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जैन विद्या
करते हैं, फिर यदि कोई उसकी अनुमति पा जाय तो नारी की अवहेलना कौन करेगा ? स्त्री के संग से जिसकी मति चलायमान न हुई वह पुरुष, हे राजन ! सिद्धगति को प्राप्त करता है ।
ये उद्धरण यह कहने के लिए पर्याप्त हैं कि करकण्डचरिउ का केन्द्रीय तत्त्व सांसारिकता की दृष्टि से प्रेम रहा है और उसी पर विजय प्राप्त करने के लिए सारी तपस्या का विधान हुआ है । जायसी ने भी 'सुना जो प्रेम पीर गा पावा' तथा 'प्रेमहि मांह विरह सरसा । मन के घर वधु अमृत बरसा ॥' एवं 'प्रेम कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेहु जो बूझै पारहु ॥' आदि के माध्यम से प्रेम की स्वाभाविकता को पुष्ट किया है और उसी को आध्यात्मिकता से जोड़ दिया है।
करकण्डु और पद्मावत की प्रेमकथा में अन्तर यह है कि पद्मावत का शब्द प्रेम और अध्यात्मक की व्यंजना से प्रोतप्रोत है। नायक-नायिका क्रमशः ब्रह्म और जीव के प्रतीकरूप में चित्रित हैं, काव्य का नाम नायिका के ऊपर है परन्तु करकण्डु में न प्रतीकात्मकता है और न कोई प्रतिनायक है । यहां करकण्डु ही आद्योपांत नायक के रूप में चित्रित है और वही अन्त में उच्च गति प्राप्त करते हैं । दूसरे शब्दों में करकण्डचरिउ यद्यपि प्रेमकथा काव्य है पर उसका उद्देश्य संसारी प्राणियों को मोक्ष-प्राप्ति की ओर अग्रसर करना रहा है। इस काव्य के हर शब्द की पृष्ठभूमि में आध्यात्मिकता छिपी है । जिनेन्द्र की स्तुतिपूर्वक सरस्वती की वंदना कर कवि ने उस करकण्डु के चरित्र का वर्णन किया है जो लोगों के कानों को सुहावना, मधुर और ललित लगनेवाला है, पंचकल्याणकविधिरूप रत्न से जटित है और जो गुणों के समूह से भरा हुमा एवं प्रसिद्ध है (1.2) । कवि का मूल उद्देश्य परमात्मपद प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित करना रहा है। करकण्डु ने जीवन को अच्छी तरह जीया है और अन्त में सारे वैभव को त्याग कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया है (10.27)। कवि ने अन्त में प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ के पठनपाठन से प्रात्मकल्याण होने की भी बात कही है। पद्मावत में भी जायसी ने अन्त में लगभग इसी आशय को व्यक्त किया है
केइ न जगत जस बेचा, केई न लीन्ह जस मोल। ...
जो यह पढ़ कहानी, हम संवरे दुइ बोल ॥ अपभ्रंश कथाकाव्यों के निर्माण तक संस्कृत महाकाव्यों का स्वरूप स्थिर हो चुका था और उसी के आधार पर कथाकाव्यों का सृजन हुआ है। इसी की अधिकांश विशेषताएँ इन कथाकाव्यों में प्रतिबिंबित हुई हैं। चूंकि इनका आधार लोककथाएँ, लोकवार्ताएँ और लोकतत्त्व रहे हैं इसलिए उनमें उपलब्ध आश्चर्यात्मकता भी यहाँ जुड़ गयी है । जायसी का काव्य मसनवी और भारतीय पद्धति का समन्वित रूप है। मसनवियों की शैली के अनुसार प्रथम स्मृतियां होती हैं जिनमें क्रमशः ईश्वर मुहम्मद साहब, खलीफा, गुरु शाहे वक्त की स्तुति का प्राधान्य रहता है । इसमें और भारतीय पद्धति में कोई विशेष अन्तर नहीं है। अन्तर है इष्ट देवता का । भारतीय परम्परा में भी लेखक सर्वप्रथम अपने इष्टदेव की वंदना करता है, मंगलाचरण करता है, विनम्रतापूर्वक पूर्व कवियों का स्मरण कर अपने अभिधेय को व्यक्त करता है और उसके बाद वस्तुवर्णन के माध्यम से कथाप्रवाह आगे बढ़ता है। करकण्डचरिउ