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________________ जैन विद्या - मुनिश्री कनकामर ने प्राकृतिक दृश्यों का स्वाभाविक वर्णन किया है किन्तु चामत्कारिता और नवीनता की दृष्टि से कोई विशेष बात दिखाई नहीं देती । वस्तुतः कविश्री का हृदय प्रकृति में भलीभांति रम नहीं पाया । प्रकृति कविहृदय में स्पन्दन और स्फूर्ति का ज्वार पैदा नहीं कर सकी जैसा कि अपभ्रंश के अन्य कवियों पुष्पदंत, धनपाल, वीर आदि कवियों के काव्य में परिलक्षित है तथापि मुनिश्री का प्रकृति-चित्रण स्वाभाविक है किन्तु कविश्री सरोवर को जड़ और स्पन्दनरहित नहीं देखता। शुभ्र फेन-पिंड से वह हँसता हुमा, विविध पक्षियों से नाचता हुमा, भ्रमरावलि गुंजन से गाता हुआ और पवन से विक्षुब्ध जल के कारण दौड़ता हुआ सा प्रतीत होता है (4.7.3-8)। वर्णन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कविश्री प्रकृति में जीवन, जागृति और स्पन्दन स्वीकारते हैं ।10 डॉ. तगारे ने 'करकण्डचरिउ' की भाषा को दक्षिणी अपभ्रंश कहा है। मुनिश्री कनकामर की भाषा में रसानुकूल गुणों का समावेश है। युद्ध वर्णन में भाषा प्रोजगुणप्रधान है तो शृंगार वर्णन में भाषा माधुर्य गुण से अनुप्राणित है । कविश्री कनकामर ने भाषा को भावानुकूल बनाने के लिए ध्वन्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है (3.8) । इसके प्रयोग से पृथ्वी, समुद्र और आकाश के विक्षोभ की सूचना मिल जाती है। शब्दाडम्बर-रहित, सरल और संयमित भाषा में जहां कवि कनकामर ने गम्भीर भावों को अभिव्यंजित किया है वहां उनकी शैली प्रभावोत्पादक हो गई है। संसार की क्षणभंगुरता और असारता का प्रतिपादन करनेवाले स्थलों में भाषा के उक्त रूप के अभिदर्शन होते हैं। शैली-उत्कर्ष हेतु प्रतिपाद्य विषय को रोचक बनाने के लिए हृदयस्पर्शी सूक्त्यात्मक वाक्यों, सुभाषितों का व्यवहार प्रावश्यक होता है । इस दिशा में मुनिश्री कनकामर की सफलता दर्शित है यथा लोहेण विडंविउ सयलु जणु भणु किं किर चोज्जई गउ करइ । (2.9.10) अर्थात् लोभ से पराभूत सकल जग क्या. आश्चर्यजनक कार्य नहीं करता? गुरुप्राण संगु जो जणु वहेइ, हियइच्छिय संपइ सो लहेइ। (2.18.7). अर्थात् जो गुरुजनों के साथ चलता है वह अभीष्ट सम्पत्ति प्राप्त करता है । मुनिश्री कनकामर में थोड़े.. से शब्दों, द्वारा, सजीव सुन्दर चित्र खींचने की क्षमता विद्यमान है (6.9.8-10) । काव्य में अनेक शब्द-रूप. हिन्दी शब्दों से पर्याप्त साम्य रखते हैं यथा-.. . . . .. ..... . . . .... ... पुक्कार .. . 'पुकार .. 12.19) वार्ता, बात .. (2.1.13) सयाणु सयाना, सज्ञान (2.5.8) चुक्कइ चूकना (2.8.5) (2.16.1) चडेवि .. . . ..: चढ़कर . (1.10.9) डाल. . . शाखा, डाल .. . (1.6.5) वात ... कहाणी कहानी
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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