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________________ जनविद्या गया है । जैन परम्परानुसार करकण्डु ईसा से लगभग पाठ सौ वर्ष पूर्व हुए थे। उनका सम्मान दिगम्बरों और श्वेताम्बरों में ही नहीं है वरन् बौद्धों ने भी इन्हें 'प्रत्येक बुद्ध' रूप से स्वीकार किया है । अतएव करकंडु पूर्वबुद्ध युग के ऐतिहासिक पुरुष सिद्ध होते हैं । मुनिश्री कनकामर ने एक ऐतिहासिक महापुरुष को अपने चरितकाव्य का नायक बनाया है। दस सन्धियों के इस काव्य में करकण्डु की कथा के साथ नौ अवान्तर कथाएँ भी संयोजित हैं । अवान्तर कथाएँ नीति की शिक्षा देती हैं। 'करकण्डचरिउ' में काव्यकार का लक्ष्य नायक के ऐतिहासिक जीवन पर प्रकाश डालना नहीं है । उनका प्रयत्न यह है कि पौराणिक और लोककथाओं के मिश्रण से कथावस्तु को रोचक कैसे बनाया जाय ? काव्य में वर्णित कुछ कथाएं तत्कालीन समाज में प्रचलित होंगी या फिर कवि कल्पना की देन । अनेक कथाओं का प्राभास अन्य संस्कृत ग्रन्थों में उपलब्ध होता है । आठवीं कथा को पढ़कर तो बाणकृत 'कादम्बरी' के शुक का ध्यान हो पाता है । ये कथाएँ मूलकथा के विकास में अधिक सहायक नहीं होती। किसी भी घटना को स्पष्ट करने के लिए एक स्वतन्त्र कथा का वर्णन पंचतन्त्र का ढंग है जो इस महाकाव्य में उपलब्ध है। धार्मिक काव्यों की भांति इसमें भी अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का समावेश है । पौराणिक, काल्पनिक तथा अलौकिक घटनामों के कारण कथानक में काव्योपम सम्बन्ध का निर्वाह भी भलीभांति नहीं हो पाया है। कवि का उद्देश्य प्रादर्श की स्थापना करना रहा है। इतिवृत्तात्मकता की अपेक्षा इसमें संग्रहात्मकता अधिक है। कथा का प्रमुख पात्र करकण्डु है जिसके चरित्र का कविश्री ने अपने समूचे काव्य में विशद रूप से वर्णन किया है। वह धीरोदात्त, गुणसम्पन्न नायक है। उसका चरित्र शक्ति, शील और सौन्दर्य से अनुप्राणित है। मातृभक्ति और विनयसम्पन्नता इस चरित्र की अतिरिक्त विशेषता है । मां पद्मावती के चरित्र का भी काव्य में विकास द्रष्टव्य है । उसमें पुत्र-वात्सल्य एवं मोक्ष की प्राकांक्षा का सुन्दर समायोजन हुआ है । अन्य पात्रों में मुनि शीलगुप्त, रानी मदनावली, रानी रतिवेगा प्रादि हैं । इनके चरित्र का प्रांशिक विकास दृष्टिगत है। ___मुनि कनकामर के 'करकण्डचरिउ' में मानव-जगत् और प्राकृतिक-जगत् दोनों का वर्णन हुआ है। मानव-हृदय के भावों का सुन्दर अनुभूतिपूर्ण चित्रण दर्शनीय है । करकण्डु के दन्तिपुर में प्रवेश करने पर सुन्दरियों के विक्षुब्ध होने की मार्मिक अभिव्यक्ति द्रष्टव्य है यथा कवि रहसई तरलिय चलिय णारि, विहरपफर संठिय का वि वारि । क वि पावइ गवणिवरणेहलुख, परिहाणु ण गलियउ गण्इ मुख । क वि कज्जलु बहलउ महरे बेइ, गयणुल्लएँ लक्लारसु करेइ । कवि णेउर करयलि करइ बाल, सिर छडिवि कडियले धरह माल । रिणयणंदण मण्णिवि क वि वराय, मज्जारु न मेल्लइ साणुराय। (3.2.)
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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