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________________ जैनविद्या 16. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ 211... 17, सव्वंगे कंपिय, चित्ति चमक्किय मुच्छ गया । कियचमरसूवाएं सलिल . सहाएं. गुण, भरिया । . हउँ बोल्लिसु तइयहुँ मिलिहइ जहयहुँ मज्भु पइ ॥ 7.11 18. महि हल्लिय चल्लिय गिरिवरिंद, कंपंत पणट्ठा खे सुरिंद। लोलाविय धय णिवणरवरेहि, महि गच्चइ ण उम्भिय करेहिं । 4.2 19. मुहकमल करती करकमले, अंगुलिएं लिहंती घरणियलु । कोमलवयणपउत्तियहि सा परिपुच्छिय मई सयलु । 6.9 10 20. हिन्दी साहित्य कोश, भाग प्रथम, पृष्ठ 659, सं.-डॉ. धीरेन्द्र वर्मा। . 21. गुरुप्राण संगु जो जणु बहेइ, हियइच्छिय संपइ सो लहेइ। 2.18.7 22. विणु केरई लम्भइ गाहि मित्त, एह मेइणि भुजहुँ हत्यमेत्त। 3.11.1 23. करिकण्ण जेम थिर कहिं ण याइ, पेक्खतहँ सिरि णि ण्णासु जाइ। 9.6.5 24. जहिं सारणिसलिलि सरोयपंति, अहरेहइ' मेइणि णं हसंति। 1.3.10 25. सा सोहइ सियजल कुडिलवंति, णं सेयभुवंगहो महिल जंति। 3.12.6 26. एत्थत्यि अवंती णाम देसु, णं तुट्टिवि पडियउ सठगलेसु । 8.1.6 27. के वि संगामभूमीरसे रत्तया, · सग्गिणीछंदमग्गेणसंपत्तया । 3.14.8 28. ता एत्तहिं रवि अत्थइरि गउ, बहुपहरहिं रणं सूर वि सुयउ । 10.9.4. 29. धणु ण चलइ गेहहो एक्कु पाउ, एक्कल्लउ भुंजइ धम्म पाउ। 9.9.4 30. षणु देवएं पसरह जासु कर, गउ पाणिवहेम्बई धरइ सरु। 1.5.5
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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