम्पाधिराज करकण्डु हुा । पूजा करने के पूर्व साधक को विशुद्ध होना आवश्यक है। चूंकि धनदत्त ने कीचड़ से लिप्त हाथों से ही भगवान् की पूजा की थी इसीलिए उसके हाथपैर में खुजली (कण्डु) के दाग थे (10.5)।
लगता है, करकण्डचरिउ की रचना का उद्देश्य पंचकल्याणक विधान का फल प्रदर्शित करना रहा है । ग्रन्थ के अंत में कहा है कि इस विधान से साधक बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण जैसे धर्मशील व्यक्तित्व को पा जाता है, केवलज्ञानी बन सकता है ।
इस प्रकार करकण्डचरिउ मुनि कनकामर की एक ऐसी अनुपम कृति है जिसमें दशम शताब्दी के जैन धर्म और संस्कृति का स्वरूप प्रतिबिम्बित होता हुआ दिखाई देता है । वस्तुतः इसको तीर्थकर पार्श्वनाथ या उनके पूर्व का सिद्ध करना ऐतिहासिक तथ्यसंगत नहीं लगता। ऐसा लगता है, यह एक लोककथा रही होगी जिसका उपयोग जैन-बौद्ध-वैदिक चिन्तकों ने अपनी परम्परा के अनुसार परिवर्तित करके सांस्कृतिक समृद्धि का साधन बनाया है ।
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करकंडचरिउ और पद्मावत
का शिल्प-विधान -डॉ० पुष्पलता जैन
करकंडचरिउ मुनि कनकामर की अपभ्रंश कृति है जिसे उन्होंने 11 वीं शताब्दी के मध्य रची थी । कवि ने इसमें प्रत्येकबुद्ध करकडु का जीवन चित्रित किया है। जैन परम्परा में उन्हें पार्श्वनाथकालीन माना जाता है पर उपलब्ध साहित्य कदाचित् इसे स्वीकार करने में हिचकिचाता है। उनका कथानक उत्तराध्ययन के उल्लेख से प्रारम्भ होता है और समयसुंदरगणि (15 वीं शती) तक उसका विकास हो जाता है । जनेतर साहित्य को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह कथा शायद लोककथा रही होगी जिसे सभी सम्प्रदायों ने अपनेअपने ढंग से चित्रित कर लिया है। इसके बावजूद विद्वानों ने इस कथा पर बौद्धधर्म का प्रभाव अधिक बताया है परन्तु यह सही इसलिए नहीं लगता कि इस कथानक ने बौद्ध परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा के साहित्य को अधिक समृद्ध किया है। समृद्ध ही नहीं, कथानक में एकाधिक मोड़ पाये हैं जो बौद्ध कथा में नहीं मिलते।
व्यक्ति और साहित्य सामाजिकता के परिकर से प्राबद्ध रहते हैं। अपनी धार्मिकता प्रोढ़े रहने के बावजूद इतर धर्मों से प्रभावित हुए बिना उनके अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न खड़ा हो जाता है । जैन धर्म और साहित्य ने जहां एक ओर दूसरे धर्म और साहित्य से बहुत कुछ ग्रहण किया है वहीं दूसरी ओर उन्हें दिया भी कम नहीं है। आदान-प्रदान की यह प्रक्रिया धर्म और
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साहित्य के क्षेत्र में सतत बनी रही है । करकंडचरित के संदर्भ में भी यह तथ्य पूर्णतः खरा उतरता है । उसे हमने इतना पाकर्षक बना दिया है कि उसके कुछ तत्त्व लोकतत्त्व के रूप में जनसमुदाय में प्रचलित हो गये और आगे चलकर वे प्रेमाख्यानक काव्यों की कथानकरूढ़ियां बन गये । मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत में ऐसी ही कथानकरूढ़ियों का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
सूफी मत ने 11-12 वीं शती में भारत में पंजाब और सिंध द्वार से प्रवेश किया जहाँ सभी भारतीय सम्प्रदाय अच्छी स्थिति में थे। अपने धर्म को प्रभावक बनाने के लिए उसे भारतीय सांस्कृतिक तत्त्वों को आत्मसात करना आवश्यक था । फलतः उसने वैदिक, बौद्ध और जैन धर्म के मूल लोकाख्यानों को अपने सिद्धांतों का पुट देकर और भी संवारा और भारतीय समाज में घुल-मिल गया । इस्लाम की विजयमादकता और असहिष्णुता उसमें नहीं थी। सामंजस्यता के बल पर उसने अपना स्थान समाज में बना लिया, संतों से उसका सम्पर्क हुआ और भक्ति आंदोलन के विकास में उसने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
जायसी सूफी परम्परा के अन्यतम कवि हैं । उनका जन्म 1505 ई. में जायस . (रायबरेली का समीपवर्ती उदयनगर) में हुआ था। अवध उनकी कर्मभूमि रही है । वे अनुभव के धनी थे, संवेदनशील, भावुक और सहृदय फकीर थे, उदार, सहिष्णु और सिद्ध भक्त थे । उन्हें सभी धर्मों का अच्छा अध्ययन था।
.. पद्मावत जायसी का अन्यतम ग्रन्थ है जिसमें लौकिक प्रेम के साथ आध्यात्मिकता का सुन्दर समन्वय किया गया है यदि उसके अंतिम अंश को प्रक्षिप्त न माना जाय तो। मसनवी शैली में रचित इस प्रबन्धकाव्य का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिकता का आभास कराना था। कल्पना और इतिहास से मिश्रित इस कथाकाव्य में साम्प्रदायिकता से हटकर प्रेम के प्रकृष्ट रूप को प्रतिष्ठित किया गया है । उसमें साधक के लिए समभावी होकर मानवता की रक्षा करने और रहस्यवादी भावना से परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग प्रदर्शित किया गया है। इस प्रेम में कोई मुखौटा और आडम्बर नहीं होना चाहिए। जायसी का यह चिन्तन तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था।
जायसी के समय तक जैनधर्म का मध्यकालीन रूप प्रस्थापित हो चुका था जिसमें भक्ति तत्त्व का विकास द्रष्टव्य है। उसके कतिपय तत्त्व करकण्डचरिउ में भी दिखाई देते हैं । मुनि कनकामर और जायसी के बीच लगभग 500 वर्षों का अन्तराल रहा है। इन 500 वर्षों में जैनधर्म में भक्ति के नये-नये आयाम खुल गये थे । लोककथाओं और धार्मिक कथाओं को तद्नुरूप परिवर्तित कर दिया गया था। करकंडचरित के जन रूप ने जनेतर परम्पराओं को भी प्रभावित किया है । जायसी समन्वयवादी थे । उन्होंने पद्मावत के शिल्प-विधान में यदि जैन करकण्डु कथा के कतिपय तत्त्वों को ग्रहण किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
शिल्प, रचना-प्रक्रिया का एक ऐसा सजीव फ्रेम है जिसका सूत्र परम्परा से तो जुड़ा रहता है पर उसे जीवंत बनाने के लिए कुछ लोकप्रिय कल्पनात्मक तत्त्वों को भी आयातित
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करना पड़ता है। स्थापत्य में सौंदर्य का अभिनिवेश, प्रतीकों का संयोजन और विषयवस्तु का कलात्मक चित्रण शिल्प की सुन्दर सृष्टि है। इसमें कलाकार का व्यक्तित्व और उसकी सांस्कृतिक विरासत तो प्रतिबिंबित होती ही है, साथ ही लोकतत्त्वों का स्फुरण भी वृत्ति, रीति आदि के माध्यम से प्राकलित हो जाता है। शिल्प की परिनिष्ठितता काव्यात्मकता से सम्बद्ध है उसमें रस, गुण, अलंकार, कथातत्त्व, चरित्र-चित्रण आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।
शिल्प-विधान का केन्द्रीय तत्त्व कथानक हुमा करना है, जिसके माध्यम से संस्कृति और सिद्धान्त को प्रस्फुटित किया जाता है। पद्मावत में जो कथानकरूढ़ियां दिखाई देती हैं वे भारतीय लोककथानों में काफी प्राचीन काल से प्रचलित रही हैं। प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कथानक को गति देने के लिए सूफी कवियों ने प्रायः उन सभी कथानकरूढ़ियों का व्यवहार किया है जो परम्परा से भारतीय कथाओं में व्यवहृत होती रही हैं, जैसे-चित्रदर्शन, स्वप्न द्वारा अथवा शुक-सारिका आदि द्वारा नायिका का रूप देख या सुनकर उस पर आसक्त होना, पशु-पक्षियों की बात-चीत से भावी घटना का संकेत पाना, मन्दिर या चित्रशाला में प्रिय युगल का मिलन होना, इत्यादि । परियों और देवों का सहयोग, उड़नेवाली राजकुमारियां, राजकुमारी का प्रेमी को बन्दी बना लेना आदि जैसी रूढ़ियों को भले ही ईरानी-फारसी रूढ़ियों के रूप में प्रस्तुत किया जावे पर उन्हें भी भारतीय लोककथाओं में देखा जा सकता है ।
कवि कथाविस्तार के लिए कुछ ऐसी कथाएँ लोकतत्त्व के आधार पर गढ़ लेता है जो आश्चर्यमिश्रित रहा करती हैं जैसे-घोड़े का जंगल में भटक जाना और विपत्तियों का टूट पड़ना । कथानों में इसे टनिंग प्वाइंट (मोड़ बिन्दु) कहा जाता है । कथानक को विकास एवं दिशा देनेवाली सामान्य घटनापरक विशेषताओं को आलोचकों ने मोटिफज (कथानकरूढ़ियां) कहा है । ये कथानकरूढ़ियां अधिकांशतः प्रेमकाव्यों में पायी जाती हैं। इनसे कथा में सरसता
और प्रवाहशीलता आ जाती है। अपभ्रश के ऐहिकतामूलक साहित्य में ये कथानकरूढ़ियां विशेष व्यवहृत हुई हैं । सामान्य रूढ़ियों में निम्नलिखित रूढ़ियों का उपयोग अधिक हुअा हैप्रेमकथा; चित्रदर्शन से प्रेम, प्रेमबाधाएँ, सिहलयात्रा, समुद्र-यात्रा, राक्षस, अप्सरात्रों द्वारा आश्चर्य तत्त्व का मिश्रण, शाप, प्राकाशवाणी, शुक, कपोत, सपत्नी-ईर्ष्या, वन में सुन्दरीदर्शन, सुन्दरी का उद्धार, दोहद, प्रतीकात्मक स्वप्न, कन्याहरण, तूफान, नायक-नायिका की परीक्षा आदि । इन कथानकरूढ़ियों को प्रकृति-चित्रण के माध्यम से विशेषतः विकसित किया जाता है।
कथानकरूढ़ियाँ
उपर्युक्त दोनों प्रबन्धकाव्यों की कथानकरूढ़ियों को इस संदर्भ में समझ लेना आवश्यक है जिससे उनकी शिल्पगत विशेषताएं स्पष्ट हो सकें । करकण्डचरिउ की कथानकरूढ़ियाँ इस प्रकार हैं
1. जिन-स्तुति।
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2. कौशाम्बी के राजा वसुपाल की पुत्री पद्मावती को उसके जन्म समय में हुए अपशकुन के कारण नदी में बहा देना और घाड़ीवाहन द्वारा पत्नी के रूप में उसे स्वीकार किया जाना ।
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3. पद्मावती को दोहद हुआ कि वह नररूप धारण कर अपने पति के साथ हाथी पर सवार होकर परिभ्रमण करे ।
4. हाथी द्वारा दोनों को लेकर जंगल में भागना ।
5. वृक्ष की डाल पकड़कर राजा का बच जाना और कूदकर रानी का जंगल में
चला जाना ।
6. रानी के पहुँचते ही जंगल का हरा-भरा हो जाना ।
7. माली उसे बहिन मानकर घर ले गया, ईर्ष्यावश पत्नी ने उसे बाहर निकाल दिया । श्मशान में उसे पुत्र हुआ जिसे मातंग उठाकर ले गया । वह मातंग वस्तुत: विद्याधर था जो मुनि के शाप से मातंग हो गया था ।
8. शाप का प्रतिकार था - मातंग उस श्मसान में पड़े बालक का लालन-पालन करे और जब उसे राज्य मिल जायगा तो वह विद्याधर बन जायगा ।
9. मातंग ने बच्चे को पाला पोसा, करकण्डु उसका नाम रखा । दंतीपुर के निःसंतान राजा के निधन पर राजा की खोज । हाथी द्वारा कलशाभिषेक कर देने पर करकण्डु को राज्य की प्राप्ति । मातंग का विद्याधर बन जाना ।
10. करकण्डु का विवाह । चम्पाधीश धाड़ीवाहन से युद्ध, पद्मावती द्वारा रणभूमि में पितापुत्र की पहचान । घाड़ीवाहन का वैराग्य और करकण्डु का राज्याभिषेक ।
11. करकण्डु का चेल, चोल और पांड्यों से युद्ध । तेरापुर गुफानों में पार्श्वनाथ का दर्शन, विद्याधर द्वारा जलवाहिनी का रोका जाना ।
12. विद्याधर द्वारा हाथी का रूप धारण कर करकण्डु की पत्नी मदनावली का अपहरण । 13. सिंहल द्वीप जाकर करकण्डु का रतिवेगा के साथ पाणिग्रहण |
14. समुद्र मार्ग से लौटने पर मच्छ का आक्रमण, विद्याधरों द्वारा करकण्डु का अपहरण, पद्मावती देवी द्वारा रतिवेगा को करकण्डु से पुनर्मिलन कराने का श्राश्वासन ।
15. करकण्डु का विद्याधरी के साथ पाणिग्रहण और रतिवेगा से पुनर्मिलन ।
16. शीलगुप्त मुनि से करकण्डु के तीन प्रश्न और उनका समाधान ।
17. जिनपूजा के फल से अतुल वैभव की प्राप्ति पर कीचड़ से सने हाथ से पूजा करने के कारण करकण्डु नाम होना । पद्मावती के पूर्वजन्म के दुष्कृत्यों के फलस्वरूप श्रापत्तियां ।
18. णमोकार मंत्र के प्रभाव से शुक का विद्याधर हो जाना ।
-19. करकण्डु को वैराग्य और उच्च गति की प्राप्ति ।
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53 अवांतर कथानों की कथानकरूढ़ियाँ 1. मंत्रशक्ति के प्रभाव से राक्षस को वश में करना। 2. अज्ञान के कारण आपत्ति । 3. दुर्जनसंगति का फल । 4. सज्जनसंगति का फल । 5. पति-पत्नी के निराशाजनक वियोग के पश्चात् भी संयोग। मदनमंजूषा का विद्याधरों " द्वारा अपहरण और फिर पुनर्मिलन । 6. शुक शास्त्रज्ञ था। उसके कथन से तेजस्वी अश्व की सूचना । अश्व राजा को समुद्र
पार छोहार द्वीप में उड़ा ले गया। वहां रत्नलेखा से विवाह, लौटते समय समुद्र में
नौका छिन्न-भिन्न । 7. निदान-बंध के कारण हर्ष-शोक का होना । 8. शुभ शकुन का फल शुभ होता है। 9. विद्याधर शुक-रूप धारण कर अश्व को समुद्र पार ले गया और राजासहित किसी द्वीप
में पहुंचा, वहां रत्नलेखा से विवाह, वापसी में नौका का समुद्र में डूबना, सबका विछोह । रानी का कुट्टिनी के पास पहुंचना और सार-पासे में हरा देनेवाले के साथ
विवाह की प्रतिज्ञा । अरिदमन से उसका मिलना । 10. स्त्रीलिंग का छेदन सम्भव, विद्याधरी के प्रभाव से प्राश्चर्य-भरे कार्य सम्पन्न ।
करकण्डचरिउ की इन कथानकरूढ़ियों के परिप्रेक्ष्य में जायसी के पद्मावत की कथानकरूढ़ियों को भी हम समझ लें1. प्रादिपुरुष ईश्वर (ब्रह्म) का पुनीत स्मरण जिसने सारी सृष्टि का निर्माण किया है । 2. सिंहलद्वीप जहां राजा गंधर्वसेन और रानी चम्पावती की सुन्दर पुत्री पद्मावती थी। 3. संदेशवाहक हीरामन नामक शुक जो महापण्डित और वेदज्ञ था।
4. 'बर की खोज में गये शुकं का बहेलिए द्वारा अपहरण और सिंहलद्वीप गये चित्तौड़ के , ब्राह्मण द्वारा उसका क्रय। . .
. .. 5. चित्रसेन के पुत्र रत्नसेन का पद्मावती के साथ चित्तौड़ के ज्योतिषियों द्वारा सम्भावित - 'विकाह की घोषणा ... ... ...... .
... 6. रत्नसेन द्वारा ब्राह्मण से शुक का क्रय । 7. रत्नसेन की पत्नी नागमती द्वारा पूछे जाने पर शुक द्वारा पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन
और ईर्ष्यावश शुक को मारने की प्रायोजना। 8. हीरामन शुक द्वारा राजा से पद्मावती का नख-शिख वर्णन और उसके प्रति मोहित
हो जाना। - . :: .. . .
