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________________ जनविद्या 65 से पहले उनके जीवन में एक नियमबद्धता और चरित्र की शुद्धि दिखलाई पड़ी थी, उसे वैराग्योदय के साथ रचनाकार कसे सोपानवत् प्राचार-पालन से जोड़ता हुमा उनकी पंचभौतिक और प्रात्मशुद्धि को सम्पादित किया है जो इस बात का द्योतक है कि जनदर्शन की मूलभित्ति विशुद्ध, प्रामाणिक और सोपानवत् प्राचार पर आधारित है । जैनदर्शन में जिन तत्त्वों का विशेष रूप से विचार और विस्तार मिलता है वे द्रव्य कहे गये हैं। वे हैं-जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव और अजीव इन दोनों को द्रव्य कहने का तात्पर्य है-जीव मतलब प्रात्मा की संसारदशा, इसमें प्राण होता है और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रियजन्य शक्ति भी। शुद्धनय के अनुसार जीव में विशुद्ध ज्ञान तथा दर्शन होता है किन्तु व्यवहार दशा में कर्म की गति के प्रभाव से उसका आच्छादन हो जाता है । अणुव्रत और शिक्षाव्रतों के द्वारा उसके इसी द्रव्यरूप को शुद्ध करने की प्रक्रिया जनदर्शन में निहित है। जिनके द्वारा जीव द्रव्यत्व के स्थूल प्रभाव से मुक्त होकर अनुप्रेक्षाओं की सहायता से कर्म पुद्गलों से मुक्त होकर जिन बनने की शक्ति पाता है । . जैसा कि पहले कहा गया है अणुव्रत ही अपने सूक्ष्म रूप में मुनिव्रत या महाव्रत कहे जाते हैं । इन महाव्रतों का पालन जीव को 'जिन' रूप में प्रस्तुत कर देता है । ये व्रत हैंअहिंसा, अमृषा, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । मुनि कनकामर के शब्दों में-'जहां क्षणमात्र के लिए भी माया (मन की वक्रता) का प्रवेश नहीं होता, जो त्रस और स्थावर जीवों की रक्षा करता है वह असंख्य लाख भोगों को भोगता है । जो अनुराग के कारण झूठ वचन नहीं बोलता वह अपने वचन से वृहस्पति को भी जीत लेता है । जो पराये धन का कदापि अपहरण नहीं करता वह इन्द्र को भी चिन्तित कर देता है । जो नौ प्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन करता है वह असीम मोक्ष-सुख को प्राप्त करता है। जो दो प्रकार (अन्तरंग व बहिरंग) के परिग्रह का परिहरण करता है, वह संसाररूपी महासमुद्र को पार कर लेता है।' जनदर्शन में प्रात्मा (जीव) की मुक्ति का यह चरम सोपान है जो क्रमश: वैराग्य से शुरू होकर मोक्ष स्थिति की प्राप्ति तक चलता रहता है । मुनिवर शीलगुप्त ने नरेश्वर करकण्डु को जो व्रत बतलाये, मोक्ष उनका सबसे महत्त्वपूर्ण परिणमन है, जो इन विधियों का पालन करता है मुनि शीलगुप्त के अनुसार वह सम्यक्-ज्ञान, सम्यक् प्राचार और सम्यक् विचार की समावस्था मोक्ष का परम अधिकारी होता है । जैन शास्त्रों में मोक्ष के दो भेद स्वीकार किये गये हैंभावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । भावमोक्ष वास्तविक मोक्ष से पहले की स्थिति है जहां घातीय कर्मों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) का नाश होता है । इसके बाद अघातीय कर्मों का अर्थात् आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय का भी नाश होता है तब जाकर आत्मा को द्रव्यमोक्ष की स्थिति प्राप्त होती है । यह वह अवस्था है जब जीव सभी कर्मों और प्रौपशमिक, क्षायोपशमिक, प्रौदयिक और ममत्व भावों से भी मुक्त होकर स्वाभाविक ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । मुनि शीलगुप्त ने इसीलिए करकण्डु को इन व्रतों, उपवासों, तपस्याओं का महत्त्व बतलाते हुए मुक्ति के प्रति प्रेरित किया है जिसके कारण करकण्डु ने वैराग्यपूर्वक पंचकल्याणवत धारण किया, फिर तपस्यापूर्वक उन्होंने माया, मान, लोभ और मोह को अपने से बाहर फेंक दिया, चंचल इन्द्रियों का संवरण किया, हृदय में परमात्मा का ध्यान करते हुए
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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