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________________ (viii) जनविद्या हुआ । वे जन्म से चन्द्रर्षि गोत्रीय ब्राह्मण थे । जैनधर्म की उत्कृष्टता से प्रभावित होकर उन्होंने उसे स्वीकार किया और साधनामार्ग में चल पड़े। उन्होंने आगे चलकर मुनि-दीक्षा ली। करकण्डचरिउ के माध्यम से उन्होंने धर्म और दर्शन की विशेषताओं को लोगों तक पहुंचाया, वे समत्व के साधक थे, सत्य के उपासक थे । वे जनसामान्य को मानवीय दृष्टि से देखते थे । किसी धर्म या भावना का खण्डन उनकी रचना में नहीं मिलता । साम्प्रदायिक कटुता से वे सदा दूर ही रहे। करकण्डचरिउ के अध्ययन से तत्कालीन समाज के स्वरूप का परिचय मिलता है । उन दिनों समाज के प्रायः सभी उदात्त क्षेत्रों में शिथिलता पाने लगी थी। इसी का यह प्रभाव है कि महल-मसान, काच-कंचन, शत्रु-मित्र आदि सब को समदृष्टि से देखनेवाले जैन मुनि सुव्रत करकण्डचरिउ में बलदेव विद्याधर पर क्रोधित हो उसे मातंग बनने और उसकी विद्याएँ नष्ट हो जाने का शाप देते दिखाई पड़ते हैं । कुछ अन्य विवरण भी जैनागम के अनुकूल नहीं हैं। इस चरित में अनुप्रेक्षाओं का वर्णन अध्यात्म से ओत-प्रोत है और कर्मकाण्ड को यदि निकाल दें तो यत्याचार और श्रावकाचार का वर्णन भी मानव को आध्यात्मिक अभ्युत्थान की । ओर प्रेरित करनेवाला है। मुनि कनकामर की एक धार्मिक ग्रन्थकार एवं साहित्यिक रचनाकार के रूप में अन्य क्या विशेषताएँ हैं यह पाठकों को इस अंक के अध्ययन से विदित होगा। - विभिन्न विषयों के विद्वानों द्वारा इस अंक की रचनाएँ लिखी गई हैं । वे मुनि कनकामर के 'व्यक्तित्व और कृतित्व' पर बहुमुखी प्रकाश डालती हैं । गत अंक में एक विशेष लेख के द्वारा प्राचार्य हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों का प्रायोगिक दृष्टि से विवेचन प्रारम्भ किया. गया था वह इस अंक में समाप्त हो रहा है । ये दोनों लेख अपभ्रंश के अध्येयताओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी होंगे । हमें आशा है कि गत सात अंकों की भांति यह पाठवां अंक भी सामान्यतः सभी पाठकों को और विशेषतः अनुसंघेतानों को पसन्द आयेगा । इस अंक के सम्पादन में डॉ. गोपीचन्द्र पाटनी, डॉ. कमलचन्द्र सोगाणी, पं. भंवरलाल पोल्याका और सुश्री प्रीति जैन का, प्रकाशन में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी की प्रबंधकारिणी के अध्यक्ष श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका और मन्त्री श्री नरेशकुमार सेठी का तथा मुद्रण में पापुलर प्रिन्टर्स का जो योग रहा है वह प्रशंसनीय और अनुकरणीय है । (प्रो.) प्रवीणचन्द्र जैन सम्पादक
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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