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शुक
9. सर्वस्व त्याग कर राजा का योगी हो जाना और पद्मावती की खोज में सिंहलद्वीप प्रस्थान करना ।
10. सात समुद्र पार कर राजा का सिंहलद्वीप पहुँच जाना ।
11. कामसंतप्त पद्मावती से शुक्र का मिलन और सारा समाचार कथन ।
12. सिंहलद्वीप के शिवमन्दिर में रत्नसेन की अवस्थिति और वहां वसंतपंचमी के दिन
पद्मावती का उससे मिलने पहुंचना ।
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के साथ
13. पद्मावती को देखकर राजा का मूर्च्छित हो जाना और पद्मावती द्वारा हृदय पर चंदन का लेप कर कुछ संदेश लिखकर चला जाना |
14. मूर्छा दूर होने पर दुःखी होकर राजा द्वारा जल मरने का निश्चय करना ।
15. पार्वती द्वारा राजा के प्रेम की परीक्षा ।
16. सिद्धिगुटका पाकर पद्मावती प्रासाद में वज्रकपाट का खुलना और उसमें राजा का प्रवेश तथा गंधर्वसेन से पद्मावती का कर याचन ।
17. गंधर्वसेन द्वारा रत्नसेन का बंदी होना और पद्मावती द्वारा रत्नसेन को संदेश भेजा
जाना ।
18.
युद्ध
की घोषणा, रत्नसेन की प्रोर से हनुमान, विष्णु और शिव देव का साथ देना, गंधर्वसेन द्वारा हार मानना ।
19. रत्नसेन और पद्मावती का पाणिग्रहण संस्कार ।
20. नागमति द्वारा पक्षी के माध्यम से रत्नसेन के पास संदेश भेजना ।
21. पक्षी द्वारा सिंहल जाना और रत्नसेन से नागमति का संदेश ( विरह व्यथा) कथन ।
22. रत्नसेन का दहेज- सामग्री व पद्मावती को लेकर सिंहल से प्रस्थान |
23. राक्षस के कारण समुद्र में रत्नसेन के जहाज का डूबना और समुद्रपुत्री लक्ष्मी के माध्यम से रत्नसेन और पद्मावती का पुनर्मिलन ।
24. समुद्र द्वारा रत्नसेन को पारस पत्थर आदि देकर विदा करना ।
25. जगन्नाथपुरी के दर्शन करते हुए रत्नसेन और पद्मावती का चितोड़ वापिस पहुंचना । 14226. देव द्वारा नागमति को रत्नसेन के पहुंचने की सूचना और उसके चित्तौड़ पहुंचने पर ईर्ष्या पद्मावती को दूसरे महल में ठहराना ।
27. रावि में नागमति से मिलने पर राजा द्वारा दोनों रानियों पर समान दृष्टि रखने का वचन और दोनों रानियों का प्रसन्न होना ।
28. राघवचेतन नामक पंडित द्वारा काव्य सुनाकर रत्नसेन को वश में कर लेना ।
29. राघव द्वारा यक्षिणी - सिद्धि से प्रतिपदा को दूज का चंद्रमा दिखाया जाना और पंडितों का अपमान होने पर राजा द्वारा देश निष्कासन |
30. राघवचेतन द्वारा पद्मावती का दर्शन, उसका कंगन ग्रहण और फिर मोहित होकर
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मूछित होना। 31. दिल्ली जाकर अलाउद्दीन से मिलकर पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करना । 32. अलाउद्दीन द्वारा रत्नसेन के पास पद्मावती को भेजने के लिए दूत-प्रेषण और न मिलने
__पर युद्ध की तैयारी। 33. अलाउद्दीन और रत्नसेन का युद्ध । नर्तकी पर बाण द्वारा प्रहार । राजपूतों की क्रोधा
भिव्यक्ति । फलतः दोनों में संधि । 34. अलाउद्दीन रत्नसेन द्वारा भोज पर निमंत्रित । बाद में उनका चित्तौड़गढ़ अवलोकन ।
शतरंज खेल में मग्न उसे अचानक पद्मावती का दर्शन होना। 35. गढ़ के दरवाजे पर रत्नसेन का कैद किया जाना और उसे दिल्ली ले आना। 36. राजा देवपाल तथा अलाउद्दीन द्वारा पद्मावती को फुसलाने में असफलता । 37. गोरा-बादल के पास पद्मावती का सहायतार्थ जाना और रत्नसेन को मुक्त करने का
वचन लेना। 38. सेनासहित कपटपूर्वक पद्मावती को पालकी में ले जाना और रत्नसेन के बन्धन काट
देना । बादल का उसे लेकर चित्तौड़ भागना । फलतः गोरा के साथ दोनों सेनाओं में
युद्ध, अन्ततः गोरा की युद्ध में मृत्यु । 39. रत्नसेन और देवपाल का युद्ध । युद्ध में रत्नसेन की मृत्यु । गढ़ बादल को समर्पित । 40. पद्मावती और नागमति का सती हो जाना, अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर आक्रमण । . बादल की पराजय होने पर सारी स्त्रियों का सती हो जाना। अलाउद्दीन का चित्तौड़
पर अधिकार प्राप्त करना, पर पद्मावती को प्राप्त न कर पाना । मूल्यांकन
दोनों प्रबन्धकाव्यों की कथानकरूढ़ियों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि कनकामर और जायसी ने लोकतत्त्वों का भरपूर उपयोग किया है। दोनों काव्य मूलतः प्रेमाल्यानक हैं । इस संदर्भ में पद्मावत के विषय में कुछ कहने की अावश्यकता ही नहीं क्योंकि सूफियों में प्रेम की पीर ही प्रमुख है । जहां तक करकण्डचरिउ का प्रश्न है उसका भी प्रारम्भ प्रेमकथा से होता है। मुनि कनकामर ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ही 'मणमारविणासहो' (1.1) कहकर मनमथ पर विजय प्राप्त करने को प्रमुखता देकर यह स्पष्ट किया है कि कामवासना को जीतना सर्वाधिक कठिन होता है। आगे चलकर उन्होंने इसी का समर्थन करते हुए कहा है
सम्भावें कामुउ सयलु जणु, तिय झायइ हियवएँ एयमणु । जइ अणुमइ पावइ तहो तणिय, ता भणहि णारि किं अवगणिय ।
तहे संगई जासु ण चलइ मइ, सो लहइ गरेसर सिद्धगइ । 10.9. .. अर्थात् स्वभाव से सभी कामुक हुप्रा करते हैं और एकाग्रमन से अपने हृदय में स्त्री का ध्यान
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करते हैं, फिर यदि कोई उसकी अनुमति पा जाय तो नारी की अवहेलना कौन करेगा ? स्त्री के संग से जिसकी मति चलायमान न हुई वह पुरुष, हे राजन ! सिद्धगति को प्राप्त करता है ।
ये उद्धरण यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि करकण्डचरिउ का केन्द्रीय तत्त्व सांसारिकता की दृष्टि से प्रेम रहा है और उसी पर विजय प्राप्त करने के लिए सारी तपस्या का विधान हुआ है । जायसी ने भी 'सुना जो प्रेम पीर गा पावा' तथा 'प्रेमहि मांह विरह सरसा । मन के घर वधु अमृत बरसा ॥' एवं 'प्रेम कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेहु जो बूझै पारहु ॥' आदि के माध्यम से प्रेम की स्वाभाविकता को पुष्ट किया है और उसी को आध्यात्मिकता से जोड़ दिया है।
करकण्डु और पद्मावत की प्रेमकथा में अन्तर यह है कि पद्मावत का शब्द प्रेम और अध्यात्मक की व्यंजना से प्रोतप्रोत है। नायक-नायिका क्रमशः ब्रह्म और जीव के प्रतीकरूप में चित्रित हैं, काव्य का नाम नायिका के ऊपर है परन्तु करकण्डु में न प्रतीकात्मकता है और न कोई प्रतिनायक है । यहां करकण्डु ही आद्योपांत नायक के रूप में चित्रित है और वही अन्त में उच्च गति प्राप्त करते हैं । दूसरे शब्दों में करकण्डचरिउ यद्यपि प्रेमकथा काव्य है पर उसका उद्देश्य संसारी प्राणियों को मोक्ष-प्राप्ति की ओर अग्रसर करना रहा है। इस काव्य के हर शब्द की पृष्ठभूमि में आध्यात्मिकता छिपी है । जिनेन्द्र की स्तुतिपूर्वक सरस्वती की वंदना कर कवि ने उस करकण्डु के चरित्र का वर्णन किया है जो लोगों के कानों को सुहावना, मधुर और ललित लगनेवाला है, पंचकल्याणकविधिरूप रत्न से जटित है और जो गुणों के समूह से भरा हुमा एवं प्रसिद्ध है (1.2) । कवि का मूल उद्देश्य परमात्मपद प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित करना रहा है। करकण्डु ने जीवन को अच्छी तरह जीया है और अन्त में सारे वैभव को त्याग कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया है (10.27)। कवि ने अन्त में प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ के पठनपाठन से प्रात्मकल्याण होने की भी बात कही है। पद्मावत में भी जायसी ने अन्त में लगभग इसी आशय को व्यक्त किया है
केइ न जगत जस बेचा, केई न लीन्ह जस मोल। ...
जो यह पढ़ कहानी, हम संवरे दुइ बोल ॥ अपभ्रंश कथाकाव्यों के निर्माण तक संस्कृत महाकाव्यों का स्वरूप स्थिर हो चुका था और उसी के आधार पर कथाकाव्यों का सृजन हुआ है। इसी की अधिकांश विशेषताएँ इन कथाकाव्यों में प्रतिबिंबित हुई हैं। चूंकि इनका आधार लोककथाएँ, लोकवार्ताएँ और लोकतत्त्व रहे हैं इसलिए उनमें उपलब्ध आश्चर्यात्मकता भी यहाँ जुड़ गयी है । जायसी का काव्य मसनवी और भारतीय पद्धति का समन्वित रूप है। मसनवियों की शैली के अनुसार प्रथम स्मृतियां होती हैं जिनमें क्रमशः ईश्वर मुहम्मद साहब, खलीफा, गुरु शाहे वक्त की स्तुति का प्राधान्य रहता है । इसमें और भारतीय पद्धति में कोई विशेष अन्तर नहीं है। अन्तर है इष्ट देवता का । भारतीय परम्परा में भी लेखक सर्वप्रथम अपने इष्टदेव की वंदना करता है, मंगलाचरण करता है, विनम्रतापूर्वक पूर्व कवियों का स्मरण कर अपने अभिधेय को व्यक्त करता है और उसके बाद वस्तुवर्णन के माध्यम से कथाप्रवाह आगे बढ़ता है। करकण्डचरिउ
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और पद्मावत में ये सारे तत्त्व उपलब्ध होते हैं जिन्हें पूर्वोक्त कथानकरूढ़ियों में स्पष्टतः देखा जा सकता है।
पद्मावत पर वस्तुतः अपभ्रंश कथाकाव्यों का प्रभाव अधिक है। उसकी कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन शैली और उद्देश्य सभी कुछ उनका अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं । सम्प्रदाय और धर्म में अन्तर हो जाने के कारण तदनुसार परिवर्तन तो स्वाभाविक है ही पर उसे हम आमूल परिवर्तन नहीं कह सकते ।
पद्मावत की कथावस्तु का पर्यवसान दुःख में होता है । अतः वह सुखान्त नहीं, दुःखान्त है । परन्तु समूची जैन किंवा भारतीय काव्य परम्परा का अनुसरण करते हुए कनकामर ने करकण्डु को सुखान्त बनाया है और युद्धोपरांत करकण्डु को तपस्वी बनाकर उच्च गति प्राप्ति की सूचना दी है । पद्मावत दुःखान्त भले ही हो पर प्रतीकात्मक पद्धति के अनुसार रत्नसेन का जीव पद्मावती रूपी ब्रह्म में अन्तर्लीन हो गया अतः उसे प्राध्यात्मिक दृष्टि से सुखान्त क्यों नहीं कहा जा सकता ? 15वीं शती में राजपूत युग के दर्शन के अनुसार पद्मावत का चित्रण हुआ है और अंततः उसे आध्यात्मिकता के साथ जोड़ दिया गया । प्रेम का प्रौढ़तर रूप दोनों काव्यों में आद्योपांत है । सारी कथावस्तु दोनों काव्यों में राज-दरबारों में घूमती रहती है । पशु-पक्षी और अमानुषिक शक्तियां कथाप्रवाह में योग देती हैं, विद्याधर, शुक, गज, अश्व, पद्मावती आदि सभी के आश्चर्यमिश्रित क्रिया-कलाप यहां दिखाई देते हैं । पद्मावती का हीरामन, नागमति का पक्षी, राक्षस, शिव-पार्वती और लक्ष्मी भी इसी रूप में वर्णित हैं। पूर्वार्द्ध में षड्ऋतु वर्णन के माध्यम से प्रेम की पीर एवं प्रेमपथ की यात्रा का वर्णन है और उत्तरार्द्ध में प्रेम-परीक्षा की जाती है अतः घटनामों का बाहुल्य है इसलिए कथानक का विकास अवरुद्ध सा दिखाई देता है । करकण्डु का कथानक भी अवांतर कथाओं में उलझता हुआ आगे बढ़ता है। पाठक को मूलकथा खोजने के लिए आयास करना पड़ता है इसलिए यहां भी कथाप्रवाह की सरिता में कटाव सा आ जाता है, पर उत्सुकता अवश्य बनी रहती है।
- करकण्ड के चरित्र लौकिक और अलौकिक दोनों कोटियों के हैं । लौकिक पात्रों में घाड़ीवाहन, करकण्डु, पद्मावती, रत्नावली, रतिवेगा, मातंग, नरवाहन प्रादि हैं और अलौकिक पात्रों में विद्याधर, राक्षस, नागकुमार, पद्मावती देवी आदि का समावेश हो जाता है । ये अलौकिक पात्र लौकिक पात्र जैसे सामने आते हैं। लौकिक पात्रों को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-1. काल्पनिक और 2. प्राकृतिक । काल्पनिक पात्रों में विद्याधर
और राक्षस आदि आ जाते हैं और प्राकृतिक में शुक, गज, अश्व प्रादि पशु-पक्षी तथा करकण्डु रत्नावली आदि मानवीय वर्ग के चरित्रों पर विचार किया गया है। पद्मावत में भी इसी प्रकार के पात्र चित्रित हैं । पात्रों के चरित्र-चित्रण करने में पूर्ववर्ती परम्परा का अनुसरण दोनों में लिया गया है । नायक धीरोदात्त, अतिशय पराक्रमी तथा एकाधिक राजकुमारियों से परिणय करनेवाला होता था। करकण्डचरिउ का नायक करकण्डु भी इस अद्वितीय प्रतिभावाला है । करकण्डु जब सिंहल से रानी रतिवेगा के साथ समुद्री मार्ग से लौट रहा था तो एक भीमकाय मच्छ ने उनकी नौका पर आक्रमण किया। उसी समय करकण्डु मल्ल गांठ बांधकर समुद्र में कूद पड़ा और मच्छ को मार डाला (7.10) । पद्मावत का राजा रत्नसेन
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भी उत्साही, दृढ़प्रतिज्ञ, पराक्रमी, दयालु, स्वाभिमानी वृत्ति का क्षत्रिय कुलोद्भव वीर पुरुष है।
वस्तुवर्णन की दृष्टि से भी दोनों प्रबन्धकाव्यों की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जायसी ने अपभ्रंश-काव्यों का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपभ्रंशकाव्यों में नगर, देश, वन, उद्यान, गढ़, पर्वत, सरिता, सरोवर, हाट, अश्व, गज, आयुध, सिंहासन, अन्तःपुर आदि का वर्णन यथास्थान सरस और आलंकारिक शैली में मिलता है । पद्मावत में भी जायसी ने इन शीर्षकों का उपयोग कथाप्रवाह को प्रभविष्णु बनाने के लिए बड़े आकर्षक ढंग से किया है । जायसी की काव्यप्रतिभा निःसन्देह मुनि कनकामर से अधिक निखरी लगती है । यह शायद इसलिए भी हो कि करकण्डचरिउ का फलक छोटा और सीमित रहा है जबकि जायसी की कथा काफी व्यापकता लिये हुए है । वस्तुवर्णन के ये सारे प्रसंग प्रस्तुत निबन्ध में सीमा की दृष्टि से अनपेक्ष हो जावेंगे इसलिए उनको सोद्धरण प्रस्तुत करना यहां सम्भव नहीं है । हाँ, उनके शीर्षकों पर अवश्य दृष्टिपात कर सकते हैं उदाहरणार्थ करकण्डचरिउ का वस्तु-वर्णन देखिए-अंगदेश (1.3), चम्पा (1.4), उपवन (1.14), श्मशान (1.17), युद्ध (3.15-19), सरोवर (4.7), पर्वत (5.1), गज (5.14), शकुन (7.1-2), शासनदेवी का अवतार (7.3), सिंहलद्वीप (7.5), समुद्रयात्रा (7.8), विलाप (7.11), शुक (8.6-8), अश्व (8.2), स्वप्न (1.8, 8.5), दोहद (1.10), शाप (2.4, 6.12). चित्रपट (3.7, 6.15) आदि ।
इसी तरह पद्मावत के वस्तुवर्णन में कतिपय तत्त्वों को प्रस्तुत संदर्भ में इस प्रकार खोजा जा सकता है-सिंहल द्वीप (दूसरा खण्ड), हार (37), अन्तःपुर (49), मानसरोबर (चतुर्थ खण्ड), जलक्रीड़ा (63), पक्षी (72), युद्ध-देवपाल (46), गोराबादल (52वां खंड), बादशाह युद्ध (43वां खण्ड) आदि । पद्मावत की यह विशेषता उदाहरणीय है कि जायसी ने वस्तुवर्णन और वस्तुसंगठन अपेक्षाकृत काफी विस्तार से किया है इसलिए उनके हर चित्रण में जो सघनता और सुन्दरता दिखाई देती है वह करकण्डचरिउ में नहीं । इसका एक कारण यह भी रहा है कि जायसी रहस्यवादी कवियों में अन्यतम गिने जाते हैं । रहस्य की चरम सीमा को प्राप्त करने के लिए जिस मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है उसमें असहनीय बाधाएं, विरह, प्रेम प्रादि का सामना साधक को करना पड़ता है । जायसी ने उन सबका चित्रण बड़ी तल्लीनता के साथ किया है। इसमें 17 संवादों की योजना की गयी है जिसने ग्रन्थ का लगभग आधा भाग समाहित कर लिया है। इसी दौरान रूपवर्णन के प्रसंग में रूपसौन्दर्य के पारम्परिक उपमानों की एक लम्बी श्रृंखला जोड़ दी गयी है जिसमें अतिशयोक्ति की झलक भी स्वाभाविक है।
___इसके विपरीत करकण्डचरिउ का फलक सीमित और लघु होने के कारण कनकामर वस्तुवर्णन और वस्तु संगठन के विभिन्न आयामों पर आसन नहीं जमा पाये । उनके उपमान भी अपेक्षाकृत संख्या में कम पड़ गये । यहां भी संवाद-योजना ने कथा-प्रवाह में अच्छा योगदान दिया है । देव और गोप संवाद (10.3-4), करकण्डु और शीलगुप्त मुनि संवाद (9वीं सन्धि), शुक और रत्नमाला संवाद (8), शुक और रतिवेगा संवाद, पद्मावती और रतिवेगा
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संवाद (7.15) आदि ऐसे संवाद हैं जो छोटे होते हुए भी गुणवत्ता की दृष्टि से अनेक पहलुओं को स्पर्श करते हैं।
इस प्रकार करकण्डचरिउ और पद्मावत के शिल्पविधान का तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह कहना असंगत नहीं होगा कि पद्मावत पर करकण्डचरिउ का प्रभाव परिलक्षित है। निःसंदेह अपभ्रंश काव्य हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य के वस्तुवर्णन और वस्तुसंगठन में उपजीव्य रहे हैं । जनता के सन्निकट पहुँचने के लिए उनमें लोकतत्त्वों का भरपूर प्राधार लिया गया है । उन पर अपने-अपने धर्म का रंग चढ़ाकर कवियों ने उन्हें यथास्थान और यथानुकूल परिवर्तित किया और उन्हें अधिकाधिक आकर्षक बना दिया । अलौकिक तत्त्वों के समावेश ने उनकी उद्देश्यप्राप्ति को और भी सरल कर दिया । अपने-अपने सिद्धान्तों को लोकप्रिय बनाने के लिए कालानुसार जनभाषा के सहज प्रयोग ने उनकी शैली को और अधिक सशक्त बना दिया। प्रस्तुत विषय प्रबन्ध की दृष्टि से बहुत अच्छा है । इस आलेख में हमने उसके कतिपय तत्त्वों पर ही अध्येताओं का ध्यान आकर्षित किया है ।
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1.
