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________________ संवर भावना जो समत्तु धीरचित्तु उद्धरेइ, सो वि दुट्ठ मिच्छदिट्टि संवरेइ । . जो खमाएँ सुद्धियाएँ वावरेs, कोहवारि दुक्खकारि सो हरेइ । मद्दवेण जो चरेइ सुद्धएण, माणखंभु तासु जाइ णिच्छएण । अज्जवम्मि चित्तु देइ जो महंतु, सो हवेइ वंचणाविसो णिहंतु । कार्यपडे सुंदरे वि जो गिरोहु, सो णिरुत्तु पक्खलेइ लोहसीहु । धम्मे संतु भाउ देवि जो सरेवि, तं मणो वि मक्कडो वि सो धरेवि । पूययाएं पूयएइ वीयराज, तक्खणेण सो होइ दुट्ठराउ । धम्मसव्वु भावसुद्धि भाणजोइ, जो करेइ सो धरेइ काउलाई । अर्थ- जो धीरचित्त सम्यक्त्व को प्राप्त करता है वह दुष्ट मिथ्या दृष्टि को रोकता है, दूर रखता है । जो शुद्ध क्षमाभाव से कार्य करता है उसका मानरूपी स्तम्भ निश्चय से समाप्त हो जाता है । जो महान् पुरुष श्रार्जवभाव में चित्त रखता है वह छलरूपी विष का विनाशक हो जाता है । जिसे इस सुन्दर कायपिण्ड में रस नहीं है वह निश्चय ही लोभरूपी सिंह को स्खलित कर देता है । जो शांत भाव से धर्म का स्मरण कर मनरूपी मर्कट को वश में करता है, जो पवित्र भाव से वीतराग की पूजा करता है वह तत्क्षण ही दुष्ट राग का नाश करता है । जो सब प्रकार से धर्माचरण करता है, भावों में शुद्धि लाता है तथा योग-ध्यान करता है वह केवल - ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है । करकण्डचरिउ 9.13
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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