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जैनविद्या
आगे
अग्गइ
(1.14.4) गुड-सक्कर-लड्डु गुड़-शक्कर-लड्डू
(2.7.1) इस प्रकार मुनिश्री कनकामर की भाषा सप्राण, सशक्त और सजीव है ।
मुनिश्री कनकामर ने अपनी भाषा को अलंकृत करने का प्रयत्न नहीं किया तथापि महाकाव्य में यत्र-तत्र अलंकारों के प्रयोग द्रष्टव्य हैं । शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग परिलक्षित है । इन अलंकारों में भी सादृश्य योजना वस्तु के स्वरूप का बोध कराने के लिए ही की गई है, भावतीव्रता के लिए नहीं। अप्रस्तुत योजना के लिए परम्परागत उपमानों के अतिरिक्त ऐसे भी उपमानों का प्रयोग कवि ने किया है जिनसे उसकी निरीक्षण शक्ति प्रतीत होती है यथा
करिकण्ण जेम थिर कहि ग थाइ, पेक्खंतह सिरि णिग्णासु जाइ । जह सूयउ करयलि थिउ गलेइ, तह गारि विरती खरिण चलेइ। (9.6)
अर्थात् श्री की चंचलता की उपमा हाथी के कानों की चंचलता से और नारी के अनुराग की क्षणिकता की उपमा करतलगत पारे की बूंदों से देकर कवि ने अपनी निरीक्षण शक्ति और अनुभूति का सच्चा परिचय दिया है । शब्दालंकारों में श्लेष (3.14.8), यमक (9.9.4) उत्प्रेक्षा (1.3.10), परिसंख्या (1.5.5) तथा अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग कवि-काव्य में हुआ है । कविश्री ने अलंकार वर्णन अपने ज्ञानप्रदर्शन के लिए नहीं किया अपितु वह सहजता के साथ प्रस्तुत हुआ है।
मुनिश्री कनकामर ने पज्झटिका छंद का बहुलता के साथ व्यवहार किया है। बीच बीच में कतिपय पंक्तियां कड़वक, अलिल्लह या पादाकुलक छंद में भी प्रयुक्त हैं। प्रत्येक सन्धि में छंद परिवर्तन हेतु मुनिश्री कनकामर ने समानिका, तूणक, दीपक, सोमराजी, चित्रपदा, प्रमाणिका, स्रग्विणी, भ्रमरपदा या भ्रमरपट्टा, चन्द्रलेखा, घत्ता आदि छंदों का व्यवहार सफलतापूर्वक किया है।
इस प्रकार मुनिश्री कनकामर का करकंडचरिउ धार्मिक तथा रोमाण्टिक चरितात्मक महाकाव्य है । वस्तु-वर्णन, चरित्र-चित्रण और भाव-व्यजंना इस महाकाव्य में समन्वित-रूप में विद्यमान है। घटना-विधान और दृश्य-योजनाओं को भी कविश्री ने पूरा विस्तार दिया है।
आदर्शवाद का मेल कविता की समाजनिष्ठ पद्धति और प्रबन्धशैली से अच्छा हुआ है। इसमें कवियुगीन सामाजिक व्यवस्था का सुन्दर चित्रण दृष्टिगत है । विलासमय वातावरण के वर्णन में मुनिश्री को पर्याप्त सफलता मिली है । समाज में मंत्र-तंत्र, शुभ-शकुन, शाप आदि में निष्ठा, सदाचार का संदेश प्रादि का वर्णन महत्त्वपूर्ण है । झूठा आदर्श जीवन के लिए मंगलप्रद नहीं हो सकता । कविश्री कनकामर के भावों की अतल गहराई में उतरकर अमूर्त भावनाओं को मूर्त-रूप प्रदान करने का प्रयास किया है। जिज्ञासा को उत्तरोत्तर तीव्र करने के लिए कथाओं को गतिशीलता दी गई है। कथाएं व्रत या चारित्र पालने के लिए भावोत्तेजक हैं । वस्तुतः