तन चितउर मन राजा कीन्हा । हिय सिंहल बुष पदमिनी चीन्हा । गुरु सुमा जेइ पंथ दिखावा । बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा । नागमती यह दुनिया धन्धा । बांधा सोइ न एहि चित बंधा । राघव दूत सोइ संतानू । माया पलाउदीन "सुलतानू ॥ प्रेम कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेहू जो मैं पारहु ।।
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एकत्व-भावना
जीवहो सुसहाउ रण अस्थि को वि, गरयम्मि पडतउ घरइ जो वि । सुहिसज्जण - गंदरण - इट्ठभाय, ण वि जीवहो जंतहो ए सहाय । रिणय जणणि जणणु रोवंतयाई, जीवें सहुँ ताई ण पउ गया। घणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ, एक्कल्लउ भुंजइ धम्मु पाउ ।
अर्थ-जीव का ऐसा कोई सहायक नहीं है जो उसे नरक में गिरने से बचा ले । जीव के जाते समय मित्र-पुत्र, स्वजन-प्रियजन, भ्राता ये कोई भी सहायक नहीं होते । माता-पिता रोते हैं पर जीव के साथ एक पग भी नहीं जाते । धन भी घर के बाहर एक पग भी साथ नहीं जाता । जीव अकेला ही पुण्य (धर्म) व पाप का फल भोगता है।
करकण्डचरिउ 9.9
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करकंडचरिउ की अध्यात्म-चेतना
___-डॉ० सूर्यनारायण द्विवेदी
अपभ्रंश साहित्य को प्राकार देने में अन्य धर्मावलम्बियों की भांति जैन-रचनाकारों ने भी विशेष प्रयत्न किया था। यह प्रयत्न कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण रहा है । इसमें जहां एक ओर लोकाश्रित कथानकों के माध्यम से अपनी बात को जन-सामान्य तक पहुंचाने का प्रयत्न दिखलाई देता है वहीं धर्म और प्राचार की दृष्टि से मानवजीवन को उदात्त रूप देने की लालसा भी। ऐसा साहित्य दो रूपों में मिलता है-एक तो प्रबन्धकाव्य के रूप में या फिर मुक्तक, रूपक और स्फुट काव्य के रूप में। प्रबन्धकाव्य भी दो श्रेणी के मिलते हैं -पुराण-साहित्य या चरितसाहित्य । पुराणों में भी चरित्र ही वर्णन के विषय रहे किन्तु उनका दृष्टिकोण उन पौराणिक महापुरुषों के जीवन को उद्धृत करना था जो तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, प्रतिवासुदेव और बलदेव के रूप में सामने आये । चरित काव्यों में उनकी दृष्टि इससे अलग चरित्रों की ओर गयी है जिनमें जन-धर्म-प्रवर्तित अध्यात्मचेतना को कथानकों के माध्यम से उजागर किया गया है । ऐसे कथानक भी लोक में किसी न किसी रूप में या तो ऐतिहासिक क्रम में उपलब्ध थे या फिर जनता के बीच प्रादृत । करकण्डचरिउ इसी तरह का एक प्राध्यात्मिक काव्य है जिसकी प्रकृति वर्णनप्रधान किन्तु जिसका प्रतिपाद्य पंचकल्याण और दूसरे इसी प्रकार के व्रतों, उपवासों और तपस्यानों के माधार पर मानबीय चेतना के शुद्धिकरण की महत्ता से सम्बद्ध है।
करकण्डचरिउ का कथानक चम्पापुरी के राजा घाड़ीवाहन और रानी पद्मावती के पुत्र करकण्डु से सम्बद्ध है । बालक के हाथ में खुजली होने के कारण उसका नाम करकण्डु
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रखा गया । करकण्डु पहले एक आदर्श राजा के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं जहां अनेक प्रकार की आश्चर्यजनक और सामान्यतया अविश्वसनीय कथाएँ बीच-बीच में आई हैं । करकंडचरिउ की पाठ सन्धियां उनके इसी प्रकार के चरित्र से सम्बद्ध हैं जिनमें जन्म-जन्मान्तर की विविध कथानों को आश्रय मिला है। अध्यात्मचेतना से सम्बद्ध मूल बातें इस काव्य की नवीं सन्धि में मिलती हैं जहां करकण्डु के राज्य के प्रधान नगर चम्पानगर के बाहर उद्यान में शीलगुप्त नाम के जैन मुनि का आगमन होता है जिसे सुनकर नरेश्वर करकण्डु उनके दर्शन के लिए उद्यान में जाना चाहते हैं । यहां से उनके अध्यात्म-जीवन का प्रारम्भ होता है ।
महान् पुरुषों का विशेष प्रकार के व्रत, उपवास और तपस्या के विधानों के पालन से अलौकिक तेज से जुड़ जाना असम्भव बात नहीं है । शीलगुप्त के सम्बन्ध में भी उद्यान का अधिपति ऐसी ही बात कहता है-'जिनके दर्शन से सिंह भी उपशान्त हो जाता है और हाथी के मस्तक का आग्रह नहीं करता, जिनके दर्शन से परस्पर वैर धारण करनेवाले प्राणी भी अपने मन में मार्दव भाव ले लेते हैं, जिनके दर्शन से कोई अणुव्रत ले लेते हैं और जिनेन्द्र को छोड़कर अन्य किसी में मन नहीं देते, कोई गुणव्रत ग्रहण कर लेते हैं और पुनः अन्य शिक्षाव्रत लेते हैं । यह उनके सम्यक्त्व प्राप्ति की सूचना देनेवाला वर्णन तो है ही साथ ही एक पूर्ण उपदेशक की भूमिका से भी प्रोत-प्रोत है। राजा करकण्डु उनके इस शील से निश्चित रूप से प्रभावित होता है और उनके दर्शन की लालसा हृदय में संजोकर चल पड़ता है।
प्रात्मकल्याण की भावना जीवमात्र का सहज स्वभाव है क्योंकि भवान्तर में घूमता हुआ वह विविध योनियों में होता हुमा भी इस एक वासना से कभी मुक्त नहीं होता कि उसे सुख और शान्ति मिलनी चाहिए । अनादिकाल से अन्वेषण का चलनेवाला यह क्रम जब कालशक्ति द्वारा परिपक्वता प्राप्त करता है तो उचित अवसर पर उसे उन महान् पुरुषों से जुड़ने . का सौभाग्य मिलता है जो ऐसे पथ का दिग्दर्शन कराने में समर्थ होते हैं । यह बात जैन, बौद्ध, सौगतिक, सौत्रान्तिक, शैव, शाक्त और वैष्णव आदि सभी धर्मों में देखने को मिलती है । जैन धर्म की विशेष भावना से प्राप्लुत करकण्डचरिउ में भी ऐसे ही पथ का अनुसरण किया गया है । शीलगुप्त के प्रागमन की बात जानकर नरेश्वर करकंडु का उस दिशा में प्रस्थान इस बात का द्योतक है कि आत्यन्तिक सुख और शान्ति के लिए उनकी प्रात्मा प्राकुल है और उनकी चेतना ऐसे पथ की ओर अग्रसर होने के लिए प्रस्तुतप्राय है। इसीलिए उद्यान के अधिपति द्वारा शीलगुप्त के आगमन की सूचना मिलने पर राजा ने तत्काल सिंहासन छोड़ दिया और मुनिवर के चरणों का स्मरण करते हुए सात पग आगे बढ़ा । उन क्षणों में वह अकेला नहीं था। अपने ही समान लालसावाले, नगर के बहुत से लोगों को उसने साथ ले लिया । यह बात केवल अपने मुक्त होने के लिए नहीं अपितु अपने साथ अन्य बहुत से लोगों के मुक्त होने की कल्याणभावना से युक्त होने का प्रमाण है ।
अध्यात्म-पथ का अनुसरण करनेवाले ऐसे महापुरुषों को वैराग्य की उत्कट भावना के माध्यम से गुजरने दिया जाना आवश्यक समझा जाता है। नरेश्वर करकण्डु के सामने भी शोकव्याकुल स्त्री का उन क्षणों में सामने आना, संसार के दुःखद प्रसंग को उनके नेत्रों के
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समक्ष प्रस्तुत कर उनमें वैराग्य उत्पन्न करता है जिसे देखकर वे कह उठते हैं-'धिक, धिक्, यह मर्त्यलोक बड़ा असुहावना है, शरीर का भोग ही मानव के दुःख का कारण है, यहां समुद्र के तुल्य महान् दुःख हैं तथा भोगने का सुख मधुबिन्दु के समान अत्यल्प । हाय, जहाँ मानव दुःख से दग्धशरीर होकर बुरी तरह कराहता हुमा मरता है ऐसे संसार में निर्लज्ज व विषयासक्त मनुष्य को छोड़, कहो और कौन प्रीति कर सकता है ।2 करकण्डु की यह वैराग्य भावना उसे संसार का यह असुहावना रूप ही नहीं दर्शाती अपितु उसकी अनित्यता और चंचलता की ओर भी इंगित करती है। अन्त में करकण्डु इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं 'जो वैराग्य भाव को प्राप्त होकर इस अनित्य अनुप्रेक्षा का ध्यान करता है, वह नर सुललित और मनोहर गात्र होकर देवों के विमान को सुशोभित करता है।'
जैनधर्म के अनुसार वैराग्य भावना की पुष्टि के लिए बारह अनुप्रेक्षात्रों से गुजरना पड़ता है-अनित्य (9.5-6), प्रशरण (9.7), संसरण (9.8), एकत्व (9.9), अन्यत्व (9.10), अशुचित्व (9.11), प्रास्रव (9.12), संवर (9.13), निर्जरा (9.14), लोक (9.15), बोधिदुर्लभत्व (9.16) और धर्मानुप्रेक्षा (9.17)। करकण्डचरिउ में नवीं सन्धि के पांचवे खण्ड से लेकर सत्रहवें खण्ड तक इसके रचनाकार श्रीकनकामर ने इन बारह अनुप्रेक्षाओं के बीच से नरेश्वर करकण्डु को चलने दिया है । सबसे पहले उनमें संसार की वस्तुओं के प्रति अनित्य भावना प्रकट होती है अर्थात् धर्म को छोड़कर वे संसार की अशेष वस्तुओं को अनित्य मानने की स्थिति में आ जाते हैं। उनकी चेतना में यह सत्य प्रकट हो उठता है कि सत्य को छोड़कर जीव की और कोई दूसरी शरण नहीं है। उन्हें यह विश्वास हो जाता है कि जीव अपने कर्मों का एकमात्र उत्तरदायी होता है। वे यह अनुभव करते हैं कि आत्मा शरीर से भिन्न है । उन्हें यह विश्वास होने लगता है कि यह पंचभौतिक शरीर और शारीरिक वस्तुएँ अपवित्र हैं । उन्हें यह लगता है कि प्रास्रव अर्थात् कर्म-प्रवेश के कारण ही जीव में यह अशुचित्व आया है । वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अपने भीतर संवर भाव का अर्थात् कर्म के प्रवेश के निरोध की भावना आवश्यक है और यह कि निर्जराभावना के बिना जीव में प्रविष्ट कर्म पुद्गलों को बाहर निकालना सम्भव नहीं है। यही क्यों, लोकभावना अर्थात् जीवात्मा, शरीर और जगत् सभी द्रव्य हैं । इनमें से जीव की मुक्ति के लिए शरीर और जगत् को उससे अलग करना आवश्यक है। नरेश्वर करकण्डु को यह भी लगता है कि जो विशेषता मुनि शीलगुप्त में आई है वह अत्यन्त दुर्लभ है अर्थात् सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र दुर्लभ हैं तथा सबसे अन्त में धर्म-मार्ग में स्थिरता और उसके अनुष्ठानों के प्रति सावधानी आवश्यक है । इस प्रकार इन अनुप्रेक्षात्रों का मन से स्मरण करता हुअा, विषयों से हटकर चलता हुआ नरेश्वर करकण्डु मुनि तक पहुंचता है, अपनी राजसभा से चलकर शीलगुप्त तक पहुंचने के बीच में रचनाकार ने इन सम्पूर्ण अनुप्रेक्षाओं को करकण्डु के मन और मस्तिष्क में इस प्रकार गुजार दी हैं कि पाठक को यह नहीं लगता कि करकण्डु ने इतने थोड़े समय में इतनी सारी मानसिक क्रियाओं को कैसे सम्पादित किया।
शीलगुप्त मुनि के सामने पहुँचते-पहुंचते करकण्डु की उस समय की स्थिति का वर्णन करते हुए कनकामर कहते हैं 'इन अनुप्रेक्षाओं को मन में स्मरण करता हुअा, स्वयं को विषयों
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से पराङ्मुख बनाता हुआ, महिलाओं के समूह को तृण के समान गिनता हुआ, श्रवणों को प्यारी वाणी सुनाता हुआ, चलायमान चपल मन को स्थिर करता हुआ, करकण्ड चलते-चलते नन्दनवन में पहुंचा। उसने उस विशाल नन्दनवन को देखा जो किन्नरों और खेचरों के कोलाहल से परिपूर्ण था। फिर उसने उस उपवन में उन शीलों के निधान (शीलगुप्त) मुनि को देखा जो क्रोधादि कषायरूप अग्नि को बुझाने के लिए मेघ थे, जिनका शरीर ज्ञान की किरणों से विस्फुरायमान था, जो कामरूपी किरात के हृदय के शल्य थे, जो मोहरूपी भट को पराजित करने वाले मल्ल थे। जो दशलक्षणधर्म के निवास तथा परसमय (मिथ्यामत) रूपी कूड़े-करकट के हुताश थे । जो तपश्रीरूपी कामिनी के वदन में अनुरक्त थे, जो कर्मबन्ध व कर्मों के बन्धक हेतुओं से रहित थे, जो जन्म और मरण का नाश करनेवाले थे, दो प्रकार के संयम के निधान थे, तथा शिवकामिनी के मुख के उत्तम तिलक थे । स्पष्ट ही यहाँ करकण्डु और मुनि शीलगुप्त दोनों का स्वरूप इस प्रकार अंकित किया गया है कि गुरु और शिष्य की प्रकृति और प्रवृत्ति आमने-सामने लाई जा सके। सच तो यह है कि जब तक प्यास जागृत न हो जल का महत्त्व ही नहीं होता। इसीलिए पहले करकण्डु में इस तरह की प्यास जगाई गयी है जो शीलगुप्त के सामने पहुँचते-पहुंचते उसे परम आकुल रूप में प्रस्तुत कर रही है। करकण्डु अकेले तो नहीं थे, उनके साथ बहुत से और भी अनुप्रेक्षक थे, अतएव उदार भावना से प्रेरित होकर उन्होंने मुनि शीलगुप्त से उस परमधर्म की जिज्ञासा की जो अज्ञान और दुःख समूह को नष्ट कर सके, अनुपम मोक्ष सुख में वृद्धि कर सके और लोकमात्र के लिए हितकारी हो ।
- जीवराशि मात्र के प्रति कल्याण की भावना जहां करकण्डु को विशाल हृदयवाला बना देती है वहीं दूसरी ओर मुनि शीलगुप्त की दृष्टि में उसे महत्त्वपूर्ण । वे उसे स्पष्टरूप से परमधर्म का उपदेश देने लग जाते हैं। वे कह उठते हैं-'धर्मरूपी वृक्ष दो प्रकार का होता है-श्रावकधर्म और मुनिधर्म। जब यह धर्मरूपी वृक्ष व्रतरूपी जल से सींचा जाता है तब वह भली प्रकार से बढ़ता है । इसके लिए मुनि ने उन्हें दो प्रकार के व्रतों का उपदेश दिया-गृहस्थव्रत और मुनिव्रत । गृहस्थव्रत को अणुव्रत और मुनिव्रत को उन्होंने महाव्रत बतलाया। अणुव्रत ही अत्यन्त सूक्ष्मरूप में महाव्रत कहे जाते हैं । गृहस्थ पहले अणुव्रत के पालन में ही लगे । इनके सम्यक् पालन से सद्विचार और सदाचार की पुष्टि होती है । ये व्रत हैं-अहिंसा, अमृषा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पांच अणुव्रत हैं। इन्हीं के अनुसार गृहस्थों के कुछ और भी व्रत बताये गये हैं जिन्हें शिक्षाव्रत कहा गया है-समता, संयमभावना, आर्त और रौद्र ध्यानों का परिहरण, उपवास, पात्र को चतुर्विधदान-जीवों पर दया, ज्ञान-दान, रोगियों की सेवा, भोजनदान और अन्त में मन से सल्लेखना द्वारा प्राणविसर्जन । शीलगुप्त मुनि का कहना है कि जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें मुक्तिरूपी वधू की अभिलाषापूर्ति का सुख प्राप्त होता है।"
