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________________ जैन विद्या एवं लक्ष्मीतिलक का प्रत्येकबुद्धचरित (सं० 131 ) तथा समयसुन्दगाणि, भावविजयगणि व तीन अज्ञातकर्तक काव्य प्रमुख हैं। श्रावश्यकनिर्युक्ति में भी उनका उल्लेख आया है । 44 दिगम्बर परम्परा में उपर्युक्त चार प्रत्येकबुद्धों में से मात्र करकण्डु को ही चरित - नायक बनाया गया है और उन्हें भी प्रत्येकबुद्ध न मानकर एक चमत्कारी व्यक्तित्व के रूप में प्रदर्शित किया गया है । इस परम्परा में मुनि कनकामर प्रथम कवि हैं जिनका अनुकरण कर श्रीचंद्र, रामचंद्रमुमुक्षु श्रौर नेमिदत्त ने अपने कथाकोश ग्रन्थों में तथा रइधू, जिनेन्द्रभूषण भट्टारक और श्रीदत्त पण्डित ने स्वतन्त्र काव्यरूपों में करकण्डु के चरित्र को निबद्ध किया है । करकण्डचरिउ यद्यपि चरित-ग्रन्थ है पर उसमें इतिहास और संस्कृति भी प्रतिबिम्बित हुई है। डॉ० हीरालाल जी के अनुसार कारंजा की प्रति में इसका रचना स्थल "प्रसाइय" और टिप्पण में प्रासापुरी दिया है जिसकी पहिचान उन्होंने भोपाल के समीपवर्ती आशापुरी ग्राम से की है। वहां जैन भग्नावशेष और तीर्थंकर शान्तिनाथ की मूर्ति भी उपलब्ध है । सम्भव है चेदिनरेशों की राज्यसीमा यहां तक रही हो । चेतियजातक में चेदिनरेश उपचर के पांच पुत्रों द्वारा हत्थिपुर, अस्सपुर, सीहपुर, उत्तर पांचाल और दद्धरपुर नगरों की स्थापना की गई थी । प्रशस्ति में दिये गये राजाओं के नाम भी चंदेलवंशी राजाओं से मिल जाते हैं । करकण्डु के जीवन का सम्बन्ध विशेषतः अंगदेश, सौराष्ट्र और दक्षिणवर्ती प्रदेशों से रहा है । उनमें चेल, चोल श्रौर पांड्य नरेश प्रमुख हैं । चम्पापुरी में धाड़ीवाहन नरेश का उल्लेख आया है जिसे दधिवाहन के साथ बैठाया जा सकता है । उसकी रानी कौशाम्बी नरेश वसुपाल की पुत्री पद्मावती थी । चम्पापुरी यद्यपि जैनशासन की केन्द्रस्थली रही है पर उपलब्ध इतिहास में इस नाम का कोई नरेश देखने में नहीं प्राया । इसका सर्वप्रथम उल्लेख ' आवश्यक नियुक्ति में हुआ है जिसे भद्रबाहु की रचना माना जाता है । ये भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहु तो हो ही नहीं सकते । अन्य भद्रबाहुनों के समय का अभी तक कोई निश्चय नहीं हो पाया । पर आवश्यक निर्युक्ति में उपलब्ध संस्कृति के आधार पर यह श्रवश्य कहा जा सकता है कि वह 8वीं शताब्दी के आसपास की रचना होनी चाहिए। उत्तराध्ययन में करकण्डु का नाम अवश्य आता है पर उसे बौद्ध जातक से उद्धृत किया गया जान पड़ता है। बौद्ध जातकों का समय भी ईसवी काल के आसपास से अधिक पीछे नहीं ले जाया जा सकता । कुछ जातककथाएं तो पाँचवी शताब्दी के बाद की भी प्रतीत होती हैं। कोशाम्बी जैन संस्कृति का केन्द्र रहा है। महात्मा बुद्ध के समान तीर्थंकर महावीर की भी गतिविधियां उससे जुड़ी रही हैं। मृगावती, शतानीक, उदयन श्रादि का भी उल्लेख आता है परन्तु वसुपाल का सम्बन्ध ऐतिहासिक दृष्टि से अभी भी अज्ञात है । फिर भी ऐसा लगता है कि करकण्डचरिउ से उल्लिखित वसुपाल बंगाल के पालवंश से सम्बद्ध नरेश होना चाहिए । पालवंश का राज्य आठवीं शताब्दी के प्रथमार्द्ध से प्रारम्भ होता है । वसुपाल का सम्बन्ध महीपाल से जोड़ा जा सकता है। इसी राजा के काल में चोलों का आक्रमण हुआ । गुर्जरों के साथ भी उनका संघर्ष होता रहा है ।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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