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करकण्डचरिउ में प्रतिपादित
इतिहास व संस्कृति
-डॉ० भागचन्द्र भास्कर
करकण्डचरिउ का अपभ्रंश-काव्य परम्परा में एक विशिष्ट स्थान है। मुनि कनकामर (12वीं शती) ने अपने इस कथाग्रन्थ की उत्थानिका (1.2) में सिद्धसेन, समन्तभद्र, अकलंकदेव, जयदेव, स्वयंभू तथा पुष्पदन्त का पूरे सम्मान के साथ उल्लेख किया है । इसमें दस सन्धियां और उनमें 201 कड़वक हैं जिनमें मुख्यतः पज्झटिका छन्द प्रयुक्त हुआ है । शैली सरस व काव्यात्मक है । .
- करकण्ड को जन-परम्परा में बौद्ध धर्म के समान प्रत्येक-बुद्ध माना गया है । प्रत्येकबुद्ध किसी एक निमित्त से स्वयं दीक्षित होकर उपदेश दिये बिना ही मुक्त हो जाते हैं। जैनधर्म में यह कल्पना बौद्धधर्म से प्रादत्त प्रतीत होती है । दोनों परम्पराओं में मूलतः उनकी संख्या चार है-करकण्ड, नग्गइ, नमि. और दुर्मुख.। ये महात्मा बुद्ध के पूर्ववर्ती रहे हैं.पर जैनों ने उन्हें तीर्थकर पार्श्व का. समकालीन घोषित किया है। उत्तराध्ययन (18.45) में उनका मात्र उल्लेख उपलब्ध है। पर उत्तरकालीन श्वेताम्बर परम्परा में उसे विस्तार दिया गया है । नन्दिसूत्र में प्रत्येक बुद्ध को प्रोत्पातिकी, वनयिकी, कार्मिकी, और पारिणामिकी बुद्धि से युक्त मानकर उनकी संख्या को सीमित नहीं किया है जबकि ऋषिभाषित में यह संख्या पैंतालीस निर्दिष्ट है। जो भी हो, जैनाचार्यों ने प्रत्येकबुद्धों के चरित को दसवीं शताब्दी के बाद काव्यबद्ध किया है । ऐसे काव्यों में श्री तिलकसूरि का प्रत्येकबुद्धचरित (सं० 1261), जिनरत्न