ये अणुव्रत और शिक्षाव्रत गृहस्थ से सम्बद्ध हैं । इनका पालन मनुष्य की बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धि के लिए परम आवश्यक है । जैसे करकण्डु के चरित्र के इस अन्तिम खण्ड
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से पहले उनके जीवन में एक नियमबद्धता और चरित्र की शुद्धि दिखलाई पड़ी थी, उसे वैराग्योदय के साथ रचनाकार कसे सोपानवत् प्राचार-पालन से जोड़ता हुमा उनकी पंचभौतिक और प्रात्मशुद्धि को सम्पादित किया है जो इस बात का द्योतक है कि जनदर्शन की मूलभित्ति विशुद्ध, प्रामाणिक और सोपानवत् प्राचार पर आधारित है । जैनदर्शन में जिन तत्त्वों का विशेष रूप से विचार और विस्तार मिलता है वे द्रव्य कहे गये हैं। वे हैं-जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव और अजीव इन दोनों को द्रव्य कहने का तात्पर्य है-जीव मतलब प्रात्मा की संसारदशा, इसमें प्राण होता है और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रियजन्य शक्ति भी। शुद्धनय के अनुसार जीव में विशुद्ध ज्ञान तथा दर्शन होता है किन्तु व्यवहार दशा में कर्म की गति के प्रभाव से उसका आच्छादन हो जाता है । अणुव्रत और शिक्षाव्रतों के द्वारा उसके इसी द्रव्यरूप को शुद्ध करने की प्रक्रिया जनदर्शन में निहित है। जिनके द्वारा जीव द्रव्यत्व के स्थूल प्रभाव से मुक्त होकर अनुप्रेक्षाओं की सहायता से कर्म पुद्गलों से मुक्त होकर जिन बनने की शक्ति पाता है ।
. जैसा कि पहले कहा गया है अणुव्रत ही अपने सूक्ष्म रूप में मुनिव्रत या महाव्रत कहे जाते हैं । इन महाव्रतों का पालन जीव को 'जिन' रूप में प्रस्तुत कर देता है । ये व्रत हैंअहिंसा, अमृषा, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । मुनि कनकामर के शब्दों में-'जहां क्षणमात्र के लिए भी माया (मन की वक्रता) का प्रवेश नहीं होता, जो त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करता है वह असंख्य लाख भोगों को भोगता है । जो अनुराग के कारण झूठ वचन नहीं बोलता वह अपने वचन से वृहस्पति को भी जीत लेता है । जो पराये धन का कदापि अपहरण नहीं करता वह इन्द्र को भी चिन्तित कर देता है । जो नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह असीम मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है। जो दो प्रकार (अन्तरंग व बहिरंग) के परिग्रह का परिहरण करता है, वह संसाररूपी महासमुद्र को पार कर लेता है।' जनदर्शन में प्रात्मा (जीव) की मुक्ति का यह चरम सोपान है जो क्रमश: वैराग्य से शुरू होकर मोक्ष स्थिति की प्राप्ति तक चलता रहता है । मुनिवर शीलगुप्त ने नरेश्वर करकण्डु को जो व्रत बतलाये, मोक्ष उनका सबसे महत्त्वपूर्ण परिणमन है, जो इन विधियों का पालन करता है मुनि शीलगुप्त के अनुसार वह सम्यक्-ज्ञान, सम्यक् प्राचार और सम्यक् विचार की समावस्था मोक्ष का परम अधिकारी होता है । जैन शास्त्रों में मोक्ष के दो भेद स्वीकार किये गये हैंभावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । भावमोक्ष वास्तविक मोक्ष से पहले की स्थिति है जहां घातीय कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का नाश होता है । इसके बाद अघातीय कर्मों का अर्थात् आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय का भी नाश होता है तब जाकर आत्मा को द्रव्यमोक्ष की स्थिति प्राप्त होती है । यह वह अवस्था है जब जीव सभी कर्मों और प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक, प्रौदयिक और ममत्व भावों से भी मुक्त होकर स्वाभाविक ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । मुनि शीलगुप्त ने इसीलिए करकण्डु को इन व्रतों, उपवासों, तपस्याओं का महत्त्व बतलाते हुए मुक्ति के प्रति प्रेरित किया है जिसके कारण करकण्डु ने वैराग्यपूर्वक पंचकल्याणवत धारण किया, फिर तपस्यापूर्वक उन्होंने माया, मान, लोभ और मोह को अपने से बाहर फेंक दिया, चंचल इन्द्रियों का संवरण किया, हृदय में परमात्मा का ध्यान करते हुए
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कर्मरूपी वृक्ष को ध्यानाग्नि में जला दिया । कामोद्दीपन का परिहार करते हुए नेत्रों को नासाग्र पर निवेशित करके निर्मल आकाश के सदृश मलरहित परमात्मज्ञान में अपने को निवेशित कर आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया। .
कनकामर द्वारा विरचित यह प्रबन्धकाव्य एकसाथ कई वैशिष्ट्यों को अपने में संजोये है। उसे उत्तमकोटि की साहित्यिकता, सामाजिक उत्तरदायित्व, रीति-नीति और अध्यात्मचेतना को प्रश्रय देते हुए इस रूप में प्रस्तुत किया है जो काव्य का एक महनीय प्रयोजन कहा गया है। यह ठीक है कि इसने भारतीयदर्शन की एक विशेष धारा को अपनी रचना की पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार किया है और उसके अनुसार अपने प्रधान और अप्रधान चरित्रों की सृष्टि की है, किन्तु कथानक में इतनी सहजता और कोमलता है कि इस विशेष पद्धति को अधिक बहुमान न देनेवाला भी इसलिए अवश्य पसन्द करेगा कि उसमें मनुष्य के उत्तम प्राचार और उत्तम विचार को महत्ता दी गई है और पग-पग पर प्रायोगिक स्तर पर उसे जीवन में उतारने का आग्रह ही नहीं चरित्रों के माध्यम से उसे प्रयोजित होते भी दिखाया गया है । इसका सीधा सा तात्पर्य है बातों के बदले जीवन-क्षेत्र में उन महत्तम सत्यों को चारित्रिक स्तर पर ढालने की अनिवार्यता के प्रति प्राग्रह । महत्त्वपूर्ण वह नहीं होता जो बड़ी-बड़ी बातें कर सकता है अपितु वह होता है जो बड़ी बातों के अनुसार अपने जीवन को चलाता है । इन अर्थों में अन्य जैन रचनाकारों की भांति कनकामर की यह रचना निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है।
आचारपालन यद्यपि जीवन का बाह्य अंग सा दिखलाई देता है किन्तु बात ऐसी है नहीं। किसी भी बड़े धर्म में, किसी भी बड़ी विचारधारा में प्राचार को इसलिए महत्त्व दिया गया है कि उसके द्वारा मनुष्य के विचार, मनुष्य की कल्पनाएँ और भावनाएँ प्रभावित होती हैं । उत्तम आचार उत्तम विचार और व्यवहार का पोषक तत्त्व है । जैनाचार्यों ने बड़ी बातें न कर व्रतों, उपवासों, तपस्यानों के आधार पर ऐसी प्राचार परम्परा को आत्मसात् करने का प्रयत्न किया है जो मानवीय चेतना को तह तक प्रभावित करते हैं । उनका पालन किसी भी मनुष्य के लिए महत्त्व का विषय हो सकता है । इन प्राचार्यों के उपदेश में जो सबसे बड़ी बात है वह है इनके 63 महापुरुषों का जो चरित्र सामने लाया गया है वह न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिए महत्त्वपूर्ण है अपित संसार के किसी भी कोने में रहनेवाले मानव के लिए प्रेरणाप्रद है क्योंकि उनकी चेतना ने अपने जीवन के द्वारा अपने को प्राचारमापक तत्त्व के रूप में प्रस्तुत किया है। करकण्डचरिउ में कनकामर विभिन्न कथानों के माध्यम से धीरे-धीरे अपने पाठक की मनःस्थिति को ऐसे सहज बिन्दु पर ले जाते हैं जो उसे संसार की अनित्यता के प्रति सावधान तो करता ही है, संसार के लोगों के द्वारा इस महत्तम सत्य की प्राप्ति के प्रति भी उत्प्रेरित करता है। वह जीव को परमात्मा के समानान्तर लाकर तपस्या के बल पर खड़ा होने की बात जब कहता है तो निश्चित समझना चाहिए कि उसका उद्देश्य मनुष्य को भव्यतम स्थितियों तक पहुंचाना है ।
तपस्याओं के दो स्वरूप-बाह्य तपस्याएं तथा अन्तरंग तपस्याएँ के रूप में जो उन्होंने बतलाए उनका लक्ष्य मूलतः द्रव्यशुद्धि है जो कषाय के रूप में जीव के साथ लगी रहती है।
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बाह्य तपस्या के रूप में उन्होंने अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, विविक्त शय्यासन
और कायक्लेश तथा अन्तरंग तपस्या के रूप में प्रायश्चित, विनय, साधुसेवा, स्वाध्याय, विषयविराग और ध्यान को स्वीकार किया है । तपस्या का यह क्रम इतना सहज और इतना उत्तम है कि कोई भी इनका पालन करनेवाला उन उत्तम स्थितियों को प्राप्त कर सकता है जो जैन मुनियों के द्वारा निर्दिष्ट हैं । बाहर से काफी कठिन दिखलाई देनेवाली ये विधियां उत्तम लक्ष्य के प्रति समर्पित भक्ति को डिगानेवाली नहीं हो सकती, हां उनके लिए अवश्य भयावह और अविश्वसनीय हो सकती हैं जिनकी इन्द्रियां विकल है, जिनका मन चंचल है और जिनका चित उत्तम लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं है। एक नहीं अनेक जैन मुनियों के उदाहरण इस दिशा की ओर संकेत करते हैं जिन्होंने इन ही विधियों का आधार लेकर जीवन को उत्तम लक्ष्य तक पहुंचाया । कनकामर का करकण्डचरिउ ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा का उत्तम स्रोत हो सकता है जो चाहे किसी जाति, सम्प्रदाय, देश और काल के हों लेकिन जिनमें उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प हो अन्यथा और लोगों के लिए यह मात्र10 बात का विषय है।
जैनों के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जिनकी पवित्र कीति अनादिकाल से विश्व को पालोकित कर रही है उन्होंने यह स्पष्ट स्वीकार किया था कि मनुष्य का देह केवल विषयभोगों के लिए समर्पित होने के लिए नहीं है अपितु, उस दिव्य तपस्या के लिए है जिससे सत्त्व की शुद्धि होती है और अनन्त परमात्मसुख की उपलब्धि भी। यह सब कुछ महान् पुरुषों की भक्ति से प्राप्त होता है। ऐसे महान् पुरुषों का स्वभाव समानचित्त, प्रशान्त, क्रोधरहित सुहृदता से भरा हुआ और साधनायुक्त होता है ।
उनकी परम्परा का अनुसरण करते हुए जैनाचार्यों ने अत्यन्त संयमपूर्वक बिना किसी असावधानी के अपनी ओर से कुछ भी कपोलकल्पित न जोड़ते हुए उत्तरोत्तर मानवजाति को जिस रूप में दिया वह अनुकरणीय है। अपने प्राचार्यों के द्वारा सामने लायी गई परम्परा को जिस श्रद्धा और जिस विश्वास के साथ जैन साधकों ने जीवन में उतारा वह निश्चित ही श्रद्धा का विषय है। जिन रचनाकारों ने सिद्धांत के रूप में उन्हें अविकल रूप में परम्परा को अर्पित किया उनका महत्त्व किसी रूप में पूर्वाचार्यों का अनुसरण करने के कारण कम नहीं होता और जिन कवियों ने पुराण अथवा प्रबन्धादि साहित्य के रूप में उस अध्यात्म-चेतना को उत्तम चरित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने में रुचि ली, सत्य के प्रति उनका इतना महत्त्वपूर्ण आग्रह विशेष श्रद्धा का विषय है । करकण्डचरिउ विशेष प्रबन्धकाव्यों की श्रृंखला की वह विशेष कड़ी है जिनका प्रयत्न आज की मानवजाति के लिए अनुकरणीय है और इसका मूल कारण है उसमें निहित अध्यात्मचेतना का सोपानवत् उत्तरोत्तर सूक्ष्म स्थितियों तक कथा के माध्यम से आगे बढ़ाने की पद्धति । कुछ लोगों को व्रतों, उपवासों और तपस्यानों के बाह्यार्थनिरूपक होने का भ्रम हो सकता है किन्तु जो महापुरुष ये जानते हैं कि संसार की यात्रा प्रात्मा से पंचेन्द्रियों तक होती है और परमात्मपथ की यात्रा ऐन्द्रिय-विषयों के विराग से क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त, जीव और फिर प्रात्म और परमात्म स्थिति तक है उन्हें इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं हो सकता कि जैन तीर्थंकरों का दिखलाया हुआ यह अध्यात्मपथ मानवकल्याण की भावना से शुरू होकर मोक्षत्व की प्राप्ति तक फैला हुआ है जिसके विभिन्न
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सोपानों का व्यावहारिक स्तर पर अनुभव ही मनुष्य और उसके प्रति श्रद्धा और विश्वास की लौ प्रतिष्ठित कर सकता है । कनकामर की यह रचना इसी दिशा में एक अतिविशिष्ट प्रयत्न समझा जाना चाहिये।
1. जसु दंसणे हरि उवसमु सरेइ, करिकुंभहो गाहु ए सो करेइ ।
अवरुप्परु वइरई जे वहंति, तहो दंसरणे मदउ मणे लिहंति । जसु दंसणे अणुवय के वि लिंति, जिणु छंडिवि अण्णहिं मणु ण दिति ।
केहि मि मरिण गहियई गुणवयाइँ, प्रवराई मि पुणु सिक्खावयाई । 9.1.5-8 2. धी धी असुहावउ मच्चलोउ, दुहकारणु मणुवह अंगभोउ । ____रयणायरतुल्लउ जेत्थु दुक्खु, महुबिंदुसमाणउ भोयसुक्खु ।
हा माणउ दुक्खई दड्ढतणु विरसु रसंतउ जहिं मरइ ।
भणु णिग्घिणु विसयासत्तमणु सो छडिवि को तहिहं रइ करइ ॥ 9.4.7-10 3. णिज्झायइ जो अणुवेक्ख चल वइरायभावसंपत्तउ ।
सो सुरहरमंडणु होइ गरु सुललियमणहरगत्तउ ॥ . 9.6.9-10
4. अणुवेक्खउ एयउ मणे सरंतु, विसयाण परम्मुहु सइँ करंतु ।
महिलाण णिवहु तिणसमु गणंतु, सवणाण पियारी गिर भणंतु । मणु चवलु चलंतउ संथवंतु, संपत्तउ गंदणवणु भमंतु । जं किण्णरखेयररववमालु, तं विट्ठउ गंदणवणु विसालु । कोहाइजलणविद्दमणमेहु, जो गाणकिरणविप्फरियदेहु । जो कामकिरायहो हिययसल्लु, जो मोहभडहो पडिखलणमल्ल । दहलक्खणधम्महो जो णिवासु, परसमयकयारहो जो हुवासु । जो तवसिरिकामिणिवयणरत्तु जो कम्मणिबंधणबंधचत्तु । घत्ता- जो जम्मणमरणविणासयर दुविहमेयसंजमणिलउ । सो उववणे दिट्ठउ सीलणिहि सिवकामिणिवयणहो वरतिलउ ।
9.18.1-10
5. सो भणइ भडारा हरियछम्म, महो को वि पयासहि परमषम्म ।
घत्ता-जें कियई पणासइ दुहणिवहु परिवड्इ सिवसुहु अणुवमउ ।
त कहहि भडारा करुण करि इहलोयहं भव्वहं सग्गमउ ॥ 6. जो धम्मतर राय, सो होई दुहु भेय ।
वयजलई सिंचियउ, वड्ढेइ सुत्थियउ । 7. जो एयई अणुवयगुणवयई सिक्खावय पालइ दुद्धरई। ... सो - सासयवहुमुहलंपडउ पावेसइ सुक्खपरपंरई॥
9.19.8-10 .
