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जनविर्धा
8.
काव्यालंकार, 1-19-21, प्राचार्य भामह ।
9. पद्मं प्रायः संस्कृतप्राकृतापभ्रंशग्राम्यभाषानिबध्दभिन्नान्त्य वृत्त सर्गाश्वाससन्धयवय
स्कन्धबंधं सत्संधिशब्दार्थवचित्र्यो हं महाकाव्यं ।
10. साहित्य दर्पण, 6-315-328, श्राचार्य विश्वनाथ ।
11.
हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, पृष्ठ 221, डॉ. नावमरसिंह | 12. तहिं पुरवरि खुहियउ रमणियाउ, झाणट्ठिप्रमुणिमणदमणियाउ । कवि रहसइँ तर लिय चलिय णारि, विहडफ्फड संठिय का वि वारि ॥ कवि धावs णवणिवणेहलुद्ध, परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध । कवि कज्जलु बहलउ प्रहरे देइ, जयणुल्लएँ लक्खारसु करेइ । friथवित्ति कवि श्रणुसरेइ, विवरीउ डिंभु के वि कडिहिँ लेइ । कवि उरु करयलि करइ बाल, सिरु छंडिवि कडियले घरइ माल । यिद मणिविक वि वराय, मज्जारु ण मेल्लइ साणुराय । कवि घाव णवणिउ मणे घरंति, विहलंघल मोहइ घर सरंति । कवि माणमहल्ली मयणभर करकंडहो समुहिय चलिय । थिरथोरपनोहरि मयणयण उत्तत्तणयछवि उज्जलिय || करकंडचरिउ, 3.2
13.
- काव्यानुशासनं, अ. 6, हेमचन्द्राचार्य ।
दीवाण पहाण हिं दीवदीवे, जंबू दुमलंछिए जंबुदीवे । जहिँ सारणिसलिलि सरोयपंति, अहरेहइ मेइणि णं हसंति ॥
क. च.
1.3
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14. जा
णरपंचाणणु वियसियाण जलि पडिउ । हउ बोल्लिसु तइयहुँ मिलिहइ जइयहुँ मज्भु पइ ॥ 15. प्रवासहो श्रावइ जाव राउ, मयणावलि णउ पेच्छह वि ताउ । जोses चउद्दिसु हिययहीणु, उब्वेविरु हिंड महिहे वीणु । ता संकिउ णरवइ गलियगव्वु, कहिँ गउ कलत्तु सव्वंगभव्वु । मयणावलि जा श्राणंदभूत्र, सा एवहिं किं विवरीय हू । ता पेसिय किंकरवर णिवेण, अवलोवहु सामिणि दिसिवहेण । जोएवि विसिहिं प्रागय वलेवि, पुक्कारहिं उभा कर करेवि । ता राएँ देक्खिवि ते रुवंत, परिमुक्क श्रंसु णयणहिं तुरंत । हे पयवय तुहुँ सवणाणुबंधु, महु प्रक्खहि सुंदरि रोहबंधु । हा मुद्धि मुद्धि तुहुँ केण णीय, किं एवहिं ल्हिक्किवि कहिँ मिठीय । हा कुंजर कि तुहुँ जमहो वउ, कि रोसइँ महो पडिकूल हूउ । धत्ता - चिर मोहु वहंत को वि हियइँ लडहरुउ अग्गई हुयउ । विज्जाहरु प्राय सो वि तहिं विज्जासायरपाद गड़ ।। 5.15
7.11