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________________ जनविद्या 29 सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने के प्रयोजन के लिए चरित्र-चित्रण की इस परम्परानुमोदित पद्धति का अनुमोदन करना भी कवि को इष्ट रहा है। इससे कथोत्कर्ष में कोई बाधा नहीं पड़ती है। सम्भ्रान्त कथावृत्त के साथ ही कविवर ने प्रकृतिवर्णन में भी उदारता से काम लिया है । काव्य में प्रकृतिवर्णन प्रायः तीन प्रकार से किया गया है यथा 1. आलम्बन रूप में, 2. उद्दीपन रूप में और 3. आलंकारिक रूप में । उल्लेखनीय बात यह है कि कवि ने विवेच्य 'करकंडचरिउ' में प्रकृति-वर्णन तीनों ही प्रकार से किया है । समुद्र वर्णन (71.0-12) जम्बूद्वीप वर्णन, भरतक्षेत्र वर्णन, गंगा-जमुना वर्णन (1.3) श्मशान वर्णन (1.3) भीषण वन वर्णन, (4.5) सरोवर वर्णन (4.7) आदि प्रथम कोटि के प्रकृति-वर्णन के उदाहरण हैं । चौथी संधि में राजा के पश्चात्ताप प्रकरण में प्रकृति का उद्दीपनकारी वर्णन द्रष्टव्य है (4.15) । इसी प्रकार पांचवी संधि में मदनावलि के अपहरण प्रकरण में करकंड के विलाप-संदर्भ में प्रकृति का उद्दीपनकारी वर्णन उल्लेखनीय है (5.15)। जहां तक प्रकृति के प्रालंकारिक रूप में वर्णन का प्रश्न है, कवि ने इस कोटि का वर्णन भी किया है। भावोत्कर्ष की दृष्टि से यह वर्णन कवि ने अवश्य किया है किन्तु पांडित्य प्रदर्शन की कामना से वह कोसों दूर रहा है । उपमा, रूपक तथा उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग में नाना प्रकृतितत्त्वों का उपयोग किया गया है। जहाँ तक रसयोजना का प्रश्न है विवेच्य काव्य में शृंगार और वीर रस प्रधान रसों के रूप में निष्पन्न हुए हैं। इनके सहकारी रसों में भयानक, वीभत्स तथा शान्त रसों का उद्रेक दर्शनीय है। रानियों के रूप-सौन्दर्य और नारी के नखशिख वर्णन में संयोग शृंगार तथा वियोगावस्था में विप्रलम्भ शृंगार रस का सुन्दर पारिपाक हुआ है। तीसरी संधि में आक्रमणकारी संन्यप्रकरण तथा करकंड और चम्पाधिप का युद्धप्रसंग वीररसोद्रेक के लिए उल्लेखनीय है (3,13,16)। इसी संधि में भीषण संग्रामसंघर्ष में वीभत्स रस का उद्रेक द्रष्टव्य है (3.15) । जहाँ तक शान्त रस के उद्रेक का प्रश्न है कवि ने नायक के वैराग्य-भाव-प्रसंग में शान्तरस की गंगा बहाई है (9.4) । यहीं पर चतुर्थ पुरुषार्थ का समारम्भ होता है । इस प्रकार भाव पक्ष की दृष्टि से यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि कवि ने प्रस्तुत काव्य में उन सभी तत्त्वों का स्वाभाविक रूप में प्रयोग किया है जो एक सफल महाकाव्य अथवा प्रबन्धकाव्य के लिए अपेक्षित होता है । भाषाभिव्यक्ति में भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। करकंडचरित्र की भाषा अपभ्रंश है । महाकवि स्वयंभू तथा पुष्पदन्त की साहित्यिक तथा शुद्ध अपभ्रंश की अपेक्षा मुनि कन ने तत्सम, तदभव तथा देशज शब्दों के साथ-साथ लोकप्रिय तथा सरल लोकोक्तियों का प्रयोग किया है । आपकी भाषा को समझने के लिए अपभ्रंश भाषा की सामान्य किन्तु मावश्यक प्रवृत्तियों की ओर ध्यान देना अनिवार्य है। अपभ्रंश में संस्कृत की भांति श, ष
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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