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________________ '40 मैनविद्या में उत्पन्न हुए पर वैराग्य के कारण दिगम्बर मुनि बने । इनके गुरु का नाम बुधमंगलदेव था। प्रासाई नगरी में इन्होंने उक्त काव्य की रचना की । यथा चिरु दियवर वंसुप्पण्णएण, चंदारिसिगोत्ते विमलएण । बहरायई हुयई दियंबरेण, सुपसिद्धरणामकणयामरेण । बहुमंगलएवहो सीसएण, उप्पाइयजरणमणतोसएण । प्रासाइणयरि संपत्तएण, जिणचरणसरोरुहभत्तएण। 10.28 कनकामर दिगम्बर मुनि थे। प्रासाई नगरी के सन्दर्भ में विवाद है । कुछ विद्वान् इसे इटावा के समीप और कुछ भोपाल के समीप मानते हैं । करकंडचरिउ की अंतिम प्रशस्ति में विजयपाल, भूपाल और कर्ण राजाओं का उल्लेख है । इस प्राधार पर डॉ० हीरालाल जैन ने इनका समय विक्रम की 12वीं शती माना है20 जो उचित ही है। कनकामर अत्यन्त विनीत थे, उन्होंने काव्य के अन्त में लिखा है-मुझ शास्त्रविहीन ने जो कुछ कहा है उसे विद्वान् शोध कर प्रकट करें, उन्होंने हाथ जोड़कर सभी से क्षमायाचना भी की है। करकंडचरिउ 10 संधियों में विभक्त है । उसकी कथा हम ऊपर दे चुके हैं । इसमें १ अवान्तर कथाएँ भी आई हैं जो मूलकथा के विकास में सहायक हैं । यह एक धार्मिक कथाकाव्य है । वीर, शृंगार और भयानक रसों का अद्भुत समन्वय इसमें हुआ है । भाषा में सरसता, सरलता और प्रवाह है । चम्पा नगरी के सुन्दर वर्णन का एक उदाहरण द्रष्टव्य है जा वेढिय परिहाजलभरेण, एं मेइणि रेहइसायरेण । उत्तुंगषवलकउसीसएहि, णं सग्गु छिवइ बाहूसरहिं । जिरणमन्दिर रेहहिं जाहिं तुंग, रणं पुग्णपुंज रिणम्मल अहंग। कोसेयपडायउ घरि लुलंति, रणं सेयसप्प गहि सलवलंति । 1.4 . करकणचरिउ-अपभ्रंश भाषा में ही महाकवि रइधु ने करफंडुचरिउ लिखा। डॉ. राजाराम जैन ने विभिन्न स्त्रोतों के आधार पर रइधू की 37 रचनाओं का अन्वेषण किया है जिनमें करकण्डुचरिउ भी एक है पर कष्ट का विषय है कि इसकी प्रति अब तक उपलब्ध नहीं है । डॉ. राजाराम ने भी यही सूचना दी है ।21 करकण्हुचरित्र-इसके लेखक भट्टारक शुभचन्द्र हैं । ये ज्ञानभूषण के प्रशिष्य और विजयकीति के शिष्य थे । इनका समय वि. सं. 16वीं सदी का उत्तरार्द्ध और 17वीं सदी का पूर्वार्द्ध माना जाता है ।22 करकंडुचरित्र संस्कृत भाषा में लिखा गया सुन्दर चरितकाव्य है । शुभचन्द्र अपने समय के गणमान्य विद्वान् थे । संस्कृत पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्हें 'त्रिविधविद्याधर' और 'षट्भाषाकविचक्रवर्ती' की उपाधियां मिली हुई थीं।
SR No.524757
Book TitleJain Vidya 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra Jain & Others
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year1988
Total Pages112
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Vidya, & India
File Size11 MB
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