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________________ जैन विद्या व्याप्ति अर्थात् सर्वज्ञता। फलस्वरूप कवि सर्वज्ञ है, द्रष्टा है। इसलिए श्रुति में स्पष्ट किया है-कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः । यहाँ परिभूः से तात्पर्य है जो अपनी अनुभूति में सब कुछ समेट ले और स्वयंभू जो अपनी अनुभूति के लिए किसी का भी ऋणी न हो । काव्य उसी मनीषी की सृष्टि है जो स्वयं सम्पूर्ण और सर्वज्ञ है । इस दृष्टि से करकण्डचरिउ एक उत्कृष्ट काव्य है और मुनि कनकामरजी श्रेष्ठ कविर्मनीषी हैं। काव्य का प्रयोजन विषय पर चर्चा करते हुए काव्यशास्त्रियों ने मूल्यवान् चर्चा की है और इस दृष्टि से स्थापना की कि जहां तक काव्यप्रयोजन का सम्बन्ध है, प्राचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि को अपनाते हुए काव्य को धर्म, अर्थ, और काम के अतिरिक्त मोक्ष का भी साधन बतलाया है । पुरुषार्थ चतुष्टय पुरुष को पूर्णता प्रदान करता है । पूर्णता का अपरनाम सत्य है । कविता का लक्ष्य सत्य की शुभ ज्योति है जिसके द्वारा मनुष्य अपने अस्तित्व को सन्तुलित एवं समन्वित बनाने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार काव्य पवित्रीकृत जीवन है । काव्य हृदय और बुद्धि की संश्लिष्टि है। उसे मात्र रसवाद के अन्तर्गत सीमित करना उचित नहीं । यद्यपि आज काव्य को रसमूलक-प्रबन्धकाव्य, भावमूलक गीतिकाव्य तथा परिहासमूलक परिहास अथवा विडम्बना काव्य मानते हैं। स्पष्ट है कि रस एवं भाव काव्य के हृदय पक्ष हैं जबकि विचार तथा परिहास चमत्कार वस्तुतः बौद्धिक पक्ष है । इस प्रकार काव्य तत्त्वों में दो रूप स्थिर किए गए हैं यथा- . 1. भाव पक्ष 2. कला पक्ष भाव पक्ष में काव्य-कथ्य-कथानक, रसपरिपाक तथा प्रकृति-चित्रण का समावेश रहता है जबकि उसके कला पक्ष में भाषा, शैली, अलंकार, छन्द, रीति, गुण आदि तत्त्वों का सहयोग रहता है। काव्य के निर्माण में कवि के स्वभाव, संस्कार और देश-काल की परिस्थितियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । काव्य पर तत्कालीन बदलती लोकरुचि का भी प्रभाव पड़ा करता है । इस प्रकार जीवन-पद्धति के अन्तर से काव्य-पद्धति में भी परिवर्तन हो जाता है । युगधर्म और काव्यलेखन में अनन्य सम्बन्ध है । विवेच्य कवि मुनि कनकामर का समय विक्रम की 12वीं शताब्दी है और उनकी एकमात्र काव्यकृति 'करकण्डचरिउ' का रचनाकाल ग्यारहवीं शती का मध्यभाग सिद्ध होता है । करकंडचरिउ पर तत्कालीन प्रचलित सामाजिक प्रवृत्तियों, परम्पराओं तथा साहित्यिक रीति-रिवाजों का प्रभाव परिलक्षित है । यहां काव्यशास्त्रीय निकष पर प्रस्तुत ग्रन्थ का अंकन-मूल्यांकन करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है। विवेच्य काव्य करकंडचरिउ एक प्रबन्धकाव्य है । इसका मूलकथ्य राजकीय परम्परा से दीक्षित है तथापि उसमें अनेक अवान्तर कथानकों का भी समावेश है। काव्यरूप की दृष्टि से यह एक चरित-काव्य है। अपभ्रंश वाङ्मय में चरिउ-काव्य रचने की पद्धति प्रारम्भ से ही रही है । यद्यपि अपभ्रंश साहित्य में करकण्डचरिउ को खण्डकाव्य की कोटि में रखा
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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