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जनविद्या
चोल, चेर और पाण्ड्य ये तीन सुदूर दक्षिण की प्राचीन राजनीतिक शक्तियां थीं। कहा जाता है, करकण्डु ने उन्हें पराजित किया था। ये तीनों राजशक्तियां जैनधर्म का पालन करनेवाली थीं । अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उसका इन शक्तियों के साथ मैत्री सम्बन्ध रहा है। संगम युग में चोलों का प्रभुत्व कम हो गया पर चालुक्यों और पल्लवों के साथ राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित कर उन्होंने अपनी स्थिति मजबूत कर ली । सक्कोलम के युद्ध ने चोल राजसत्ता को हिला दिया । 925 ई. में राजराज प्रथम के राज्यारोहण से चोलवंश का वैभव जाग्रत हो गया। चेर नरेश रविवर्मन को भी उसने पराजित किया तथा पाण्ड्य नरेश और लंकाधिपति के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की । पाण्ड्य शक्ति का अस्तित्व ई. पू. में रहा है । चतुर्थ से षष्ट शताब्दी तक वह शक्ति दबी रही पर सप्तम शताब्दी में अरिकेशरी के पाने से स्थिति में परिवर्तन आया। पल्लव-पाण्ड्य-चोल संघर्ष भी हुए। चेर राज्य का सम्बन्ध केरल से रहा है । करकण्डु ने इनके साथ ही श्रीलंका को भी जीता। पारिदमन का सम्बन्ध कदाचित् अरिकेशरी से रहा हो । ये सारे संदर्भ लगभग आठ से दशवीं शताब्दी के बीच घटित हुए हैं।
एक अवान्तरकथा में नरवाहनदत्त का उल्लेख पाया है। हम जानते हैं, सौराष्ट्र में एक सरदार ने क्षहरातवंश की स्थापना ई. पू. 57 में की । इस वंश में भूमक, घटक, नहपान आदि प्रसिद्ध राजा हुए। इनमें नरवाहन (22-66 ई.) अथवा नहपान प्रमुख शासक था। इसी समय गिरिनार की चन्द्रगुफा में प्राचार्य धरसेन (अंगपूर्वज्ञान के अन्तिम देशज्ञाता) विराजमान थे। उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को आगम ज्ञान का अध्ययन कराकर उसे लिपिबद्ध करने का आदेश दिया था। श्रुतावतार के अनुसार क्षहरातवंशी नहपान ही 'भूतबलि' थे और राजश्रेष्ठी सुबुद्धि 'पुष्पदन्त" के नाम से विश्रुत हुए।
____ करकण्डु ने लंका जाते समय मलय प्रदेश में सिरीपूदी नामक गिरिवरेन्द्र देखा जिस पर धवल गगनचुम्बी चतुर्विंशति जिनालय (5.4) था। डॉ. हीरालालजी ने इसे मालावार के अन्तर्गत पोदियाल नाम की पहाड़ी बताया है। इसकी पहिचान मालकूट से की जा सकती है। 640 ई. में दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए चीनी यात्री युवानच्वांग ने इसकी सूचना दी है। मालकूट में उस समय पाण्ड्यों का साम्राज्य था जो कांची के शक्तिशाली पल्लवों के अधीन रहे होंगे। मदुरा यहां की राजधानी थी । बौद्धधर्म यहां से प्रायः लुप्त हो चुका था पर दिगम्बर जैन मन्दिर सहस्रों की संख्या में थे। लंकानरेश सूरप्रभ ने इसी पर्वत पर एक चतुर्विशति जिनालय का निर्माण कराया था। ..
करकण्डु ने सिंहल यात्रा की और वहां एक ऐसे नगर में पहुंचा जहां विशाल वटवृक्ष था। वहां के राजा की पुत्री रतिवेगा से उसका परिणय भी हुआ। महावंश (पृ. 67) से हमें यह जानकारी मिलती है कि विजय और उनके अनुयायियों को श्रीलंका में यक्ष-यक्षिणियों का तीव्र विरोध सहना पड़ा था। बाद में पाण्डुकामय (438-368 ई. पू.) उनका सहयोग लेने में सफल हो गया। उसने अनुराधापुर के प्रासपास जोतिय निग्गंठ के लिए एक विहार भी बनवाया। यहां लगभग 500 विभिन्न मतावलम्बी रहते थे। वहीं गिरि नामक एक निगण्ठ भी रहते थे।