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________________ जैन विद्या के स्थान पर संधि शब्द का प्रयोग हुआ है । पूरा काव्य कथानक दश संधियों में विभक्त है । कवि यथास्थान लोकविख्यात उक्तियों, सूक्तियों का भी सफलतापूर्वक प्रयोग करता है । द्वितीय संधि में राजा सरलवाहु की कृतज्ञता प्रसंग में गौरवशाली पुरुषों का संग करनेवाला मनुष्य मनचाही सम्पत्ति प्राप्त करता है । 21 तीसरी संधि में कथानायक करकंड के रोष-प्रसंग में बिना सेवा के एक हस्तमात्र मेदिनी भी भोगने के लिए नहीं मिल सकती 122 31 विवेच्य काव्य में अनेक छन्दों का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । इस दृष्टि से पज्झटिका छन्द का प्रयोग द्रष्टव्य है । इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएं होती हैं । अन्त में जगण अर्थात् लघु, गुरु और लघु मात्राएं होती हैं । प्रत्येक चरण में परस्पर तुक का विधान रहता है। एक कड़वक का अन्त घत्ता छन्द से किया गया है । ग्रन्थ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में एक छन्द ध्रुवक का व्यवहृत है । इसके अतिरिक्त करकंडचरिउ में डिल्लह, पादाकुलक, समानिका, तणक, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, भ्रमरपदा, चित्रपदा, प्रामाणिका, चन्द्रलेखा आदि अपभ्रंश छन्दों का प्रयोग परिलक्षित है । पदयोजना में छन्द प्रवाह की सहायता करता है । इस दृष्टि से काव्य में नाना छन्दों का प्रयोग सर्वथा समीचीन कहा जायगा । भावों के ही अनुरूप छन्दों का परिवर्तन, कवि की छन्द विषयक मनोवैज्ञानिकता श्लाघनीय है । काव्याभिव्यक्ति में अर्थ उत्कर्ष के लिए अलंकारों की भूमिका उल्लेखनीय होती है । कवि ने वस्तु के स्वरूप को सर्वसाधारण के योग्य सरल बनाने के लिए शब्द तथा अर्थ दोनों ही प्रकार के अलंकारों का प्रयोग किया है । इस दृष्टि से उत्प्रेक्षा, यमक, परिसंख्या, श्लेष तथा अनुप्रास नामक अलंकारों के प्रयोग उल्लेखनीय हैं। उपमा और रूपक परम्परानुमोदित है । उपमानों में जहां एक ओर कमल और चन्द्रमा रूढ़ि प्रयोग व्यहृत है वहां कवि ने नए उपमानों को भी गृहीत किया है जिसमें कवि की वस्तु-निरीक्षण की शक्ति प्रमाणित हो जाती है । इस दृष्टि से नवीं संधि में प्रनित्य भावना के प्रसंग में कहा है कि गज- कर्ण के समान लक्ष्मी कहीं स्थिर नहीं रहती । देखते ही देखते वह टरक जाती है । जिस प्रकार पारा हथेली पर रखते ही गलेइ अर्थात् गल जाता है उसी प्रकार लक्ष्मी विरक्त होकर एक क्षण में चली जाती है 123 काव्य में उपमा के अतिरिक्त उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है । जम्बूद्वीप, भरत क्षेत्र और अंगदेश का वर्णन करते हुए कवि ने उत्प्रेक्षा की है कि यहां की नहरों के जल में कमलों की पंक्ति प्रति शोभायमान होती हैं मानो मेदिनी हंस उठी हो | 24 तीसरी सन्धि में करकंड की सेना गंगा तट पर पहुंचती है । नायक गंगा के दर्शन करता है । गंगा का श्वेत जल अपनी कुटिल धारा से इस प्रकारे सुशोभित हो रहा था मानो कोई श्वेत सर्पिणी जा रही हो । 25 इसी प्रकार आठवीं संधि में वियोगियों के पुनर्मिलन के उदाहरण प्रसंग में रतिवेगा को राजा अरिदमन का चरित्र सुनाते समय अवंति देश की शोभा वर्णन करते हुए उत्प्रेक्षा की गई है कि ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वर्ग का एक टुकड़ा टूट कर श्रा पड़ा हो 126 कवि ने तीसरी सन्धि में चम्पा की सेना की तैयारी के प्रसंग में वर्णन किया है कि कोई वीर संग्रामभूमि में अनुरक्त स्वर्गिणी स्वर्गवासिनी अप्सरानों के प्रभीष्ट मार्ग को
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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