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________________ (v) पिछले 60-70 वर्ष में डॉ. हरमनजैकोबी, पिशेल, डॉ. दलाल, मुनि जिनविजयजी, डॉ. परशुराम वैद्य, प्रो. हीरालाल जैन, डॉ. उपाध्ये, पं. लालचन्द गांधी, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. अल्सफोर्ड, राहुलसांकृत्यायन, नाथूराम प्रेमी आदि विद्वानों द्वारा जो जैन साहित्य - अन्वेषित हुआ, नवीन ढंग से सम्पादित होकर प्रकाशित हुआ उसके फलस्वरूप साहित्य क्षेत्र में जैन प्रतिभा के प्रति विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ है और अब जायसी, तुलसी आदि पर अपभ्रंश भाषा के जैन महाकवियों का प्रभाव स्वीकार किया जाने लगा है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन इनमें प्रमुख हैं। यह भी अंगीकार कर लिया गया है कि अपभ्रंश भाषा का अध्ययन-मनन किये बिना हिन्दी के विकास को समझा नहीं जा सकता और अपभ्रंश की रचना का अधिकांश जैन विद्वानों द्वारा रचित है । जैनविद्या जैन साहित्य के इसी महत्त्व को देखते हुए जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी द्वारा एक षाण्मासिक पत्रिका 'जैनविद्या' का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया है । अपभ्रंश भाषा की उपयोगिता एवं आधुनिक ढंग से उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता को अनुभव कर सर्वप्रथम उसने इस क्षेत्र को चुना है जिसके अनुसार अपभ्रंश भाषा के मूर्द्धन्य छह रचनाकारों पर अब तक उसके सात अंक प्रकाशित हो चुके हैं । यह आठवां अंक अपभ्रंश भाषा के ही 11वीं शताब्दी के कवि मुनि कनकाम पर पाठकों को समर्पित है जिसमें उनके व्यक्तित्व तथा उनकी कृति 'करकण्डचरिउ' का विभिन्न दृष्टिकोणों से अधिकृत विद्वानों, मनीषियों एवं चिन्तकों द्वारा अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । 'करकण्डचरिउ' के रचनाकार एक जैन सन्त हैं, अतः उनकी रचना का मूल उद्देश्य पाठक को आत्मा पर पड़े हुए विभिन्न कर्मपुद्गलों के आवरण को हटा कर उसके सहज स्वरूप का भान कराना है । यह अवस्था तब तक प्राप्त नहीं की जा सकती जब तक वह रागद्वेषरहित निराकुल अवस्था को प्राप्त नहीं कर ले । इसीलिए रचना पाठक को कई रसों की अनुभूति कराते हुए शान्त रस में परिसमाप्त होती है और कथा का नायक करकण्डु जीवन में कई उतार-चढ़ावों का अनुभव करके अन्त में सर्वार्थ की सिद्धि कर लेता है । साहित्य में तत्कालीन समाज का प्रतिबिंब झलकता है इस इप्टि से यदि रचना का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि उस समय भी लोग अपशकुन से भयभीत हो जाते थे और अपनी सन्तान तक का त्याग कर देते थे । करकण्डु की माता को इसी कारण जन्मते ही उसके माता-पिता ने यमुना नदी में बहा दिया था । स्त्रियां अपनी सौत से डाह करती थीं इसी कारण वनमाली की पत्नी ने पद्मावती को घर से निकलवा दिया था । बड़े-बड़े मंदिरों का निर्माण हो रहा था, उनका खर्चा चलाने के लिए गृहस्थों को व्ययसाध्य उद्यापन सहित व्रत-उपवासों का अतिरंजित फल बता कर उन्हें जैन मन्दिरों में विपुल दान देने की प्रेरणा की गई है श्रादि ।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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