9.20.3-4
9.23.9-10
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8. रिसिवयइँ पंच णिसुणेहि राय, खणु एक्कु ण पइसइ जेत्थु माय । तसथावरजीवहँ करइ रखख सो भुंजइ भोय प्रसंखलक्ख । प्रणुरायऐं प्रलिय ण कह भणेइ, सो वयणइँ सुरगुरु श्राह । जो परधणु कह व ण प्रवहरेइ, सो सुरवइ विवणम्मणु करे । जो नवविह कीरs बंभचेरु, सो पावइ सिवसुहु णठमेरु । जो दुबिहु परिग्गहु परिहरेइ, संसारमहणणउ सो तरेइ । 9. तउ घोर करेविणु सो गुणालु, णारणातरुमूलहिं किउ तियालु । पंचिदियजं ता संवरेवि, मरणवयरणसरीरहँ तणु करेवि । पालेविणु संजमु दुविहु सो वि, परमप्पड हियवएँ परिकलेवि । कारणाणले जालिवि कम्मरुक्खु, सिविरणे वि ण दीसइ जित्थु तुक्खु । तिरपरिगवहसमाणइँ कंचणाइँ, सम भाविवि वासी चंदरगाई । परिहरियाँ कामुक्कीयणाइँ, खासग्गे रिपवेसिवि लोयगाइँ । गिज्जुंजिवि श्रप्पउ परमरणाणि, कलरहियएँ गिम्मलरणहसमाणि । गियरूउ लहेविणु सो णियs फेडिवि कम्मणिबंध गई । सव्वत्थसिद्धि संपत्तु खणे करणयामरमुणिवर वयफलइँ । 10. मौनव्रतभुततयोऽध्ययन सघर्मव्यारव्यारहोजय समाधय श्राप वर्ष्याः । प्रायः परे पुरुष ते स्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्त्युत न पात्र तु दाध्मिकानाम् । श्रीमदभागवत्, 7.10.46
नायं देहो देहभाजांनृलोके कष्टान् कामानहंते विड्भुजां ये । तपोविष्यं पुत्रका येन सत्वं शुद्धयेद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यंत्वनन्तम् । महत्सेवां द्वारमाहुविमुक्तं स्तमोद्वरं योषितां सङिगसंगम् । महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता विमन्मयः सुहृदः साधवो ये ||
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O
9.24.2-7
10.27.2-10
श्रीमद्भागवत् 5.5.1-2
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संवर भावना
जो समत्तु धीरचित्तु उद्धरेइ, सो वि दुट्ठ मिच्छदिट्टि संवरेइ । . जो खमाएँ सुद्धियाएँ वावरेs, कोहवारि दुक्खकारि सो हरेइ । मद्दवेण जो चरेइ सुद्धएण, माणखंभु तासु जाइ णिच्छएण । अज्जवम्मि चित्तु देइ जो महंतु, सो हवेइ वंचणाविसो णिहंतु । कार्यपडे सुंदरे वि जो गिरोहु, सो णिरुत्तु पक्खलेइ लोहसीहु । धम्मे संतु भाउ देवि जो सरेवि, तं मणो वि मक्कडो वि सो धरेवि । पूययाएं पूयएइ वीयराज, तक्खणेण सो होइ दुट्ठराउ । धम्मसव्वु भावसुद्धि भाणजोइ, जो करेइ सो धरेइ काउलाई ।
अर्थ- जो धीरचित्त सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह दुष्ट मिथ्या दृष्टि को रोकता है, दूर रखता है । जो शुद्ध क्षमाभाव से कार्य करता है उसका मानरूपी स्तम्भ निश्चय से समाप्त हो जाता है । जो महान् पुरुष श्रार्जवभाव में चित्त रखता है वह छलरूपी विष का विनाशक हो जाता है । जिसे इस सुन्दर कायपिण्ड में रस नहीं है वह निश्चय ही लोभरूपी सिंह को स्खलित कर देता है । जो शांत भाव से धर्म का स्मरण कर मनरूपी मर्कट को वश में करता है, जो पवित्र भाव से वीतराग की पूजा करता है वह तत्क्षण ही दुष्ट राग का नाश करता है । जो सब प्रकार से धर्माचरण करता है, भावों में शुद्धि लाता है तथा योग-ध्यान करता है वह केवल - ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है ।
करकण्डचरिउ 9.13
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हेमचन्द्र-अपभ्रन्श-व्याकरण
सूत्र-विवेचन -डॉ० कमलचन्द सोगाणी
सूत्र-विवेचन* 26. सर्वादेर्डसेहाँ 4/355 - सर्बादेसेहाँ [ (सर्व) + (प्रादेः) + (ङसेः) + (हां)]
[(सर्व)- (आदि)5/1] इसेः (ङसि) 6/1 ही (हां) 1/1 सर्व→ सव्व आदि से परे सि के स्थान पर हां (होता है)। अपभ्रंश में सर्व- सम्व आदि अकारान्त पुल्लिग और नपुंसकलिंग सर्वनामों से
परे सि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर हां होता है। ...: सब्ब (पु., नपुं.)- (सव्व+सि) = (सव्व+हाँ) = सव्वहां (पंचमी एकवचन),
*गतांक से मागे बृहद् अनुवाद चन्द्रिका द्वारा चक्रधर नौटियाल, पृष्ठ, 74 (सर्वनाम-शब्द) प्राकृतमार्गोपदेशिका द्वारा बेचरदास जीवराज दोसी, पृष्ठ, 198, 199, 200 अभिनव प्राकृत व्याकरण द्वारा नेमीचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ, 196
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जैनविद्या
4/330 से सम्वाहां (पंचमी एकवचन)
4/355 4/330 इयर (दूसरा) (पु., नपुं.) - इयरहां इयराहां (पंचमी एकवचन) मन्न (दूसरा (पु., नपुं.) - अन्नहां अन्नाहां (पंचमी एकवचन) पुष्य (पहला) (पु., नपुं.) - पुव्वहां पुव्वाहां (पंचमी एकवचन) स (अपना) (पु., नपुं.) – सहां साहां (पंचमी एकवचन) त (वह) (पु., नपुं.) - तहां ताहां (पंचमी एकवचन) ज (जो) (पु., नपुं.) - जहां जाहां (पंचमी एकवचन) क (कोन, क्या) (पु., नपुं.) - कहां काहां (पंचमी एकवचन)
एक्क (पु., नपुं.) - एक्कहां एक्काहां (पंचमी एकवचन) 27. किमो डिहे वा 4/356
किमो डिहे [(किमः)+ (डिहे)] वा किमः (किम्) 5/1 रिहे (डिहे) 1/1 वा (प्र) = विकल्प से किम्→क से परे (सि के स्थान पर) डिहे, इहे विकल्प से (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग व नपुंसकलिंग अकारान्त सर्वनाम क से परे सि (पंचमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर इहे विकल्प से होता है ।
क (पु., नपुं.)-(क+सि) = (क+ इहे) = किहे (पंचमी एकवचन) 28. हिं 4/357
हिं[ (डे:)+ (हिं)] के (ङि)6/1 हिं(हिं) 1/1 (सर्व→ सन्य प्रादि से परे) डि के स्थान पर हिं (होता है)। अपभ्रंश में सम्य प्रादि अकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग सर्वनामों से परे कि (सप्तमी एकवचन के प्रत्यय) के स्थान पर हिं होता है । सम्व (पु., नपुं.)-(सव्व+ङि) = (सव्व+हिं) = सव्वहिं (सप्तमी एकवचन),
(4/330 से सव्वाहि (सप्तमी एकवचन)
4/357 4/330 इयर (दूसरा) (पु., नपुं.) - इयरहिं इयराहिं (सप्तमी एकवचन) अन्न (दूसरा) (पु., नपुं.) - अन्नहिं अन्नाहिं . (सप्तमी एकवचन) पुव (पहला) (पु., नपुं.) - पुवहिं पुव्वाहिं (सप्तमी एकवचन)
नपुं.) - एक्कहिं एक्काहिं (सप्तमी एकवचन) (पु., नपुं.) - तहिं ताहिं (सप्तमी एकवचन) (पु., नपुं.) - जहिं जाहिं (सप्तमी एकवचन) (पु., नपुं.) - कहि काहिं (सप्तमी एकवचन)
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जनविद्या 29. यत्तत्किभ्यो इसो डासुर्न वा 4/358
यत्तत्किम्यो सो गसुन [(यत्) + (तत) + (किंभ्यः) + (ङसः) + (डासुः) + (न)] वा [(यत्)-(तत्)-(किम्) 5/3] इस: (ङस्) 6/1 डासुः (डासु) 1/1 न वा (अ) = विकल्प से यत्→ज, तत्→त, किम्→क से परे ङस् के स्थान पर डासु→मासु विकल्प से (होता है)। अपभ्रंश में ज, त और क प्रकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग सर्वनामों से परे हुस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) के स्थान पर मासु विकल्प से होता है। ज (पु., नपुं.) - (ज+ ङस्) = (ज+आसु) = जासु (षष्ठी एकवचन) त (पु., नपुं.) - (त+ ङस्) = (त+पासु) = तासु (षष्ठी एकवचन) क (पु., नपुं) - (क+ ङस्) = (क + प्रासु) = कासु (षष्ठी एकवचन)
नोट-अन्य रूप अकारान्त पुल्लिग व नपुंसकलिंग सर्वनाम सम्व के समान होंगे। 30. स्त्रियां रहे 4/359
स्त्रियां रहे [(स्त्रियाम्) + (डहे)] स्त्रियाम् (स्त्री) 7/1 उहे (डहे) 1/1 स्त्रीलिंग में (इस् के स्थान पर) डहे→ प्रहे (विकल्प से) (होता है)। अपभ्रंश में स्त्रीलिंग में जा, ता और का से परे इस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) के स्थान पर महे विकल्प से होता है। जा (स्त्री.) - (जा+डस्) = (जा+महे) = जहे (षष्ठी एकवचन) ता (स्त्री.) - (ता+ ङस्) = (ता+अहे) = तहे (षष्ठी एकवचन) का (स्त्री.) - (का+ ङस्) = (का+अहे) = कहे (षष्ठी एकवचन)
नोट-अन्य रूप आकारान्त स्त्रीलिंग सर्वनाम सध्या के समान होंगे। 31. यत्सवः स्यमोवु 4/360
यत्तदः [(यत्) + (तदः)] स्यमोप॑ [(सि) + (अमोः) + ( ) त्रं [(यत्)-(तत्) 5/1] [(सि)-(अम्) 7/2] @ (ध्रु) 1/1 त्रं (त्र) 1/1 यत्→ज से परे सि और प्रम् होने पर (दोनों के स्थान पर) ध्रु (विकल्प से) (होता है) तथा तत→त से परे सि और अम् होने पर (दोनों के स्थान पर) त्रं (विकल्प से) (होता है)।
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जनविद्या
अपभ्रंश में पुल्लिग व नपुंसकलिंग ज से परे तथा स्त्रीलिंग जा से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) तथा प्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) के होने पर दोनों के स्थान पर ध्रु विकल्प से होता है तथा पुल्लिग व नपुंसकलिंग त से परे तथा स्त्रीलिंग ता से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) तथा अम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) के होने पर दोनों के स्थान पर त्रं विकल्प से होता है ।
ज (पु., नपुं.)-(ज + सि ) = ध्रु (प्रथमा एकवचन)
(ज + अम्) = J (द्वितीया एकवचन) त (पु., नपुं.)-(त + सि ) =त्रं (प्रथमा एकवचन)
(त + अम्) = त्रं (द्वितीया एकवचन) ता (स्त्री.) -- (जा+सि ) = ध्रु (प्रथमा एकवचन)
(जा+अम्) = ध्रु (द्वितीया एकवचन) जा (स्त्री) - (ता+सि ) = त्रं (प्रथमा एकवचन)
(ता+ अम्) = त्रं (द्वितीया एकवचन) नोट- हेमचन्द्र की वृत्ति के अनुसार ज और जा के स्थान पर जु (प्रथमा एकवचन)
__ (द्वितीया एकवचन) त और ता के स्थान पर तं (प्रथमा एकवचन)
(द्वितीया एकवचन)
32. इदमः इमुः क्लीबे
4/361
इदमः (इदम्) 5/1 इमुः (इमु 1/1 क्लीबे (क्लीब) 7/1 नपुंसकलिंग में इदम्→इम से परे (सि और प्रम् होने पर) (दोनों के स्थान पर) इमु (होता है)। अपभ्रंश में नपुंसकलिंग में सर्वनाम इम से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) तथा प्रम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर इमु होता है । इम (नपुं.)-(इम+सि ) = इमु (प्रथमा एकवचन)
(इम+अम्) = इमु (द्वितीया एकवचन)
33. एतदः स्त्री-पुं-क्लीबे एह एहो एहु
4/362.
