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________________ जैन विद्या करना पड़ता है। स्थापत्य में सौंदर्य का अभिनिवेश, प्रतीकों का संयोजन और विषयवस्तु का कलात्मक चित्रण शिल्प की सुन्दर सृष्टि है। इसमें कलाकार का व्यक्तित्व और उसकी सांस्कृतिक विरासत तो प्रतिबिंबित होती ही है, साथ ही लोकतत्त्वों का स्फुरण भी वृत्ति, रीति आदि के माध्यम से प्राकलित हो जाता है। शिल्प की परिनिष्ठितता काव्यात्मकता से सम्बद्ध है उसमें रस, गुण, अलंकार, कथातत्त्व, चरित्र-चित्रण आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है । शिल्प-विधान का केन्द्रीय तत्त्व कथानक हुमा करना है, जिसके माध्यम से संस्कृति और सिद्धान्त को प्रस्फुटित किया जाता है। पद्मावत में जो कथानकरूढ़ियां दिखाई देती हैं वे भारतीय लोककथानों में काफी प्राचीन काल से प्रचलित रही हैं। प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कथानक को गति देने के लिए सूफी कवियों ने प्रायः उन सभी कथानकरूढ़ियों का व्यवहार किया है जो परम्परा से भारतीय कथाओं में व्यवहृत होती रही हैं, जैसे-चित्रदर्शन, स्वप्न द्वारा अथवा शुक-सारिका आदि द्वारा नायिका का रूप देख या सुनकर उस पर आसक्त होना, पशु-पक्षियों की बात-चीत से भावी घटना का संकेत पाना, मन्दिर या चित्रशाला में प्रिय युगल का मिलन होना, इत्यादि । परियों और देवों का सहयोग, उड़नेवाली राजकुमारियां, राजकुमारी का प्रेमी को बन्दी बना लेना आदि जैसी रूढ़ियों को भले ही ईरानी-फारसी रूढ़ियों के रूप में प्रस्तुत किया जावे पर उन्हें भी भारतीय लोककथाओं में देखा जा सकता है । कवि कथाविस्तार के लिए कुछ ऐसी कथाएँ लोकतत्त्व के आधार पर गढ़ लेता है जो आश्चर्यमिश्रित रहा करती हैं जैसे-घोड़े का जंगल में भटक जाना और विपत्तियों का टूट पड़ना । कथानों में इसे टनिंग प्वाइंट (मोड़ बिन्दु) कहा जाता है । कथानक को विकास एवं दिशा देनेवाली सामान्य घटनापरक विशेषताओं को आलोचकों ने मोटिफज (कथानकरूढ़ियां) कहा है । ये कथानकरूढ़ियां अधिकांशतः प्रेमकाव्यों में पायी जाती हैं। इनसे कथा में सरसता और प्रवाहशीलता आ जाती है। अपभ्रश के ऐहिकतामूलक साहित्य में ये कथानकरूढ़ियां विशेष व्यवहृत हुई हैं । सामान्य रूढ़ियों में निम्नलिखित रूढ़ियों का उपयोग अधिक हुअा हैप्रेमकथा; चित्रदर्शन से प्रेम, प्रेमबाधाएँ, सिहलयात्रा, समुद्र-यात्रा, राक्षस, अप्सरात्रों द्वारा आश्चर्य तत्त्व का मिश्रण, शाप, प्राकाशवाणी, शुक, कपोत, सपत्नी-ईर्ष्या, वन में सुन्दरीदर्शन, सुन्दरी का उद्धार, दोहद, प्रतीकात्मक स्वप्न, कन्याहरण, तूफान, नायक-नायिका की परीक्षा आदि । इन कथानकरूढ़ियों को प्रकृति-चित्रण के माध्यम से विशेषतः विकसित किया जाता है। कथानकरूढ़ियाँ उपर्युक्त दोनों प्रबन्धकाव्यों की कथानकरूढ़ियों को इस संदर्भ में समझ लेना आवश्यक है जिससे उनकी शिल्पगत विशेषताएं स्पष्ट हो सकें । करकण्डचरिउ की कथानकरूढ़ियाँ इस प्रकार हैं 1. जिन-स्तुति।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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