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जैन विद्या
साहित्य के क्षेत्र में सतत बनी रही है । करकंडचरित के संदर्भ में भी यह तथ्य पूर्णतः खरा उतरता है । उसे हमने इतना पाकर्षक बना दिया है कि उसके कुछ तत्त्व लोकतत्त्व के रूप में जनसमुदाय में प्रचलित हो गये और आगे चलकर वे प्रेमाख्यानक काव्यों की कथानकरूढ़ियां बन गये । मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत में ऐसी ही कथानकरूढ़ियों का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
सूफी मत ने 11-12 वीं शती में भारत में पंजाब और सिंध द्वार से प्रवेश किया जहाँ सभी भारतीय सम्प्रदाय अच्छी स्थिति में थे। अपने धर्म को प्रभावक बनाने के लिए उसे भारतीय सांस्कृतिक तत्त्वों को आत्मसात करना आवश्यक था । फलतः उसने वैदिक, बौद्ध और जैन धर्म के मूल लोकाख्यानों को अपने सिद्धांतों का पुट देकर और भी संवारा और भारतीय समाज में घुल-मिल गया । इस्लाम की विजयमादकता और असहिष्णुता उसमें नहीं थी। सामंजस्यता के बल पर उसने अपना स्थान समाज में बना लिया, संतों से उसका सम्पर्क हुआ और भक्ति आंदोलन के विकास में उसने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
जायसी सूफी परम्परा के अन्यतम कवि हैं । उनका जन्म 1505 ई. में जायस . (रायबरेली का समीपवर्ती उदयनगर) में हुआ था। अवध उनकी कर्मभूमि रही है । वे अनुभव के धनी थे, संवेदनशील, भावुक और सहृदय फकीर थे, उदार, सहिष्णु और सिद्ध भक्त थे । उन्हें सभी धर्मों का अच्छा अध्ययन था।
.. पद्मावत जायसी का अन्यतम ग्रन्थ है जिसमें लौकिक प्रेम के साथ आध्यात्मिकता का सुन्दर समन्वय किया गया है यदि उसके अंतिम अंश को प्रक्षिप्त न माना जाय तो। मसनवी शैली में रचित इस प्रबन्धकाव्य का मुख्य उद्देश्य आध्यात्मिकता का आभास कराना था। कल्पना और इतिहास से मिश्रित इस कथाकाव्य में साम्प्रदायिकता से हटकर प्रेम के प्रकृष्ट रूप को प्रतिष्ठित किया गया है । उसमें साधक के लिए समभावी होकर मानवता की रक्षा करने और रहस्यवादी भावना से परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग प्रदर्शित किया गया है। इस प्रेम में कोई मुखौटा और आडम्बर नहीं होना चाहिए। जायसी का यह चिन्तन तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था।
जायसी के समय तक जैनधर्म का मध्यकालीन रूप प्रस्थापित हो चुका था जिसमें भक्ति तत्त्व का विकास द्रष्टव्य है। उसके कतिपय तत्त्व करकण्डचरिउ में भी दिखाई देते हैं । मुनि कनकामर और जायसी के बीच लगभग 500 वर्षों का अन्तराल रहा है। इन 500 वर्षों में जैनधर्म में भक्ति के नये-नये आयाम खुल गये थे । लोककथाओं और धार्मिक कथाओं को तद्नुरूप परिवर्तित कर दिया गया था। करकंडचरित के जन रूप ने जनेतर परम्पराओं को भी प्रभावित किया है । जायसी समन्वयवादी थे । उन्होंने पद्मावत के शिल्प-विधान में यदि जैन करकण्डु कथा के कतिपय तत्त्वों को ग्रहण किया हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
शिल्प, रचना-प्रक्रिया का एक ऐसा सजीव फ्रेम है जिसका सूत्र परम्परा से तो जुड़ा रहता है पर उसे जीवंत बनाने के लिए कुछ लोकप्रिय कल्पनात्मक तत्त्वों को भी आयातित