एतदः (एतत्) 5/1 [(स्त्री)-(पुं)-(क्लीब) 7/1] एह (एह) 1/1 एहो (एहो) 1/1 एह (एहु) 1/1
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जैनविद्या
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पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एतत्→ एत (पु. नपु.), एता (स्त्री) से परे (सि और पम् होने पर) (दोनों के स्थान पर) क्रमशः एहो, एहु और एह (होता हैं) । अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एत (पु. नपु.), एता (स्त्री.) से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) और अम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर क्रमशः एहो, एहु तथा एह होते हैं । एत (पु. )-(एत + सि ) = एहो (प्रथमा एकवचन)
(एत + अम्) = एहो (द्वितीया एकवचन) एत (नपुं.)-(एत + सि ) = एहु (प्रथमा एकवचन)
(एत + अम्) = एहु (द्वितीया एकवचन) एता (स्त्री.)-(एता+सि ) = एह (प्रथमा एकवचन)
(एता+सि ) = एह (द्वितीया एकवचन) _34. एइर्जस्-शसोः 4/363
एइर्जस् [(एइः) + (जस्) ]-शसोः एइः (एइ) 1/1 [(जस्)-(शस्) 7/2] (पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) (एत (पु., नपुं.), एता (स्त्री.) से परे) जस् पौर शस् होने पर (दोनों के स्थान पर) एइ (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में एत (पु., नपुं.), एता (स्त्री.) से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) तथा शस् (द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर एइ होता है । एत (पु.)-(एत+जस्) = एइ (प्रथमा बहुवचन)
(एत+शस्) = एइ (द्वितीया बहुवचन) .... एत (नपुं.)-(एत+जस्) = एइ (प्रथमा बहुवचन)
___एइ (द्वितीया बहुवचन) ... एता (स्त्री.)-(एता+जस्) = एइ (प्रथमा बहुवचन)
(एता+शस्) = एइ (द्वितीया बहुवचन) 35. अदस ओई 4/364
[(प्रदसः)+ (मोइ)] अवसः (अदस्) 5/1 मोइ (ओइ) 1/1 (पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) अदस्→ प्रमु से परे (जस् और शस् होने पर) (दोनों के स्थान पर) अोइ (होता है)।
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जैन विद्या
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग और स्त्रीलिंग में प्रभु से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) तथा शस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर
होता है ।
प्रभु (पु. नपुं, स्त्री. ) - ( श्रमु + जस् ) = नोइ ( प्रथमा बहुवचन) ( श्रमु + शस् ) = नोइ ( द्वितीया बहुवचन)
4/365
[ ( इदमः ) + (प्रायः ) ]
ser: (इदम्) 6 / 1
36. इदम आयः
प्राय: (प्राय) 1 / 1
→
(पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में ) ( इदम् इम (पु., नपुं. ), इमा (स्त्री) से परे सि, भ्रम्, जस्, शस् आदि होने पर) इदम् इम (पु., नपुं.), इमा (स्त्री) के स्थान पर प्राय (पु., नपुं.), प्राया (स्त्री) (होते हैं) ।
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में इदम् इम (पु., नपुं.), इमा (स्त्री) से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय), भ्रम् ( द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय), शस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय ) प्राबि होने पर इम (पु., नपुं.), इमा (स्त्री) के स्थान पर प्राय (पु., नपुं.) व प्राया (स्त्री.) होते हैं ।
इम ( पु. ) - ( इम + सि) = (आय + सि ) = प्रायु, प्रायो, प्राय, प्राया (प्रथमा एकवचन ) (इम + जस् ) = ( प्राय + जस् ) = प्राय, प्राया ( प्रथमा बहुवचन) इम ( नपुं. ) - ( इम +सि ) (आय +सि ) = प्राय, आया, प्रायु
=
=
( प्रथमा एकवचन ) ( आय + जस् ) = प्राय, प्राया, प्रायई प्रायाइं (प्रथमा बहुवचन)
(इम + जस्)
इमा ( स्त्री . ) - ( इमा + सि ) = ( आया + सि ) = प्राया, आय,
( प्रथमा एकवचन )
(इमा + जस् ) = ( आया + जस्) = प्राया, प्राय, प्रायाउ, प्रायउ प्रायो, प्रायो (प्रथमा बहुवचन) अन्य रूप भी अकारान्त सर्वनाम सव्वं तथा प्राकारान्त सव्वा ( कहा ) को तरह चलेंगे |
37. सर्वस्य साहो वा 4/366
सर्वस्य [ ( साहः ) + (वा) ]
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जैन विद्या
सर्वस्य (सर्व) 6 / 1 साह: (साह) 1 / 1 वा ( अ ) = विकल्प से
सर्व सव्व (पु., नपुं.), सव्वा (स्त्री) के स्थान पर साह (पु., नपुं.), साहा (स्त्री.) विकल्प से ( होते हैं) ।
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में सर्व सव्व (पु., नपुं. ) सव्वा (स्त्री) के स्थान पर साह (पु., नपुं.), साहा (स्त्री.) विकल्प से होते हैं ।
नोट - साह के रूप पुल्लिंग व नपुंसकलिंग में सब्ब की तरह चलेंगे तथा स्त्रीलिंग साहा के रूप सा ( कहा ) की तरह चलेंगे ।
38. किम: कांइ-कवणौ वा
77
4/367
किम: ( किम् ) 6 / 1 काई - कवणी [ ( काई ) - ( कवण ) 1 / 2 ] वा (प्र) = विकल्प से
(पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में) किम् क (पु., नपुं.), का (स्त्री.) के स्थान पर काई (पु., नपुं. स्त्री.) और कवण (पु., नपुं.), कवणा (स्त्री.) होते हैं । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में किम् क (पु., नपुं), का (स्त्री.) के स्थान पर काई (पु., नपुं. स्त्री. ) तथा कवण (पु, नपुं), कवणा. (स्त्री.) होते हैं ।
नोट - काई सभी विभक्तियों व वचनों में काई ही रहता है । 1
कवण के रूप पुल्लिंग व नपुंसकलिंग में सब की तरह चलेंगे तथा स्त्रीलिंग कवणा के रूप सव्वा (कहा ) की तरह चलेंगे ।
1. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन द्वारा, वीरेन्द्र श्रीवास्तव, पृष्ठ 180
39. युष्मद सौ तुहुं
4/368
म : ( युष्मद् ) 5 / 1 सौ (सि) 7 / 1 तुहुं ( तुहुं) 1/1
युष्मद् तुम्ह से परे सि होने पर ( दोनों के स्थान पर) तुहुं (होता है) ।
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् तुम्ह से परे सि होने पर दोनों के स्थान पर तुहुं होता है ।
तुम्ह (पु., नपुं, स्त्री. ) - ( तुम्ह + सि) = तुहुं ।
40. जस् - शसोस्तु म्हे तुम्हइं 4/369
जस् [ ( शसो :) + ( तुम्हे ) ] तुम्हइं
[ ( जस्) - (शम्) 7 / 2] तुम्हे ( तुम्हे ) 1 / 1 तुम्हई ( तुम्हई) 1 / 1
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78.
जनविद्या
( युष्मद् तुम्ह से परे ) जस् और शस् होने पर ( दोनों के स्थान पर) क्रमश: तुम्हे र तुम्हइं (होते हैं)
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् तुम्ह से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) और शस् ( द्वितीया बहुवचन का प्रत्ययं ) होने पर दोनों के स्थान पर क्रमशः तुम्हे और तुम्हई होते हैं ।
- ( तुम्ह + जस् ) = तुम्हे (प्रथमा बहुवचन) ( तुम्ह + शस् ) = तुम्हई ( द्वितीया बहुवचन)
4/370
[ (ङ) + (मा) ] पई तई
[ ( टा ) - (ङि ) - ( श्रम् ) 3 / 1 ] पई ( प ) 1 / 1 तई ( तई ) 1 / 1
( युष्मद्- → तुम्ह से परे) टा, ङि और श्रम सहित पइं और तई ( होते हैं) । अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् एकवचन का प्रत्यय), ङि (सप्तमी एकवचन का प्रत्यय) एकवचन का प्रत्यय) सहित पहुं और तड़ होते हैं ।
तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री. )
तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री. )
41. टायमा पइं तइं
42. भिसा तुम्हहि
-
4/371
भिसा (भिस् ) 3 / 1 तुम्हहि ( तुम्हे हि ) 1 / 1
( युष्मद् तुम्ह से परे ) भिस् सहित तुम्हहि ( होता है) ।
तुम्ह से परे टा (तृतीया तथा भ्रम् ( द्वितीया
( तुम्ह + टा) = पइं, तई
( तुम्ह + ङि) = पई, तई
( तुम्ह + अम् ) = पइं, तई
43. ङसि - ङस्भ्यां तर तुज्झ तुध
( तृतीया एकवचन ) ( सप्तमी एकवचन ) ( द्वितीया एकवचन )
7
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् तुम्ह से परे भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हहि होता है ।
तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री. ) ( तुम्ह + भिस् ) = तुम्हहिं (तृतीया बहुवचन)
4/372
ङसि [ङभ्याम्) + (तउ) ] तुज्झ तुध
[ ( ङसि ) - ( ङस् ) 3/2] तउ (तउ) 1 / 1 तुज्झ ( तुज्झ ) 1 / 1 तुघ्र (तुन ) 1/1
( युष्मद् तुम्ह से परे ) ङसि और ङस् सहित तउ तुज्झ और तुध ( होते हैं) ।
→
अपभ्रंश में पुल्लिंग, नपुंसकलिंग तथा स्त्रीलिंग में युष्मद् तुम्ह से परे ङसि (पंचमी एकवचन का प्रत्यय) और ङस् ( षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) सहित तउ, तुझ प्रौर तुध होते हैं ।
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जैनविद्या
तुम्ह (पु., नपुं, स्त्री.)-(तुम्ह+सि) = तउ, तुझ और तुध्र (पंचमी एकवचन)
(तुम्ह+ ङस् ) = तउ, तुझ और तुध्र (षष्ठी एकवचन) 44. भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं 4/373
भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं [(भ्यस्) + (प्राम्भ्याम्) + (तुम्हहं)] [(भ्यस्)-(प्राम्) 3/2] तुम्हहं (तुम्हहं)] (युष्मद्→ तुम्ह से परे) भ्यस् और प्राम् सहित तुम्हहं (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् → तुम्ह से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन का प्रत्यय) और पाम् (षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हहं होता है । तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - . (तुम्ह+ भ्यस्) = तुम्हहं (पंचमी बहुवचन)
(तुम्ह+प्राम्) = तुम्हहं (षष्टी बहुवचन)
45. तुम्हासु सुपा
4/374
तुम्हासु (तुम्हासु) 1/1 सुपा (सुप्) 3/1 (युष्मद्→ तुम्ह से परे) सुप् सहित तुम्हासु (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में युष्मद् →तुम्ह से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय) सहित तुम्हासु होता है ।
तुम्ह (पु., नपुं., स्त्री.)-(तुम्ह + सुप्) = तुम्हासु (सप्तमी बहुवचन) 46. सावस्मदो हउं 4/375
साबस्मदो हर्ष [(सौ) + (अस्मदः) + (हउं)] सौ (सि) 7/1 अस्मदः (अस्मद्) 5/1 हउँ (हउं) 1/1 अस्मद् → अम्ह से परे सि होने पर (दोनों के स्थान पर) हउं (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् → प्रम्ह से परे सि (प्रथमा एकवचन का प्रत्यय) होने पर दोनों के स्थान पर हउं होता है । प्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - (अम्ह+सि) = हउं (प्रथमा एकवचन)
47. जस्-शसोरम्हे अम्हइं 4/376
जस् [(शसोः) + (अम्हे)] अम्हई [(जस्)-(शस्) 7/2] अम्हे (अम्हे) 1/1 अम्हई (अम्हई) 1/1 (अस्मद्-अम्ह से परे) जस् और शस् होने पर (दोनों के स्थान पर) प्रम्हे और प्रम्हइं (होते हैं)।
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जनविद्या
अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्-अम्ह से परे जस् (प्रथमा बहुवचन का प्रत्यय) और शस् (द्वितीया बहुवचन का प्रत्यय) होने पर अम्हे और अम्हइं होते हैं। अम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - (अम्ह+जस्) = अम्हे, अम्हइं (प्रथमा बहुवचन)
(अम्ह+ शस्) = अम्हे, अम्हइं (द्वितीया बहुवचन) 48. टा-यमा मई 4/377
टा [(ङि) + (प्रमा)] मई [(टा)-(ङि)-(अम्)3/1] मई (मई) 1/1 (अस्मद्→ प्रम्ह से परे) टा, डि और अम् सहित मई (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्→ अम्ह से परे टा (तृतीया एकवचन का प्रत्यय), ङि (सप्तमी एकवचन का प्रत्यय) तथा अम् (द्वितीया एकवचन का प्रत्यय) सहित मइं होता है। अम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - (अम्ह+टा) = मई (तृतीया एकवचन)
(अम्ह+ङि) = मई (सप्तमी एकवचन)
(अम्ह+ अम्) = मई (द्वितीया एकवचन) 49. अम्हेहि भिसा 4/378
अम्हेंहि (अम्हेहिं) 1/1 भिसा (भिस्) 3/1 (अस्मद् → अम्ह से परे) भिस् सहित प्रम्हहिं (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्→ प्रम्ह से परे भिस् (तृतीया बहुवचन का प्रत्यय) सहित अम्हेहि होता है ।
प्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) - (अम्ह+भिस्) = अम्हेंहिं (तृतीया बहुवचन) 50. महु मज्झ ङसि-डस्भ्याम् 4/379
महु (महु) 1/1 मझु (मझु) 1/1 [(ङसि)-(ङस्) 3/2] (अस्मद्-→अम्ह से परे) ङसि और ङस् सहित महु और मझु (होते हैं) अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्-→मम्ह से परे सि (पंचमी एकवचन का प्रत्यय) और ङस् (षष्ठी एकवचन का प्रत्यय) सहित महु और मझु होते हैं। प्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.) – (अम्ह+सि) = महु और मज्झ (पंचमी एकवचन)
(अम्ह+ ङस्) = महु और मज्झ (षष्ठी एकवचन)
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जनविद्या
81
51. अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् 4/380
अम्हहं [ (म्यस्) + (प्राम्भ्याम्)] प्रम्हहं (अम्हह) 1/1 [(म्यस्)-(प्राम्) 3/2] (अस्मद्-→प्रम्ह से परे) भ्यस् और पाम् सहित प्रम्हहं (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद् →अम्ह से परे भ्यस् (पंचमी बहुवचन का प्रत्यय) तथा प्राम् (षष्ठी बहुवचन का प्रत्यय) सहित प्रम्हहं होता है । प्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.)-(अम्ह + भ्यस्) = अम्हहं (पंचमी बहुवचन)
__ (अम्ह+आम्) = अम्हहं (षष्ठी बहुवचन) 52. सुपा अम्हासु 4/381
सुपा (सुप्) 3/1 अम्हासु (अम्हासु) 1/1 (अस्मद्→प्रम्ह से परे) सुप् सहित अम्हासु (होता है)। अपभ्रंश में पुल्लिग, नपुंसकलिंग व स्त्रीलिंग में अस्मद्→अम्ह से परे सुप् (सप्तमी बहुवचन का प्रत्यय) सहित अम्हासु होता है। प्रम्ह (पु., नपुं., स्त्री.)- (अम्ह+ सुप्) = अम्हासु (सप्तमी बहुवचन)
ऊपर हमने संज्ञा और सर्वनाम शब्दों की विभक्तियों से सम्बन्धित 52 सूत्रों का का विवेचन प्रस्तुत किया है। इन सूत्रों से फलित संज्ञा और सर्वनाम शब्दों के रूप एक साथ प्रागे प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
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82
जनविद्या
संज्ञा शब्द
बहुवचन
बहुवचन
अकारान्त पुल्लिग (देव)
इकारान्त पुल्लिग (हरि) एकवचन
एकवचन प्र. देव, देवा देव, देवा
प्र. हरि, हरी हरि, हरी देवु, देवो
द्वि. हरि, हरी हरि, हरी द्वि. देव, देवा देव, देवा
तृ. हरिएं, हरीएं हरिहि, हरीहिं
हरिं, हरी तृ. देवेण, देवेणं देवहि, देवाहि
हरिण, हरीण देवें देवेहिं
हरिणं, हरीणं च. देव, देवा देव, देवा (च. हरि, हरी हरि, हरी व देवसु, देवासु देवहं, देवाह
हरिहुं, हरीहुं ष. देवहो, देवाहो
प.
हरिहं, हरीहं दवस्सु पं. देवहे, देवाहे देवहुं, देवाहुं पं. हरिहे हरीहे हरिहुं, हरीहूं
देवहु, देवाहु स. देवि, देवे देवहि, देवाहिं स. हरिहि, हरीहि हरिहि, हरीहिं
हरिहुं, हरीहुं सं. देव, देवा देव, देवा सं. हरि, हरी हरि, हरी _ देवु, देवो देवहो, देवाहो
हरिहो, हरीहो ईकारान्त पुल्लिग (गामणी)
उकारान्त पुल्लिग (साहु) . एकवचन बहुवचन एकवचन
बहुवचन प्र. गामणी, गामणि गामणी, गामणि प्र साहु, साहू साहु, साहू द्वि. गामणी, गामणि गामणी, गामणि द्वि. साहु, साहू साहु, साहू . तृ. गामणीएं, गामणिएं गामणीहि, गामणिहिं त. साहुएं, साहूएं साहुहि, साहूहिं गामणी, गामणि
साहुं, साहूं गामणीण, गामणिण
साहुण, साहूण गामणीणं, गामणिणं
साहुणं, साहूणं च. गामणी, गामणि गामणी, गामणि (च. साहु, साहू साहु, साहू गामणीहुँ, गामणिहुँ २ व
साहुहुँ, साहूहूं गामणीहं, गामणिहं .
