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________________ प्रकाशकीय समस्त चराचर जगत् में मानव ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जिसे प्रकृति ने चिन्तनमनन करने की शक्ति प्रदान की है। इसी वैशिष्ट्य के कारण वह मानव नाम से अभिहित किया जाता है । इसकी दूसरी विशेषता है अक्षरात्मक वाणी जिसके कारण वह अपने चिन्तनमनन, सोच-विचार को दूसरों तक सम्प्रेषित करने में समर्थ है। तीसरी विशिष्टता है अपने विचारों को लेखिनीबद्ध कर उसे स्थायित्व प्रदान करने की। किसी भी धर्म, दर्शन अथवा साहित्य के उद्गमस्थल होते हैं मन, मस्तिष्क और नैसर्गिक प्रतिभा । धर्म और दर्शन मानव की दीर्घ साधना और तपस्या के फल हैं । जैनधर्म और संस्कृति का मूलाधार है अहिंसा और समता । वह विरोधी के विचारों का दमन नहीं करती, समानरूप से उनका आदर करती है, उनके साथ समन्वय स्थापित करती है । वह वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखती है, परखती है । वस्तु में विभिन्न परस्पर विरोधी युग्मों की स्वीकृति ही अनेकान्त है और वाणी द्वारा उनमें से किसी एक धर्मविशेष को मुख्य एवं अन्य धर्मों को गौण कर कथन करना ही अपेक्षावाद अथवा स्याद्वाद है । जैनधर्म श्रावश्यकता से अधिक संग्रह करने में नहीं बांट कर खाने में विश्वास करता है । ऐसे धर्म और दर्शन से ओतप्रोत निश्छल हृदय से जो वाणी फूटती है वह लोक कल्याणकारी, सबका उदय चाहनेवाली होती है । प्राणिमात्र उसके लिए समान होते हैं। किसी प्राणिविशेष, वर्गविशेष, क्षेत्रविशेष, जातिविशेष आदि के साथ उसका कोई पक्षपात नहीं होता । जैनसन्त ऐसे ही धर्म और संस्कृति के उपासक होते हैं अतः स्वभावतः उनकी रचनाएँ जैन वातावरण, जैनमान्यताओं से परिपूर्ण होती हैं । किन्तु जैनधर्म और संस्कृति में ऊंच-नीच आदि को कोई स्थान न होते हुए भी वे अपनी रचनाओं को संकुचित क्षेत्र से ऊपर नहीं उठा सके । इसी कारण जैनेतर समाज में इसका प्रचार-प्रसार बहुत ही कम रहा । वैसे भी दर्शन का विषय शुष्क तथा बोझिल होता है और जैन रचनाएँ प्राय: इसी विषय से सम्बद्ध हैं अतः यह भी एक और कारण उनके कम प्रचार-प्रसार का रहा है ।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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