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________________ जैनविद्या 55 मूछित होना। 31. दिल्ली जाकर अलाउद्दीन से मिलकर पद्मावती के सौंदर्य का वर्णन करना । 32. अलाउद्दीन द्वारा रत्नसेन के पास पद्मावती को भेजने के लिए दूत-प्रेषण और न मिलने __पर युद्ध की तैयारी। 33. अलाउद्दीन और रत्नसेन का युद्ध । नर्तकी पर बाण द्वारा प्रहार । राजपूतों की क्रोधा भिव्यक्ति । फलतः दोनों में संधि । 34. अलाउद्दीन रत्नसेन द्वारा भोज पर निमंत्रित । बाद में उनका चित्तौड़गढ़ अवलोकन । शतरंज खेल में मग्न उसे अचानक पद्मावती का दर्शन होना। 35. गढ़ के दरवाजे पर रत्नसेन का कैद किया जाना और उसे दिल्ली ले आना। 36. राजा देवपाल तथा अलाउद्दीन द्वारा पद्मावती को फुसलाने में असफलता । 37. गोरा-बादल के पास पद्मावती का सहायतार्थ जाना और रत्नसेन को मुक्त करने का वचन लेना। 38. सेनासहित कपटपूर्वक पद्मावती को पालकी में ले जाना और रत्नसेन के बन्धन काट देना । बादल का उसे लेकर चित्तौड़ भागना । फलतः गोरा के साथ दोनों सेनाओं में युद्ध, अन्ततः गोरा की युद्ध में मृत्यु । 39. रत्नसेन और देवपाल का युद्ध । युद्ध में रत्नसेन की मृत्यु । गढ़ बादल को समर्पित । 40. पद्मावती और नागमति का सती हो जाना, अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर आक्रमण । . बादल की पराजय होने पर सारी स्त्रियों का सती हो जाना। अलाउद्दीन का चित्तौड़ पर अधिकार प्राप्त करना, पर पद्मावती को प्राप्त न कर पाना । मूल्यांकन दोनों प्रबन्धकाव्यों की कथानकरूढ़ियों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ऐसा लगता है कि कनकामर और जायसी ने लोकतत्त्वों का भरपूर उपयोग किया है। दोनों काव्य मूलतः प्रेमाल्यानक हैं । इस संदर्भ में पद्मावत के विषय में कुछ कहने की अावश्यकता ही नहीं क्योंकि सूफियों में प्रेम की पीर ही प्रमुख है । जहां तक करकण्डचरिउ का प्रश्न है उसका भी प्रारम्भ प्रेमकथा से होता है। मुनि कनकामर ने ग्रंथ के प्रारम्भ में ही 'मणमारविणासहो' (1.1) कहकर मनमथ पर विजय प्राप्त करने को प्रमुखता देकर यह स्पष्ट किया है कि कामवासना को जीतना सर्वाधिक कठिन होता है। आगे चलकर उन्होंने इसी का समर्थन करते हुए कहा है सम्भावें कामुउ सयलु जणु, तिय झायइ हियवएँ एयमणु । जइ अणुमइ पावइ तहो तणिय, ता भणहि णारि किं अवगणिय । तहे संगई जासु ण चलइ मइ, सो लहइ गरेसर सिद्धगइ । 10.9. .. अर्थात् स्वभाव से सभी कामुक हुप्रा करते हैं और एकाग्रमन से अपने हृदय में स्त्री का ध्यान
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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