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________________ आरम्भिक पत्रिका के इस अंक से पूर्व प्रकाशित सात विशेषांकों के द्वारा अपभ्रंश भाषा के स्वयम्भू, पुष्पदन्त आदि ख्यातनामा कवियों की कृतियों पर कई दृष्टियों से प्रकाश डाला गया है । प्रस्तुत विशेषांक करकण्डचरिउ के रचनाकार मुनि श्री कनकामर से सम्बद्ध है । 1 प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, कन्नड़, राजस्थानी प्रादि अनेक भाषाओं की समृद्धि के संवर्धन में जैन रचनाकारों का जो योग रहा है वह कई दृष्टियों से व्यापक महत्त्व का है । उन्होंने हजारों की संख्या में ग्रन्थ रचना की । काव्य, धर्म, दर्शन, आयुर्वेद, ज्योतिष, गणित, तन्त्र-मन्त्र, नीति प्रादि प्रायः सभी विषयों पर उनकी कृतियाँ उपलब्ध होती हैं । उनकी रचनात्रों का जितना अंश प्रकाश में आया है उससे ही पता चलता है कि उनकी यह साहित्य. सेवा कितनी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है । ग्रन्थ भण्डारों का जो सर्वेक्षण होता रहा है उससे विदित होता है कि अभी सहस्रों रचनाएं शोध-खोज और प्रकाशन की प्रतीक्षा में है । इनमें से अनेक पाण्डुलिपियाँ तो इतनी जर्जर अवस्था में हैं कि यदि शीघ्र ही उनकी सुधि नहीं ली गई तो वे नष्ट हो जायंगी । इस ओर समाज का ध्यान अधिक जागरूकता से जाना चाहिये । ऐसे सामाजिक प्रयत्न होने चाहियें जो योजनाबद्ध रीति से इनके प्रकाशन और प्रसारण में सहायक हों । जैन साहित्यकारों की अपनी एक विशेषता रही है । उन्होंने साहित्य की प्रतिष्ठा, धर्म, नीति और अध्यात्म के आधार पर की है । उनके द्वारा रचित साहित्य प्रज्ञानान्धकार के गर्तों में इधर-उधर भ्रष्ट मानव को प्रभ्युदय और निःश्रेयस के मार्ग की ओर प्रवृत्त करने में सहायक है । आठवीं से 13वीं शती तक का काल अपभ्रंश भाषा में काव्य-रचना की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है। इसी काल में स्वयम्भू, पुष्पदन्त, घवल, घनपाल, नयनन्दी, घाइल आदि अनेक कवियों ने अपनी काव्य-कौमुदी से साहित्य- गगन को आलोकित किया है । करकंडचरिउ के रचनाकार मुनि कनकामर भी उनमें से एक हैं। ईसा की ग्यारहवीं शती का उत्तरार्धं उनका स्थितिकाल है । उनका जन्म बुन्देलखण्ड की प्रसाइय नामक नगरी में
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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