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________________ जनविद्या से भरे खेत, कृषक-बालाएं, पथिक, विकसित कमल आदि का चित्रण सजीवता और सहज स्वाभाविकता का संचार करता है ।13 महाकवि मुनि कनकामर ने विवेच्य काव्य में श्रृंगार, वीर तथा भयानक रसों का बेजोड़ वर्णन किया है । नारी-सौन्दर्य में कवि ने कवि-परम्परा का आश्रय लिया है । परम्परानुमोदित उपमानों का प्रयोग कर नारी के नखशिख का चित्रण किया है । रतिवेगा के विलाप में ऊहात्मकता के दर्शन होते हैं 14 तो वहां संवेदनात्मक कृत्यों का बाहुल्य है । इसी प्रकार मदनावली के सह ने पर नायक करकंड का विलाप भी पाषाण को पिघला देनेवाला है।15 पात्रों के पुरुषार्थों को कथानक में इस प्रकार चित्रित किया है कि संसार की नश्वरता और अस्थिरता मुखर हो उठी है । यहां काल के प्रभाव से कोई बचता नहीं (9.5) । प्रत्येक प्राणी अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी है। वह अपने कर्मों के फल को अकेला ही भोगता है । इस शाश्वत सत्य को कवि ने बड़ी प्रभावना तथा मार्मिकता के साथ शब्दायित किया है (9.6)। विवेच्य काव्य की तृतीय संधि में कवि ने नायक के गंगातीर पहुंचने पर गंगा नदी का मालंबनकारी सजीव चित्रण किया है । गंगाधारा भुजंग की महिला, हिमवंत गिरीन्द्र की कीर्ति जैसे सभी उपमानों के आरोपण से मानवीकरण साकार हो उठा है। अगणित भक्तों द्वारा स्नान तथा आदित्य जलाकर्षण से गंगा स्वयं अनुभव करने लगी मानो मैं शुद्ध हूं, स्वमार्गी हूं अतः मेरे ऊपर रुष्ट न होइएगा। गंगा-वर्णन जहाँ एक अोर आलम्बनकारी प्रकृति-चित्रण करने में कवि की पटुता प्रमाणित करती है वहाँ दूसरी ओर लक्षणा तथा व्यंजना शक्तियों का. स्वाभाविकतापूर्ण अद्भुत प्राकलन द्रष्टव्य है (3.12) । विवेच्य कृति को दश संधियों/सर्गों में विभक्त किया गया है। विविध धर्मों में समादृत महाप्रतापी सच्चरित्र महाराज करकंड के चरित को सम्पूर्ण रूप से चित्रित किया गया है जिसमें सरसता है, सुबोधता है और है गजब का आकर्षण । इस प्रकार अभी तक करकंडचरिउ को खण्डकाव्य निरूपित किए जाने पर आश्चर्य होता है। मानवी कल्याण तथा पुरुषार्थ चतुष्टय का क्रमिक विकास व्यक्त करनेवाले चरित्रप्रधान काव्य को धार्मिक संज्ञा दे कर साहित्यिक सिंहासन से उतारना काव्यशास्त्रीय विवेचना की विडम्बना नहीं तो और क्या है ? करकंडचरिउ एक विशुद्ध प्रबन्ध तथा महाकाव्य है जिसके प्रभाव से उत्तरवर्ती काव्य-परम्परा अनुप्राणित है। सन्तोष की बात यह है कि प्रो. नामवर सिंह इसे प्रबन्धकाव्य तो स्वीकारते हैं। दश संधियों के इस प्रबन्धकाव्य के तीन चौथाई भाग में करकंड की मुख्य कथा है और शेष चौथाई भाग में नौ अवान्तर कथानों का कलेवर है। इन अवान्तर कथानों में से एक कथा नरवाहनदत्त की है जो संस्कृत में प्रचलित कथा से थोड़ी भिन्न है। ये अवान्तर कथाएं राजा को नीति की शिक्षा देती हैं और इसीलिए कवि ने इन्हें काव्य में समाहित किया है ।18 यह सच है कि इन अवान्तर कथानों को हम बोधकथाएं भी कह सकते हैं पर काव्य में उन्मार्ग से हटकर
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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