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________________ जनविद्या ..... अर्थात् करकण्डु के आगमन पर कोई स्त्री आवेग से चंचल हो चल पड़ी, कोई विह्वल हो द्वार पर खड़ी हो गई, कोई मुग्धा प्रेम-लुब्ध हो दौड़ पड़ी, किसी ने गिरते हुए वस्त्र की भी परवाह न की, कोई अधरों पर काजल भरने लगी, आंखों में लाक्षारस लगाने लगी, किसी ने नूपुर को हाथ में पहना, किसी ने सिर के स्थान पर कटि-प्रदेश पर माला डाल दी और कोई बेचारे बिल्ली के बच्चे को अपना पुत्र समझ सप्रेम छोड़ना नहीं चाहती। इसी प्रकार मुनिराज शीलगुप्त के आगमन पर नगर की नारियों के हृदय में उत्साह और उनके दर्शन की उत्कण्ठा का चित्रण उल्लेखनीय है (9.2.3-7) । भौगोलिक प्रदेशों के वर्णन भी कविश्री ने अनेक स्थलों पर किए हैं। इन वर्णनों में मानव-जीवन का सम्बन्ध सर्वत्र परिलक्षित होता है । अंगदेश का वर्णन हो (1.3.4-10), राजा धाड़ीवाहन का वर्णन हो (1.5), श्मशान का वर्णन हो (1.17), राजप्रासाद का वर्णन हो (3.3), सिंहलद्वीप का वर्णन हो (7.5) या फिर गंगा का वर्णन (3.12, 5.10) ये सब प्रसंग काव्यमय हैं । इस प्रकार कविश्री द्वारा वस्तुयोजनान्तर्गत नगर, द्वीप प्रादि का वर्णन चित्रोपम हुआ है। ___ अपभ्रंश काव्यों की भांति 'करकण्डचरिउ' महाकाव्य वीर और शृंगार रसयुक्त है जिसका पर्यवसान शांतरस में होता है। कथानक से स्पष्ट है कि कविश्री को संयोग और वियोग दोनों प्रकार के अनेक अवसर प्राप्त हुए हैं । कविश्री ने नारी-रूप वर्णन में परम्परा का ही पाश्रय लिया है। प्रेम का रूप कवि ने सम रखा है। वियोग में नायक और नायिका दोनों दुःखी एवं अश्रु बहाते चित्रित किये हैं परन्तु नायिका के वियोग-वर्णन में जो तीव्रता है वह नायक के वियोग-वर्णन में नहीं । उदाहरण के लिए रतिवेगा करकंडु के सहसा विलुप्त हो जाने पर विलाप करने लगी। उसके विलाप से समुद्र का जल विक्षुब्ध हो उठा, नौकाएं परस्पर टकराने लगीं । हा हा का करुण शब्द सर्वत्र व्याप्त हो गया, चराचर उससे दुःखी हो गये (7.10.9-10)। कविकाव्य में उत्साह-भाव को उबुद्ध करनेवाले अनेक सुन्दर वर्णन मिलते हैं। चम्पाधिपति के युद्ध के लिए प्रस्थान उत्साह की सुन्दर अभिव्यंजना है (3.14.1.10) । युद्धगत भिन्न-भिन्न क्रियाओं और चेष्टाओं का सजीव चित्र सुन्दर शब्दयोजना के द्वारा कविश्री ने प्रस्तुत किया है यथा रोसं वहतेण, करे घणहु किउ तेण । तहो चप्पे गुणु विष्णु, तं पेक्खि जण खिष्णु । ता गयणे गुणसेव, खोहं गया देव । टंकारसदेण, घोरें रउद्देण । . घरणियलु तडयडिउ, तस कुम्भु कडडिउ । (3.18.2) निर्वेद भाव को उद्दीप्त करनेवाले अनेक प्रसंग कविकाव्य में दृष्टिगत हैं । पुत्रवियुक्ता विलाप करती हुई स्त्री को देख करकंड के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है (9.4.6-10) । मर्त्यलोक में समुद्र के समान विशाल दुःख हैं और मधु-बिंदु के समान स्वल्प भोग-सुख हैं । कविश्री ने, इन शब्दों द्वारा दुःख की विशालता, गम्भीरता, क्षारता, अनुपादेयता और सुख की मधुरता, स्वल्पता, दुर्लभता आदि भनेक भावों की व्यंजना कर दी है।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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