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________________ जनविद्या कर्मरूपी वृक्ष को ध्यानाग्नि में जला दिया । कामोद्दीपन का परिहार करते हुए नेत्रों को नासाग्र पर निवेशित करके निर्मल आकाश के सदृश मलरहित परमात्मज्ञान में अपने को निवेशित कर आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया। . कनकामर द्वारा विरचित यह प्रबन्धकाव्य एकसाथ कई वैशिष्ट्यों को अपने में संजोये है। उसे उत्तमकोटि की साहित्यिकता, सामाजिक उत्तरदायित्व, रीति-नीति और अध्यात्मचेतना को प्रश्रय देते हुए इस रूप में प्रस्तुत किया है जो काव्य का एक महनीय प्रयोजन कहा गया है। यह ठीक है कि इसने भारतीयदर्शन की एक विशेष धारा को अपनी रचना की पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार किया है और उसके अनुसार अपने प्रधान और अप्रधान चरित्रों की सृष्टि की है, किन्तु कथानक में इतनी सहजता और कोमलता है कि इस विशेष पद्धति को अधिक बहुमान न देनेवाला भी इसलिए अवश्य पसन्द करेगा कि उसमें मनुष्य के उत्तम प्राचार और उत्तम विचार को महत्ता दी गई है और पग-पग पर प्रायोगिक स्तर पर उसे जीवन में उतारने का आग्रह ही नहीं चरित्रों के माध्यम से उसे प्रयोजित होते भी दिखाया गया है । इसका सीधा सा तात्पर्य है बातों के बदले जीवन-क्षेत्र में उन महत्तम सत्यों को चारित्रिक स्तर पर ढालने की अनिवार्यता के प्रति प्राग्रह । महत्त्वपूर्ण वह नहीं होता जो बड़ी-बड़ी बातें कर सकता है अपितु वह होता है जो बड़ी बातों के अनुसार अपने जीवन को चलाता है । इन अर्थों में अन्य जैन रचनाकारों की भांति कनकामर की यह रचना निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है। आचारपालन यद्यपि जीवन का बाह्य अंग सा दिखलाई देता है किन्तु बात ऐसी है नहीं। किसी भी बड़े धर्म में, किसी भी बड़ी विचारधारा में प्राचार को इसलिए महत्त्व दिया गया है कि उसके द्वारा मनुष्य के विचार, मनुष्य की कल्पनाएँ और भावनाएँ प्रभावित होती हैं । उत्तम आचार उत्तम विचार और व्यवहार का पोषक तत्त्व है । जैनाचार्यों ने बड़ी बातें न कर व्रतों, उपवासों, तपस्यानों के आधार पर ऐसी प्राचार परम्परा को आत्मसात् करने का प्रयत्न किया है जो मानवीय चेतना को तह तक प्रभावित करते हैं । उनका पालन किसी भी मनुष्य के लिए महत्त्व का विषय हो सकता है । इन प्राचार्यों के उपदेश में जो सबसे बड़ी बात है वह है इनके 63 महापुरुषों का जो चरित्र सामने लाया गया है वह न केवल जैन धर्मावलम्बियों के लिए महत्त्वपूर्ण है अपित संसार के किसी भी कोने में रहनेवाले मानव के लिए प्रेरणाप्रद है क्योंकि उनकी चेतना ने अपने जीवन के द्वारा अपने को प्राचारमापक तत्त्व के रूप में प्रस्तुत किया है। करकण्डचरिउ में कनकामर विभिन्न कथानों के माध्यम से धीरे-धीरे अपने पाठक की मनःस्थिति को ऐसे सहज बिन्दु पर ले जाते हैं जो उसे संसार की अनित्यता के प्रति सावधान तो करता ही है, संसार के लोगों के द्वारा इस महत्तम सत्य की प्राप्ति के प्रति भी उत्प्रेरित करता है। वह जीव को परमात्मा के समानान्तर लाकर तपस्या के बल पर खड़ा होने की बात जब कहता है तो निश्चित समझना चाहिए कि उसका उद्देश्य मनुष्य को भव्यतम स्थितियों तक पहुंचाना है । तपस्याओं के दो स्वरूप-बाह्य तपस्याएं तथा अन्तरंग तपस्याएँ के रूप में जो उन्होंने बतलाए उनका लक्ष्य मूलतः द्रव्यशुद्धि है जो कषाय के रूप में जीव के साथ लगी रहती है।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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