साहुह, साहूह पं. गामणीहे, गामणिहे गामणीहुँ, गामणिहुं पं. साहुहे, साहूहे साहुहुं, साहूहूं स. गामणीहि, गामणिहि गामणीहिं, गामणिहिं स. साहुहि, साहूहि साहुहिं, साहूहिं गामणीहुँ, गामणिहुं
साहुहूं, साहूहूं सं गामणी, गामणि गामणी, गामणि सं. साहु, साहू साहु, साहू गामणीहो, गामणिहो
साहुहो, साहूहो
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जनविद्या
83
ऊकारान्त पुल्लिग (संयभू)
एकवचन
बहुवचन प्र. सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंभु वि. सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंमु तृ. सयंभूएं, सयंमुएं सयंभूहि, सयंभुहि
सयंभू, सयंभु सयंभूण, सयंभुण
सयंभूणं, सयंभुणं च. सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंभु ।
सयंभूहुं, सयंमुहुँ
सयंमूह, सयंमुहं पं. सयंभूहे, सयंमुहे सयंमूहुं, सयंभुहुं स. सयंभूहि, सयंभुहि सयंभूहि, सयंभुहि
सयंमूहुं, सयंमुहुं सं. सयंभू, सयंभु सयंभू, सयंभु
सयंभूहो, सयंमुहो
प्रकारान्त नपुंसकलिंग (कमल) एकवचन
बहुवचन प्र. कमल, कमला कमल, कमला कमलु
कमलई, कमलाई अच्छिम→ अच्छिउं (अन्त्य वर्ण 'अकार' के स्थान पर उं
प्रत्यय होता है) द्वि. कमल, कमला कमल, कमला
कमलु कमलई, कमलाई
अच्छिम-अच्छिउं सं. कमल, कमला कमल, कमला
कमलई, कमलाई प्रच्छिउं कमलहो, कमलाहो
कमलु
शेष पुल्लिग के समान
इकारान्त नपुंसकलिंग (वारि) .
एकवचन प्र. वारि, वारी वारि, वारी
वारिइं, वारीइं वि. वारि, वारी वारि, वारी
वारिइं, वारी सं. वारि, वारी वारि, वारी
वारिइं, वारी
वारिहो, वारीहो शेष पुल्लिग के समान
उकारान्त नपुंसकलिंग (महु) एकवचन
बहुवचन प्र. महु, महू महु, महू
महुई, महूइं द्वि. महु, महू
महु, महू
महुई, महूई सं. महु, महू महु, महू
महुई, महूई
महुहो, महूहो शेष पुल्लिग के समान
।
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84
जनविद्या
प्राकारान्त स्त्रीलिए (कहा)
- एकवचन प्र. कहा, कह
बहुवचन कहा, कह कहाउ, कहउ कहानो, कहो कहा, कह कहाउ, कहउ कहानो, कहो कहाहिं, कहहिं कहा, कह
इकारान्त स्त्रीलिंग (मइ) एकवचन
बहुवचन प्र. मइ, मई • मइ, मई
मइउ, मईउ
मइयो, मईयो द्वि. मइ, मई मइ, मई
मइउ, मईउ
मइओ, मईओ तृ. मइए, मईए ___मइहिं, मईहिं (च. मइ, मई मइ, मई
द्वि. कहा, कह
तृ. कहाए, कहए (च. कहा, कह
al
A. A
प. कहाहे, कहहे कहाहु, कहहु । ष. मइहे, मईहे मइहु, मईहु । पं. कहाहे, कहहे कहाहु, कहहु पं. मइहे, मईहे मइहु, मईहु स. कहाहिं, कहहिं कहाहिं, कहहि स. मइहिं, मईहिं ___मइहिं, मईहिं सं. कहा, कह कहा, कह
सं. मइ, मई मइ, मई कहाउ, कहउ
मइउ, मईउ कहानो, कहो
मइनो, मईप्रो कहाहो, कहहो
मइहो, मईहो ईकारान्त स्त्रीलिंग (लच्छी)
___ उकारान्त स्त्रीलिंग (घेण) एकवचन बहुवचन एकवचन
बहुवचन प्र. लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छि प्र. घेणु, घेणू घेणु, घेणू लच्छीउ, लच्छिउ
घेणुउ, घेणूउ लच्छीओ, लच्छिनो
घेणुप्रो, घेणूमो द्वि. लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छिद्वि घेणु, घेणू
घेणु, घेणू लच्छीउ, लच्छिउ
घेणुउ, घेणूउ लच्छीरो, लच्छिनो
घेणुप्रो, घेणूग्रो तृ. लच्छीए, लच्छिए लच्छीहिं, लच्छिहिं . तु. घेणुए, घेणूए घेणुहिं, घेहि (च. लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छिच. घेणु, घेणू घेणु, घेणू
(प. लच्छीहे, लच्छिहे लच्छीहु, लच्छिहु । ष. घेणुहे, घेणूहे
पं. लच्छीहे, लच्छिहे लच्छीहु, लच्छिहु पं. घेणुहे, घेणूहे स. लच्छीहि, लच्छिहिं लच्छीहिं, लच्छिहिं स. घेणुहि, घेहि सं. लच्छी, लच्छि लच्छी, लच्छि सं. घेणु, घेणू
लच्छीउ, लच्छिउ लच्छीमो, लच्छिनो लच्छीहो, लच्छिहो
घेणुहु, घेणूहु घेणुहु, घेणूहु घेणुहि, घेहि घेणु, घेणू घेणुउ, घेणूउ घेणुप्रो, घेणूमो घेणुहो, घेणूहो
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जैनविद्या
85
अकारान्त स्त्रीलिंग (बहू) एकवचन
बहुवचन प्र. बहू, बहु बहू, बहु
बहूउ, बहुउ
बहूप्रो, बहुओ द्वि. बहू, बहु
बहू उ, बहुउ
बहूओ, बहुप्रो तृ. बहूए, बहुए बहूहि, बहुहिं
च. बहू, बहु
बहू, बहु ...... .
ष. बहूहे, बहुहे पं. बहूहे, बहुहे स. बहूहि, बहुहिं सं. बहू, बहु
बहूहु, बहुहु बहूहु, बहुहु बहूहि, बहुहिं बहू, बहु बहूउ, बहुउ बहूओ, बहुप्रो बहूहो, बहुहो
सर्वनाम शब्द
सन्
पुल्लिग-सव्व
नपुंसकलिंग-सम्ब एकवचन बहुवचन एकवचन
बहुवचन प्र. सम्ब, सव्वा सव्व, सव्वा प्र. सब, सव्वा सव्व, सव्वा सव्वु, सव्वो
सव्वु
सव्वई, सव्वाई सव्य, सव्वा सब्व, सव्वा.
द्वि. सव्व, सव्वा सव्व, सव्वा सव्वु
सव्वई, सव्वाई तृ. सव्वें सवहिं, सव्वाहिं
सबहिं, सव्वाहिं सव्वेण, सव्वेणं सव्वेहि
सव्वेण, सव्वेणं सव्वेहि च. सव्व, सव्वा . सव, सव्वाच. सव्व, सव्वा सब्ब, संव्या व सव्वसु, सव्वासु सव्वहं, सव्वाहं २ व सव्वसु, सव्वासु प. सव्वहो, सव्वाहो
। ष. सव्वहो, सव्वाहो सव्वस्सु
सव्वस्सु पं. सव्वहां, सव्वाहां सन्वहुं, सन्वाहुं पं. सव्वहां, सव्वाहां सव्वहुं, सव्वाहुं स. सवहि, सव्वाहिं सवहि, सव्वाहिं स. सवहि, सव्वाहिं सवर्हि, सन्वाहिं
तृ. सव्वें
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86
स्त्रीलिंग सव्वा
एकवचन
प्र. सव्वा, सव्व
द्वि. सव्वा, सव्व
तृ. सव्वाए, सव्वए
च. सव्वा, सव्व
व
ष. सव्वाहे, सव्वहे
पं सव्वाहे, सव्वहे स. सव्वाहिं, सव्र्व्वाहि
नोट
बहुवचन
सव्वा, सव्व
सव्वाउ, सव्वउ
सव्वाप्रो, सव्व
सव्वा, सव्व
सव्वाउ, सव्वउ
सव्वा, सव्व
सव्वाहिं, सव्वहिं
सव्वा, सव्व
सव्वाहु, सव्वहु
सव्वाहु, सव्वहु सव्वाहि सव्वहिं
- सब्व (पु., नपुं.) के रूप पंचमी एकवचन (4/355) और सप्तमी एकवचन (4/357) के अतिरिक्त पुल्लिंग देव तथा नपुंसकलिंग कमल के समान चलेंगे । सव्वा (स्त्री.) के रूप स्त्रीलिंग कहा चलेंगे | अपभ्रंश सव्व और सव्वा के रूपों में प्राकृत के रूप- प्रयोग चलते * रहे । उनका विवेचन अलग से किया जायेगा ।
समान
पुल्लिंग - ( वह)
एकवचन
प्र. स, सा, सु, सो
त्रं, तं
द्वि. त्रं, तं
तृ. तें, तेरा, तेणं
च.
व
ष.
त, ता
तसु, तासु
तहो, ताहो,
तस्सु तासु
पं.
तहां, ताहां
स. तहि, ताहि
जनविद्या
बहुवचन
त, ता
तह, ताहि
हि
त, ता
तहं, ताहं
तहुँ, ताहुं
तहि, ताहि
नोट - त (पु.) के रूप प्रथमा एकवचन, द्वितीया एकवचन, (4/360) षष्ठी एकवचन (4/358) के अतिरिक्त 'सव्व' (पु.) के समान चलेंगे । त के रूपों में प्राकृत के रूप-प्रयोग चलते रहे । उनका विवेचन अलग से किया जायेगा ।
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जनविद्या
नपुंसकलिंग-त (वह)
एकवचन
बहुवचन
प्र.
त्रं, तं
त, ता तई, ताई
स्त्रीलिंग-ता (वह) एकवचन. .. बहुवचन प्र. नं, तं
ता, त सा, स
ताउ, तउ
तामो, तो द्वि. त्रं, तं
ता, त ताउ, तउ
तामो, तो तृ. ताए, तए ताहि, तहिं
त
द्वि. त्रं, तं
त, ता तई, ताई
तृ. ते, तेण, तेणं
तहि, ताहिं
तेहिं
(
ता, त
त, ता तहं, ताहं
(च. ता, त. २ व ताहे, तहे ( ष. तहे
ताहु, तहु
च. त, ता व तसु, तासु प. तहो, ताहो,
तस्सु, तासु पं. तहां, ताहां स. तहिं, ताहि
तहुं, ताहुं तहिं, ताहिं
पं. ताहे, तहे स. ताहि, तहिं
ताहु, तहु ताहि, तहिं
पुल्लिग-ज (जो)
बहुवचन
ज, जा
प्र. ध्रु, जु __ज, जा, जो द्वि. ध्रु, जु . ज, जा
ज, जा
नपुंसकलिंग-ज (जो) एकवचन
बहुवचन प्र. ध्रु, जु ज, जा
जई, जाई द्वि. ध्रु, जु ज, जा
जई, जाइ
जहिं, जाहिं जेण, जेण च. ज, जा
ज, जा
त.
जें
___जेण, जेणं
जहि, जाहिं जेहि ज, जा
।
जहं, जाहं
ष. जसु, जासु
जहं, जाहं
जसु, जासु जहो, जाहो
जस्सु, जासु पं.. जहां, जाहां स. जहिं, जाहिं
... जहुं, जाई
जहिं, जाहिं
पं.. जहां, जाहां स. जहिं, जाहि
... जहुं, जाहुं
जहिं, जाहिं
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जैन विद्या
स्त्रीलिंग जा (जो) एकवचन
बहुवचन प्र. ध्रु, जु
जा, ज जाउ, जउ
जाओ, जो द्वि. ध्रु, जु
जाउ, जउ
जाओ, जो तृ. जाए, जए जाहिं, जहिं च. जा, ज . जा, ज
पुल्लिग क (कौन) एकवचन
बहुवचन प्र. क, का, कु, को .क, का द्वि. क, का, कु क, का तृ. के, केण, केणं कहिं, काहि
केहि (च. क, का
क, का
जा, ज
( ष. जाहे, जहे
पं. जाहे, जहे स. जाहिं, जहिं
कसु, कासु कहं, काहं कहो, काहो
कस्सु, कासु पं. कहां, काहां ____ कहुं, काहुं
किहे स. कहिं, काहि
कहि, काहिं
जाहु, जहु जाहु, जहु जाहिं, जहिं
नपुंसकलिंग-क (कौन) एकवचन
बहुवचन प्र. क, का, कु क , का
कई, काई द्वि. क, का, कु क, का
कई, काई कें, केण, केणं कहि, कहिं
केहि
स्त्रीलिंग-का (कौन) एकवचन
बहुवचन प्र. का, क
का, क....... काउ, कर
कामो, को द्वि. का, क
का, क काउ, कउ
कामो, को तृ. काए, कए काहिं, कहि च. का, क
का, क
क, का कह, काहं
.
। . क, का २ व कसु, कासु (प. कहो, काहो
कस्सु, कासु पं. कहां, काहां -
प. काहे, कहे
कहे पं काहे, कहे
कहुं, काहुँ
काहु, कहु .. . काहु, कहु . काहिं, कहि.
किहे
स. कहि, काहिं ___कहि, काहिं
स. काहिं, कहि
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जैनविद्या
पुल्लिंग - एत (यह )
एकवचन
प्र. एहो
द्वि. एहो तृ. एतें
:
17
एतेण एतेणं
च. एत, एता
व
ब. एतसु, एतासु एतहो, एताहो
एतस्सु
पं. एतहां, एताहां स. एतह, एताहि
प्र. एह
द्वि. एह
एकवचन
एइ
एइ
तृ. एताए, एतए
च. एता, एत
व
. एता, त
पं. एताहे, एतहे स. एताहि, एतहिं
स्त्रीलिंग - एता (यह )
बहुवचन
ताहि
एतेह
एत, एता
एहं, एताहं
हूं, एतहि, एताहि
बहुवचन
एइ
एइ
एताहि, एतहि
एता, एत
एताहु, एतहु
ताहु, एतहु
एताहि, तह
प्र. एहु
द्वि. एहु
तृ. एतें
च.
व
( ष.
पं.
स.
नपुंसकलिंग - ए (यह )
एकवचन
एते, एते
एत, एता
एतसु, एतासु एतहो, एताहो
एतस्सु
एतहां, एताहां
एतहि, एताहि
पुल्लिंग -इम
एकवचन
प्र. इम, इमा
इमु, इमो द्वि. इम, इमा
इमु
तू. इमें
इमेण, इमेणं
च. इम, इमा
व
ष. इमसु, इमासु इमहो, इमाहों
इमस्सु
पं. इमहां इमाहां स. इमहि, इमाहि
बहुवचन
एइ
एइ
एहि, एताहि
तेह
एत, एता
एतहं, एताहं
एतहूं, एताहुं
एहि, ताहि '
(यह )
89
बहुवचन
इम, इमा
इम, इमा
महिं, इमाहि
इमे हि
इम, इमा
इहं, इमाहं
इम, इमा इमहि, इमाहि
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90
जनविद्या
नपुंसकलिंग-इम (यह)
स्त्रीलिंग-इमा (यह)
प्र. इमु
प्र. इमा, इम
.
