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जैन विद्या
आप धार्मिक संकीर्णता से रहित उदार हृदय व्यक्ति थे, मनस्वी थे । कालान्तर में कविश्री देह-भोगों से विरक्त होकर दिगम्बर मुनि हो गए । तब से उनका नाम मुनि कनकामर प्रसिद्ध हुमा । वस्तुतः कविश्री का व्यक्तित्व साधुमय था । देशाटन करते समय कविश्री कनकामर का 'असाइय' नगरी में पहुंचना हुआ और आपने इसी नगरी में दस सन्धियों के अपने इस चरितात्मक महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' की सर्जना की।
महाकाव्य के अन्त में मुनिश्री ने अपने प्राश्रयदाता का भी कुछ परिचय दिया है । आपने लिखा है-ये सज्जन बड़े योग्य एवं व्यवहारकुशल थे। वे विजयपाल नरेश के भी स्नेहभाजन थे तथा उसके मुख के दर्पणवत् थे, उन्होंने राजा भुवपाल के मन को मोह लिया था तथा वे कर्ण नरेन्द्र के चित्त को भी आनंदित किया करते थे। उनके तीन पुत्र थे-पाहुल, रल्हो तथा राहुल । तीनों पुत्र कनकामरजी के चरणों में अनुरक्त थे (10.29, 2.13) । कविश्री ने महाकाव्य के आरम्भ में (1.2.1) सरस्वती के अतिरिक्त पंडित मंगलदेव के चरणों का स्मरण किया है। साथ ही अन्तिम प्रशस्ति (10.28.3) में स्वयं को बुध मंगलदेव का शिष्य कहा है । अतएव मुनिश्री कनकामर के गुरु का नाम मंगलदेव स्पष्ट है जो पंडित मंगल के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
मुनिश्री कनकामर ने ग्रंथ के रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया है । काव्यकार ने अपने पूर्ववर्ती सिद्धसेन, समन्तभद्र, प्रकलंक, जयदेव, स्वयंभू और पुष्पदंत का उल्लेख किया है (1.2.8-9) । पुष्पदंत ने अपना 'महापुराण' ई. सन् 965 में समाप्त किया था अतएव 'करकण्डचरिउ' की रचना इससे पूर्व नहीं हो सकती है । इस महाकाव्य की प्राचीन हस्तलिखित प्रति वि. सं. 1502 की उपलब्ध है । अतः कविश्री का काल सं. 1502 के पश्चात् भी नहीं हो सकता है । डॉ. हीरालाल जैन इतिहास के आलोक में 'करकण्डचरिउ' का प्रणयनकाल सन् 1065 ई. के लगभग स्वीकारते हैं । वस्तुतः मुनिश्री कनकामर ग्यारहवीं शताब्दी के महाकवि थे और 'करकण्डचरिउ' कविश्री की एकमात्र रचना है।
चरितात्मक महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' के प्रणयन में कविश्री का अभिप्रेत जैनधर्म के सदाचारमय जीवन का दिग्दर्शन ही रहा है। उपवास, व्रत, देशाटन, रात्रिभोजननिषेध आदि प्राचार के अनेक साधारण अंगों का भी उल्लेख कविश्री ने अपने महाकाव्य में किया है। हिन्दुओं के देवताओं-बलभद्र, हरि (9.5.5), बलभद्र, यम, वरुण (9.7.8-9), बलराव, वरायण (10.25.3), हरि, हर, बम्ह, पुरंदर (10.8.9-10) का भी महाकाव्य में उल्लेख मिलता है। महाभारत के पात्र अज्जुणु-अर्जुन का उल्लेख कवि काव्य में द्रष्टव्य हैं (10.22.7)।
रोमान्टिक-चरित-प्रधान महाकाव्य 'करकण्डचरिउ' का प्रणयन मुनिश्री कनकामर ने श्रुतपंचमी का फल तथा पंचकल्याणक विधि की प्रतिष्ठा को ध्यान में रखकर किया है। इस रचना का विशेष महत्त्व इसलिए है कि इसमें कई कथाओं का संग्रह है तथा मन्दिर के शिल्प का वर्णन भी है। राजकुमार करकंडु के पाख्यान द्वारा हिंसामियों के पुनर्जन्मों में नाना प्रकार के दारुण दुःखों/भोगों का वर्णन करके जैनधर्म की महिमा का गुणगान किया