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________________ जनविद्या 67 बाह्य तपस्या के रूप में उन्होंने अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश तथा अन्तरंग तपस्या के रूप में प्रायश्चित, विनय, साधुसेवा, स्वाध्याय, विषयविराग और ध्यान को स्वीकार किया है । तपस्या का यह क्रम इतना सहज और इतना उत्तम है कि कोई भी इनका पालन करनेवाला उन उत्तम स्थितियों को प्राप्त कर सकता है जो जैन मुनियों के द्वारा निर्दिष्ट हैं । बाहर से काफी कठिन दिखलाई देनेवाली ये विधियां उत्तम लक्ष्य के प्रति समर्पित भक्ति को डिगानेवाली नहीं हो सकती, हां उनके लिए अवश्य भयावह और अविश्वसनीय हो सकती हैं जिनकी इन्द्रियां विकल है, जिनका मन चंचल है और जिनका चित उत्तम लक्ष्य के प्रति समर्पित नहीं है। एक नहीं अनेक जैन मुनियों के उदाहरण इस दिशा की ओर संकेत करते हैं जिन्होंने इन ही विधियों का आधार लेकर जीवन को उत्तम लक्ष्य तक पहुंचाया । कनकामर का करकण्डचरिउ ऐसे लोगों के लिए प्रेरणा का उत्तम स्रोत हो सकता है जो चाहे किसी जाति, सम्प्रदाय, देश और काल के हों लेकिन जिनमें उत्तम लक्ष्य की प्राप्ति का दृढ़ संकल्प हो अन्यथा और लोगों के लिए यह मात्र10 बात का विषय है। जैनों के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव जिनकी पवित्र कीति अनादिकाल से विश्व को पालोकित कर रही है उन्होंने यह स्पष्ट स्वीकार किया था कि मनुष्य का देह केवल विषयभोगों के लिए समर्पित होने के लिए नहीं है अपितु, उस दिव्य तपस्या के लिए है जिससे सत्त्व की शुद्धि होती है और अनन्त परमात्मसुख की उपलब्धि भी। यह सब कुछ महान् पुरुषों की भक्ति से प्राप्त होता है। ऐसे महान् पुरुषों का स्वभाव समानचित्त, प्रशान्त, क्रोधरहित सुहृदता से भरा हुआ और साधनायुक्त होता है । उनकी परम्परा का अनुसरण करते हुए जैनाचार्यों ने अत्यन्त संयमपूर्वक बिना किसी असावधानी के अपनी ओर से कुछ भी कपोलकल्पित न जोड़ते हुए उत्तरोत्तर मानवजाति को जिस रूप में दिया वह अनुकरणीय है। अपने प्राचार्यों के द्वारा सामने लायी गई परम्परा को जिस श्रद्धा और जिस विश्वास के साथ जैन साधकों ने जीवन में उतारा वह निश्चित ही श्रद्धा का विषय है। जिन रचनाकारों ने सिद्धांत के रूप में उन्हें अविकल रूप में परम्परा को अर्पित किया उनका महत्त्व किसी रूप में पूर्वाचार्यों का अनुसरण करने के कारण कम नहीं होता और जिन कवियों ने पुराण अथवा प्रबन्धादि साहित्य के रूप में उस अध्यात्म-चेतना को उत्तम चरित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने में रुचि ली, सत्य के प्रति उनका इतना महत्त्वपूर्ण आग्रह विशेष श्रद्धा का विषय है । करकण्डचरिउ विशेष प्रबन्धकाव्यों की श्रृंखला की वह विशेष कड़ी है जिनका प्रयत्न आज की मानवजाति के लिए अनुकरणीय है और इसका मूल कारण है उसमें निहित अध्यात्मचेतना का सोपानवत् उत्तरोत्तर सूक्ष्म स्थितियों तक कथा के माध्यम से आगे बढ़ाने की पद्धति । कुछ लोगों को व्रतों, उपवासों और तपस्यानों के बाह्यार्थनिरूपक होने का भ्रम हो सकता है किन्तु जो महापुरुष ये जानते हैं कि संसार की यात्रा प्रात्मा से पंचेन्द्रियों तक होती है और परमात्मपथ की यात्रा ऐन्द्रिय-विषयों के विराग से क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त, जीव और फिर प्रात्म और परमात्म स्थिति तक है उन्हें इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं हो सकता कि जैन तीर्थंकरों का दिखलाया हुआ यह अध्यात्मपथ मानवकल्याण की भावना से शुरू होकर मोक्षत्व की प्राप्ति तक फैला हुआ है जिसके विभिन्न
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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