द्वि. इमा, इम
बहुवचन इमा, हम इमाउ, इमउ इमामो, इममो इमा, इम इमाउ, इमठ इमामो, इममो इमाहिं, इमहिं इमा, इम
इम, इमा
इमई, इमाई द्वि. इमु
इम, इमा इमई, इमाई
इमहि, इमाहि इमेण, इमेणं इमेहिं च. इम, इमा इम, इमा व इमस, इमासु इमहं, इमाहं ष. इमहो, इमाहो
इमस्स पं. इमहां, इमाहाँ इमहूं, इमाहुं - स. इमहिं, इमाहिं इमहि, इमाहिं
पुल्लिग-प्राय (यह)
तृ. इमें
तृ. इमाए, इमए च. इमा, इम
। ष. इमाहे, इमहे इमाहु, इमहु
पं. इमाहे, इमहे इमाहु, इमहु स. ,इमाहिं, इमहिं इमाहि, इमहिं
नपुंसकलिंग-पाय (यह)
एकवचन
एकवचन प्र. माय, माया प्राय, प्राया
प्रायु, प्रायो द्वि. प्राय, पाया प्राय, प्राया
मायु तृ. पायें प्रायहि, प्रायाहिं
प्रायेण, मायेणं- आयेहि च. माय, प्राया प्राय, पाया व प्रायसु, प्रायासु प्रायह, मायाहं प. प्रायहो, मायाहो
मायस्सु पं. पायहां, पायाहां. आयहुं, मायाहुं सं. मायहि, मायाहिं पाहि, मायाहिं
प्र. प्राय, प्राया प्राय, माया . आयु
प्रायई, मायाई द्वि. पाय, पाया माय, माया मायु
प्रायइं, पायाई तृ. पायें
प्रायहि, मायाहिं आयेण, प्रायेणं मायेहि च. प्राय, पाया प्राय, पाया २ व प्रायसु, मायासु ८ ष. प्रायहो, पायाहो
आयस्सु पं. मायहां, पायाहां प्रायहुं, पायाहुं स. माहिं, आयाहिं माहि, मायाहिं
Page #105
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________________
जनविद्या
91
स्त्रीलिंग-माया (यह)
प्र. प्राया, प्राय
द्वि. माया, प्राय
प्राया, प्राय प्रायाउ, पायउ मायाहो, प्रायहो आया, माय मायाउ, पायउ मायामो, प्रायो प्रायाहिं, प्रायहिं प्राया, प्राय
अवस्-प्रम् (वह) . एकवचन बहुवचन प्र. अमु, अमू द्वि. प्रमु, अमू - प्रोइ तृ. प्रमुएं, प्रमूएं प्रमुहि, प्रमूहि
ममुं, प्रमूं अमुण, प्रमूण
प्रमुणं, अमूणं ।च. अमु, अमू। प्रमु, अमू
अमुहूं, अमूहुं
अमुह, प्रमूह पं. अमुहे, अमूहे - प्रमुहूं, अमूहुं ___ स. अमुहि, प्रमूहि अमुहि, प्रमूहि
अमुहूं, अमूहुं स्त्रीलिंग-प्रम् (यह)
तृ. आयाए, प्रायए (च. प्राया, प्राय
एकवचन
प्रायाहु, प्रायहु पं. पायाहे, मायहे मायाहु, प्रायहु स. प्रायाहिं, प्रायहिं प्रायाहिं, प्रायहिं
नपुंसकलिंग-प्रमुस् (वह)
एकवचन प्र. प्रमु, प्रमू प्रोड द्वि. अमु, प्रमू पोइ । त. अमुएं, अमूएं प्रमुहि, अमूहि
अमुं, अमूं अमुण, अमूण
अमुणं, अमूणं, (च. अमु, प्रमू .. अमु, अम्
अमुहूं, अमूहुं अमुहं, अमूह अमुहूं, अमूहुं अमुहि, अमूहि अमुहूं, अमूह
प्र. अमु, अमू द्वि. अमु, अमू
त. अमुए, अमूए (च. अमु, अमू
मोइ प्रोइ । प्रमुहि, अमूहिं प्रमु, प्रमू
। ष. अमुहे, अमूहे
पं. अमुहे, अमूहे स. अमुहि, प्रमूहि
अमुहु, अमूहु अमुहु, अमूहु अमुहि, प्रमूहि
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जनविद्या
पुल्लिग-कवण (कौन, क्या, कौनसा) एकवचन
बहुवचन प्र. कवण, कवणा कवण, कवणा
कवणु, कवणो द्वि. कवण, कवणा कवण, कवणा
कवणु कवणे
कवहिं, कवणाहिं कवणेण, कवणेणं कवणेहिं . (च. कवण, कवणा कवण, कवणा
व कवणसु, कवणासु कवणहं, कवणाहं ष. कवणहो, कवणाहो
कवरणस्सु पं. कवणहां, कवणाहां कवणहुँ, कवणाहुं स. कवहिं, कवणाहूिं कवहिं, कवणाहिं
नपुंसकलिंग-कवण (कौन, क्या, कोनसा) एकवचन
बहुवचन प्र. कवण, कवणा कवण, कवणा कवणु
कवणइं, कवणाई द्वि. कवण, कवणा कवण, कयणा
कवणइं, कवणाई त. कवणे . ___ कवहिं, कवणाहिं
कवणेण, कवणेणं कवणेहिं च. कवण, कवणा कवण, कवणा
व कवणसु, कवणासु कवणहं, कवणाहं ( ष. कवणहो, कवणाहो
कवणस्सु पं. कवणहां, कवणाहां कवणहुं, कवणाहुं स. कवहिं, कवणाहिं कवहिं, कवणाहिं
स्त्रीलिंग-कवणा (कौन, क्या, कौनसा)
एकवचन
बहुवचन प्र. कवणा, कवण कवणा, कवण
कवणाउ, कवणउ
कवणामो, कवणो द्वि. कवणा, कवण कवणा, कवण
कवणाउ, कवणउ
कवणाओ, कवणमो त. कवणाए, कवणए कवणाहिं, कवहिं च. कवणा, कवण कवणा, कवण
तीनों लिंगों में प्रम्ह (मैं) एकवचन
बहुबचन
अम्हे, अम्हई द्वि. मई
अम्हे, अम्हइं त. मई
अम्हेहि च. २ व महु, मझ प्रम्हहं .
पं. महु, मझ स. मई
प्रम्हहं अम्हासु
ष. कवणाहे, कवणहे कवणाहु, कवणहु पं. कवणाहे, कवणहे कवरणाहु, कवणहु स. कवणाहिं, कवणहिं कवणाहिं, कवहिं
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जनविद्या
93
तीनों लिंगों में तुम्ह (तुम) एकवचन
बहुवचन प्र. तुहुं
तुम्हे, तुम्हई द्वि. पई, तई तुम्हे, तुम्हई त. पई, तई
तुम्हेहिं
तीनों लिंगों में काई (कोन, क्या, कौनसा) सभी वचनों, विभक्तियों एवं लिंगों में 'काई' सदैव काइं ही रहता है।
(अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, द्वारा वीरेन्द्र श्रीवास्तव पृष्ठ, 180)
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व तउ, तुज्झ, तुध्र
तुम्हहं
पं. तउ, तुज्झ, तुध्र स. पई, तइं
तुम्हहं तुम्हासु
नोट-हेमचन्द्र की अपभ्रंश व्याकरण के अनुसार ऊपर संज्ञा व सर्वनामों के रूप (जो सूत्रों से
फलित हैं) दिये गये हैं । अपभ्रंश-साहित्य में प्राकृत के रूपों का प्रयोग शताब्दियों तक किया जाता रहा । प्राकृत के सूत्रों का विवेचन इस दृष्टि से महत्त्व का है । इन सूत्रों का विवेचन पत्रिका के अगले अंकों में प्रस्तुत किया जायेगा।
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इस अंक के सहयोगी रचनाकार
1.
डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया - एम. ए. ( संस्कृत एवं हिन्दी ), पीएच. डी. । गद्य-पद्य लेखिका । इस अंक में प्रकाशित रचना - मुनि कनकामर व्यक्तित्व और कृतित्व । सम्पर्क सूत्र- मंगलकलश, 394, सर्वोदयनगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001, उ०प्र० ।
2.
डॉ. कपूरचन्द जैन - एम. ए., पीएच. डी., साहित्य - सिद्धान्तशास्त्री । गद्य-पद्य रचयिता । धार्मिक, सामाजिक व साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न । अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, कुन्दकुन्द महाविद्यालय, खतौली । इस अंक में प्रकाशित रचना - करकंडुचरित विषयक जैन साहित्य | सम्पर्क सूत्र - 14, मिट्ठूलाल, खतौली - 251207, उ० प्र० ।
3.
डॉ कमलचन्द सोगारगी — बीएस. सी., एम. ए., पीएच. डी. । नीतिशास्त्र, दर्शन एवं प्राच्य भाषाओं से सम्बन्धित शोध - निबन्ध एवं पुस्तकों के लेखक - सम्पादक । शैक्षणिक, धार्मिक व साहित्यिक रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न । प्रोफेसर, दर्शनविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर । इस अंक में प्रकाशित रचना - हेमचन्द्र- अपभ्रंशव्याकरण-सूत्रविवेचन । सम्पर्क सूत्र- टी. एच. - 4, स्टॉफ कॉलोनी, यूनिवर्सटी न्यू कैम्पस, उदयपुर - 313001, राज. ।
4.
डॉ. छोटेलाल शर्मा - एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट्. । लेखक एवं सम्पादक । सौन्दर्यशास्त्र, भाषाशास्त्र एवं अपभ्रंश भाषा के विशेषज्ञ । भूतपूर्व प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, वनस्थली विद्यापीठ । इस अंक में प्रकाशित रचना - करकण्डचरिउ की कथा में लोकतत्त्वड़ा-जुड़ा | सम्पर्क सूत्र - ग्राम - अकबरपुर, पोस्ट-हिरनगउ, आगरा, उ. प्र. ।
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जनविद्या
95.
5. डॉ. (श्रीमती) ज्योति जैन–एम. ए., पीएच. डी.। इस अंक में प्रकाशित रचना
करकण्डुचरित विषयक जैन साहित्य की सहयोगी लेखिका । सम्पर्क सूत्र-14, मिठ्ठलाल
खतौली-251207, उ. प्र. । 6. डॉ. (श्रीमती) पुष्पलता जैन–एम. ए. (हिन्दी व भाषा विज्ञान), पीएच. डी. (हिन्दी
व भाषा विज्ञान) । लेखिका । प्रवक्ता, एस. एफ. एस. कालेज, नागपुर । इस अंक में प्रकाशित रचना-करकण्डचरिउ और पद्मावत का शिल्प-विधान । सम्पर्क सूत्र-न्यू एक्स
टेंशन, सदर, नागपुर, महाराष्ट्र । 7. ग. भागचन्द्र भास्कर-एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट., साहित्याचार्य । पालि-प्राकृत
भाषा के विशेषज्ञ । अध्यक्ष, पालि-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर । इस अंक में प्रकाशित रचना-करकण्डचरिउ में प्रतिपादित इतिहास व संस्कृति । सम्पर्क सूत्र-न्यू एक्सटेंशन, सदर, नागपुर, महाराष्ट्र । ग. महेन्द्र सागर प्रचण्डिया-एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट., साहित्यालंकार, विद्यावारिधि । कुशल वक्ता, लेखक एवं सम्पादक । शैक्षणिक, सामाजिक एवं धार्मिक रचनात्मक गतिविधियों में संलग्न । मानद संचालक-जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ । इस अंक में प्रकाशित रचना-करकण्डचरिउ का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन । सम्पर्क सूत्र- .
मंगलकलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-202001, उ. प्र. । 9. डॉ. सूर्यनारायण द्विवेदी-एम. ए., पीएच. डी. । रीडर, हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दु
विश्वविद्यालय, वाराणसी । इस अंक में प्रकाशित रचना-करकण्डचरिउ की अध्यात्मचेतना । सम्पर्क सूत्र-हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणसी-51
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जनविद्या
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- जैनविद्या ( शोध-पत्रिका)
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सूचनाएं
A
1. पत्रिका सामान्यतः वर्ष में दो बार प्रकाशित होगी।
2. पत्रिका में शोध-खोज, अध्ययन-अनुसन्धान सम्बन्धी मौलिक
अप्रकाशित रचनाओं को ही स्थान मिलेगा।
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रचनाएँ जिस रूप में प्राप्त होंगी उन्हें प्रायः उसी रूप में प्रकाशित किया जायगा । स्वभावतः तथ्यों की प्रामाणिकता आदि का उत्तरदायित्व रचनाकार का होगा।
4.
रचनाएँ कागज के एक ओर कम से कम 3 से. मी. का हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरों में लिखी अथवा टाइप की हुई होनी चाहिये।
* 5. रचनाएँ भेजने एवं अन्य सब प्रकार के पत्र-व्यवहार के लिए पता
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सम्पादक
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जनविद्या महावीर भवन सवाई मानसिंह हाइवे जयपुर-302003
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जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी
महावीर पुरस्कार दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, श्रीमहावीरजी (राजस्थान) की प्रबन्धकारिणी कमेटी के निर्णयानुसार जैन साहित्य सजन एवं लेखन को प्रोत्साहन देने के लिए रु. 5,001/-(पांच हजार एक) का पुरस्कार प्रतिवर्ष देने की योजनायोजना के नियम1. जैनधर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति सम्बन्धी किसी विषय पर किसी निश्चित अवधि में
लिखी गई सृजनात्मक कृति पर 'महावीर पुरस्कार' दिया जायगा। अन्य संस्थानों द्वारा
पहले से पुरस्कृत कृति पर यह पुरस्कार नहीं दिया जायगा। 2. पुरस्कार हेतु प्रकाशित/अप्रकाशित दोनों प्रकार की कृतियां प्रस्तुत की जा सकती हैं।
यदि कृति प्रकाशित हो तो यह पुरस्कार की घोषणा की तिथि के 3 वर्ष पूर्व तक ही प्रकाशित होनी चाहिए। पुरस्कार हेतु मूल्यांकन के लिए कृति की चार प्रतियां लेखक/प्रकाशक को संयोजक, जैनविद्या संस्थान समिति को प्रेषित करनी होगी। पुरस्कारार्थ प्राप्त प्रतियों पर स्वामित्व संस्थान का होगा। अप्रकाशित कृति की प्रतियां स्पष्ट टंकण की हुई अथवा यदि हस्तलिखित हों तो वे स्पष्ट और सुवाच्य होनी चाहिये। पुरस्कार के लिए प्रेषित कृतियों का मूल्यांकन विशिष्ट विद्वानों/निर्णायकों के द्वारा कराया जायगा, जिनका मनोनयन जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा होगा। इन विद्वानों निर्णायकों की सम्मति के आधार पर सर्वश्रेष्ठ कृति का चयन जैनविद्या संस्थान समिति द्वारा किया जायगा। सर्वश्रेष्ठ कृति पर लेखक को पांच हजार एक रुपये का 'महावीर पुरस्कार' प्रशस्तिपत्र के साथ प्रदान किया जायगा । एक से अधिक लेखक होने पर पुरस्कार की राशि उनमें समानरूप से वितरित कर दी जायगी। महावीर पुरस्कार के लिए चयनित अप्रकाशित कृति का प्रकाशन संस्थान के द्वारा कराया जा सकता है जिसके लिए आवश्यक शर्ते लेखक से तय की जायेंगी। महावीर पुरस्कार के लिए घोषित अप्रकाशित कृति को लेखक द्वारा प्रकाशित करने करवाने पर पुस्तक में पुरस्कार का आवश्यक उल्लेख साभार होना चाहिये । यदि किसी वर्ष कोई भी कृति समिति द्वारा पुरस्कार योग्य नहीं पाई गई तो उस वर्ष का पुरस्कार निरस्त (रद्द) कर दिया जायगा। उपर्युक्त नियमों में आवश्यक परिवर्तन/परिवर्द्धन संशोधन करने का पूर्ण अधिकार
संस्थान/प्रबन्धकारिणी कमेटी को होगा । संयोजक कार्यालय :
ज्ञानचन्द्र खिन्दूका महावीर भवन,
संयोजक एस. एम. एस. हाइवे
जैनविद्या संस्थान समिति, श्रीमहावीरजी जयपुर-302003
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________________ हमारे महत्त्वपूर्ण प्रकाशन 1-5. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची–प्रथम एवं द्वितीय भाग- अप्राप्य तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम भाग संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल एवं पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 170.00 6. जैन ग्रन्थ भंडार्स इन राजस्थान (शोध प्रबन्ध)-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल 50.00 7. प्रशस्ति संग्रह-संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल अप्राप्य 8. राजस्थान के जैन संत : व्यक्तित्व एवं कृतित्व-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 6. महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व -डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 20.00 10. जैन शोध और समीक्षा-डॉ. प्रेमसागर जैन 20.00 11. जिणदत्तचरित-संपादक-डॉ. माताप्रसाद गुप्त एवं डॉ. क.च. कासलीवाल 12.00 12. प्रद्युम्नचरित—संपादक-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ व डॉ. क.च. कासलीवाल 12.00 13. हिन्दी पद संग्रह-संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल अप्राप्य 14. सर्वार्थसिद्धिसार-संपादक-पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ 10.00 15. चम्पाशतक—संपादक-डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल 6.00 16. तामिल भाषा का जैन साहित्य-संपादक-पं. भंवरलाल पोल्याका अप्राप्य 17. वचनदूतम्- (पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध)-पं. मूलचंद शास्त्री प्रत्येक 10.00 18. तीर्थंकर वर्धमान महावीर –पं. पद्मचन्द शास्त्री 10.00 19. पं. चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्मृति ग्रन्थ / 50.00 20. बाहुबलि (खण्डकाव्य) पं. अनूपचन्द न्यायतीर्थ 10.00 21. योगानुशीलन–श्री कैलाशचन्द्र बाढ़दार 75.00 22. ए की टू टू हैपीनैस-बै. चम्पतराय अप्राप्य 23. चूनड़िया-मुनिश्री विनयचन्द्र, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 1.00 24. आणंदा-श्री महानंदिदेव, अन.-डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री 5.00 25. णेमीसुर की जयमाल और पाण्डे की जयमाल-मुनि कनककीर्ति एवं कवि नण्हु, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 2.00 26. समाधि-मुनि चरित्रसेन, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 4.00 27. बुद्धिरसायण प्रोणमचरितु—कवि नेमिप्रसाद, अनु.-पं. भंवरलाल पोल्याका 5.00 28. कातन्त्ररूपमाला-भावसेन त्रैविद्यदेव / 12.00 29. बोधकथा मञ्जरी- श्री नेमीचन्द पटोरिया 12.00 30. मृत्यु जीवन का अन्त नहीं-डॉ. श्यामराव व्यास 5.00 31. पुराणसूक्तिकोष 15.00 32. वर्धमानचम्पू-पं. मूलचन्द शास्त्री 25.00 33. चेतना का रूपान्तरण-ब्र. कु. कौशल 15.00 34. आचार्य कुन्दकुन्द—पं. भंवरलाल पोल्याका 2.00